मानव-सभ्यता का प्रथम पालना की खोज --जीव व मानव की गाथा ...डा श्याम गुप्त --
पृथ्वी – जन्म 4 अरब वर्ष
पूर्व माना जाता है – दो मूल सिद्धांतों के अनुसार---
1 बिगबेंग (विज्ञान ) से--नीहारिका (नेब्यूला) – बिगबेंग से सोलर सिस्टम एवं ..पृथ्वी
का जन्म |
..2.महासूर्य ( भारतीय वैदिक विज्ञान )...एकोहं बहुस्याम, ईशत इच्छा...अखंड ऊर्जा
प्रादुर्भाव à महासूर्य-à महाविष्फोट---सौर मंडल व पृथ्वी का जन्म |..
2 अरब वर्ष पूर्व - पृथ्वी
के घूर्णन के कारण, पृथ्वी पर उपस्थित एक स्थलीय पिंड पेंजिया से à...... उत्तर व दक्षिण में दो भूमिखंड - लारेशिया
व गोंडवाना लेंड बने |
-चित्र
१-लारेशिया व गोंडवाना लेंड
३५ करोड़ वर्ष पहले ---- गर्म जल में जीव की उत्पत्ति –
भूमध्य रेखा पर स्थिति, गर्म जलवायु एवं जल की
उपस्थिति के कारण गोंडवाना लेंड, ठन्डे व शुष्क लारेशिया की अपेक्षा
जीवन की उत्पत्ति व संरक्षण के अधिक अनुकूल था | गोंडवाना लेंड (जिसमें द.
अमरीका, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, अन्टार्कटिका एवं भारतीय भूभाग (महाद्वीप) समिलित
थे ) के अफ्रीका से सटे हुए सम्मिलित भारतीय
महाद्वीप भूभाग में हुई जो गोंडवाना
लेंड बनने के समय से सदैव एक ही स्थिति में रहा तथा तीन ओर सागर से घिरा रहा अतः
जीव की उत्पत्ति के लिए अनुकूल स्थान था |
१८ करोड़ वर्ष पूर्व--- गोंडवाना लेंड का विघटन प्रारम्भ प्रारम्भ हुआ और १३ करोड़ वर्ष
पूर्व --भारत अफ्रीका से अलग होकर उत्तर को बढ़ने लगा| लगभग 5 करोड़ वर्ष
पूर्व --भारतीय प्लेट की यूरेशियन प्लेट से टक्कर हुई|
और अगले तीन करोड़ वर्षों में
टेथिस सागर में भारतीय-ऑस्ट्रेलियाई
प्लेट के डूबने के कारण इसका समुद्र तल
ऊपर की ओर उठता गया तथा इसके कम गहरे हिस्से पानी से ऊपर निकल आए। इससे तिब्बत के पठार की रचना हुई तथा विश्व की सबसे ऊंची पर्वत श्रृंखला हिमालय उठना प्रारम्भ
हुआ| टेथिस सागर की विलुप्ति व हिमालय को पूरी ऊँचाई प्राप्त करने में 60
से 70
लाख वर्ष लगे |
मात्र 6 लाख वर्षों के दौरान, अत्यंत नूतन युग (, 16 लाख से 10 हज़ार वर्ष पहले तक) में ही हिमालय
पृथ्वी की सबसे ऊँची पर्वत श्रृंखला बनी। इतनी ऊँचाई तक उपर उठा कि उत्तर व दक्षिण के मध्य जलवायवीय अवरोध
बन सके।
आज की पराहिमालय पर्वत श्रेणी इस क्षेत्र
का पहला बड़ा जलवायवीय अवरोध बना | जो
उत्तरी यूरेशिया के ओर से आने वाली ठंडी हवाओं को रोकने में समर्थ था एवं पूर्व –दक्षिण
से जाने वाले जलीय मेघों को भी, तथा ढलानों पर होने वाली वर्षा के जल को भारतीय
भूखंड की ओर बहाने में सक्षम, अर्थात भारतीय भूखंड स्थित जीवन का संरक्षक |
दोनों भू-सागरीय प्लेटों के टकराने, टेथिस सागर की विलुप्ति, व
सागरीय लवणीय बालुका क्षेत्र के नदियों द्वारा जमा मिट्टी से उपजाऊ गंगा-सिंध के
मैदान बनने के साथ साथ विभिन्न भूपरिवर्तनों, नदियों के मार्ग विचलनों के कारण
नगरों की स्थितियों में भी परिवर्तन होते रहते थे, दक्षिण के स्थान क्रमश उत्तर की
ओर खिसकते जारहे थे, उत्तर भारत के आज के समय के स्थान उस समय काफी दक्षिण में रहे
होंगे | जैसा कि पौराणिक कथाओं में एक ही स्थल विभिन्न दूरियों व स्थानों पर
वर्णित मिलते हैं ( जिसे हम कपोल-कल्पना समझते हैं) | इस लम्बे काल खंड में भारतीय
उपमहाद्वीप में आदि-मानव व मानव बसने व उन्नत होने लगा
था |
इस प्रकार धरती के समस्त महाद्वीपों आदि के साथ साथ भारतीय प्रायद्वीप की वर्त्तमान भौगोलिक स्थिति का प्रादुर्भाव हुआ | भारतीय भूभाग युरेशिया के मध्य में स्थिर हुआ और पृथ्वी का सबसे स्थिर भूभाग बना ( ….जो बाद में पृथ्वी का सबसे उपजाऊ व समृद्ध क्षेत्र बना और मानव की प्रथम जन्म भूमि व प्रथम पालना…..)
चित्र-3--- पृथ्वी व भारत की वर्त्तमान स्थिति – रामायण कालीन मानचित्र---
गोंडवाना
लेंड के विघटन पर वहा उत्पन्न जीव व प्राणी अफ्रीका
एवं भारतीय भूभाग में बंट गए -----
1. अफ्रीका से ---समस्त अफ्रीका,
योरोप, एशिया की ओर उन्मुख प्राणी -àआदि मानव ---प्रकृति व विपरीत मौसम के
कारण बार बार विक्सित होकर विनष्ट होते रहे |---वस्तुतः प्रत्येक भूखंड पर अपने समयानुसार ..मानव स्थानांतरित
व विक्सित होता रहा परन्तु ... उचित जीवन विकास योग्य वातावरण के अभाव में नष्ट
होता रहा...जैसा वर्णित विभिन्न लुप्त मानव शाखाओं से पता चलता है |
2. भारतीय-टेक्टोनिक प्लेट सदा से ही प्रत्येक हलचल में पृथक अस्तित्व में रही है....१३०० मि. सुपर कोंटीनेंट रोडेनिया के समय
भी ....पेंजिया के समय भी एवं गोंडवाना लेंड.. के विघटन पर विभिन्न महाद्वीप बनने
के समय से भारतीय-भूखंड बनने तक भी ... अतः भारतीय
प्रायद्वीप के भूखंड पर जीवन सबसे अधिक काल तक रहा |
अतः उत्तरीय हिम-प्रदेशीय हवाओं से सुरक्षित
क्षेत्र होने से पृथ्वी के अन्य स्थानों की अपेक्षा जीवन के सर्वाधिक उपयुक्त
होने के कारण ...प्राणी का तेजी से विकास हुआ और
मानव का जन्म स्थल भारत बना....एवं लगभग २ मि. में होमो वंश के पहले
प्राणी आदि-मानव एवं विक्सित आधुनिक
मानव का जन्म यहीं हुआ| अतः भारत
भूमि ही मानव का प्रथम पालना भी बना | यही समय मानव के उद्भव का भी वैज्ञानिकों
द्वारा निश्चित हुआ है...|
मानव का अवतरण एवं विश्व में
फैलना ( ह्यूमन
माइग्रेशन )
प्रायः योरोपीय विद्वान् मानव
का अवतरण अफ्रीका मानते हैं, श्री गोखले उत्तरी ध्रुव जहां से वे समस्त विश्व में
फैले | कुछ विद्वान् व संस्थाएं मानव का अवतरण भारत में मानती हैं | अभी हाल के
विभिन्न शोधों व खोजों से मानव की उत्पत्ति के चिन्ह दक्षिणी एशिया में मिले
हैं | जहां से वे सभी विश्व में फैले| यह दक्षिणी-एशिया भारत से अन्यथा और कोई हो
ही नहीं सकता |
अतः हम अपने पुनः पुनः आवागमन सिद्धांत
द्वारा मानव का प्रथम पालना भारत भूमि थी, इस विचार को निम्न प्रकार से सम्मुख
रखेंगे ----
पुनः
पुनः आवागमन सिद्धांत ----आवागमन
–अर्थात जीव या प्राणी या मानव केवल आगे की ओर ही गतिवान नहीं रहते, अपितु कुछ उसी
स्थान पर बस जाते थे और कुछ पुनः पुनः उसी स्थान पर लौट भी आते थे, उस स्थान पर
शेष बचे एवं लौटे हुए नव-विकासमान स्तर पर पुनः पुनः आगे की ओर गतिमान रहते थे | इस
प्रकार स्थानान्तरण( migration) एक सतत स्थिरता व गतिशीलता युत प्रक्रिया है एवं
प्रत्येक विकास या विनाश के स्तर पर आवागमन (माइग्रेशन ) होता रहता है|
(क)
प्रथम मानव आवागमन
( फर्स्ट ह्यूमन माइग्रेशन )—------
गोंडवाना लेंड में अफ्रीकी-भारतीय क्षेत्र में उत्पन्न जीव/प्राणी—एवं
विकासमान आदि-मानव : ---
अफ्रीका से उत्तर की ओर सारे अफ्रीका में फैलते हुए,
लारेशिया भूखंड पर पहुंचे और समस्त यूरेशिया में फैलते रहे| जीवन के लिए उपयुक्त
जलवायु न होने के कारण बार बार वृद्धि व नाश को प्राप्त होते रहे |
अफ्रीका से पृथक हुए भूखंड, भारतीय प्रायद्वीप पर उपस्थित जीव-प्राणी
भारतीय प्रायद्वीप में विक्सित हुए | नर्मदा
नदी क्षेत्र में उपस्थित प्राणी -à
आदि मानव में विक्सित हुए |
पहले उत्तरी हवाओं से दूर टेथिस सागर के पार होने पर, सुमेरु, कैलाश आदि परा-हिमालयी
श्रेणियों के कारण पुनः हिमालय के विकास के उपरांत सर्वोच्च हिमालयी
श्रेणियों के कारण उत्तरीय हिम-प्रदेशीय
हवाओं से सुरक्षित क्षेत्र होने से पृथ्वी के अन्य स्थानों की अपेक्षा जीवन के सर्वाधिक
उपयुक्त होने के कारण ...प्राणी का तेजी से
विकास हुआ और होमो वंश
के पहले प्राणी आदि-मानव का विकास उत्तर
पर्वतीय क्षेत्र की परा-हिमालयी भूभाग की भारत-भूमि
पर हुआ |
चित्र -4- चित्रचित्र
यह आदि-मानव
---भारतीय दक्षिण प्रायद्वीप में मानव में विक्सित होते हुए –डोनोवंस मानव- क्रमिक समूहों में सुमेरु क्षेत्र, मध्य एशिया,
कैलाश-मानसरोवर–सरस्वती क्षेत्र पहुंचे | जहां जीवन के विकास हेतु समस्त पृथ्वी से
सर्वश्रेष्ठ स्थान था | नर्मदा क्षेत्र से उत्तर
की ओर चलते हुए, हिमालय की निचली श्रेणियों को पार करते हुए सुमेरु व कैलाश की चहुँ ओर से घिरी सुरक्षित
श्रेणियों की घाटियों में बस गया जहां जल व खाद्य पदार्थ की प्रचुरता थी | (
गंगा यमुना का मैदान अभी केवल लवणीय बालू का मैदान था |)
एक अन्य शाखा भारत से पश्चिमोत्तर, उत्तरापथ होते
हुए मध्य एशिया, योरोप व केश्पियन क्षेत्र पहुंचे
जहां अफ्रीका से आये आदि-मानवों से युग्मन
हुआ | केश्पियन क्षेत्र व यूरोपीय क्षेत्र में मानव विकास हेतु अक्षम जलवायु के
कारण ये आदि-मानव व विकासमान नियंडरथल मानव बार बार नष्ट होते रहे|
ये
जीव, प्राणी व विकासमान आदि-मानव भारतीय स्थल से पूर्वोत्तर एशिया क्षेत्र होते
हुए बेयरिंग स्ट्रेट द्वारा अमेरिकन क्षेत्र
एवं भारत से दक्षिण-पूर्व होते हुए आस्ट्रेलियन
क्षेत्रों में पहुंचे |
(ख)
द्वितीय मानव आवागमन
( सेकिंड ह्यूमन माइग्रेशन ) ---
विकास के अगले सोपान पर सर्वश्रेष्ठ स्थिति में
रहे तिब्बत, सुमेरु क्षेत्र, मानसरोवर क्षेत्र के डोनोवंस व योरोप सुमेरु क्षेत्र
से आये हुए बचे हुए नियंडरथल्स--à धीरे धीरे पूर्ण विक्सित मानव –होमो
सेपियंस में विकसित होने लगे| इस प्रकार मानव का जन्म व विकास
तिब्बत, सुमेरु, मानसरोवर क्षेत्र माना गया |
टेथिस सागर की विलुप्ति
एवं भारतीय प्रायद्वीप के टेथिस सागरीय भूमि से जुडने पर सम्पूर्ण भारत के निर्माण
के उपरांत उत्तरी हिमक्षेत्र तिब्बतीय पठार, सुमेरु क्षेत्र एवं उठते हुए हिमालय
आदि द्वारा प्राकृतिक रूप से संपन्न भारतीय भूभाग
जीवन हेतु सर्वाधिक उपयुक्त हुआ जहां हिमालय की रक्षापंक्ति
से सुरक्षित एवं सरस्वती आदि ...महान बड़ी नदियों के देश सप्तचरुतीर्थ में उपस्थित आदिमानव का पूर्ण मानव ( होमो सेपियंस )
में विकास हुआ जिन्होंने ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र, सप्तर्षियों के नेतृत्व में सरस्वती-दृषवती
सभ्यता को जन्म दिया |
पूर्ण विक्सित मानव, जो अब केवल फ़ूड गेदरर
न होकर हंटर-गेदरर हो चला था, जनसंख्या की वृद्धि एवं अन्य कारणों( राजनैतिक,
आर्थिक, पारस्परिक) से पुनः चहुँ ओर आवागमन करने लगा| धीरे धीरे परिस्थितियाँ
अनुकूल होने लगीं तथा जनसंख्या बढ़ने के कारण सुमेरु क्षेत्र से àकेश्पियन सागर क्षेत्र, मध्य एशिया, योरोप व
सुदूर योरपीय क्षेत्र, तक फैलता गया | हिमालय
के नीची श्रेणियों के आर-पार ये मानव तिब्बत क्षेत्र में एवं आगे तक पामीर एवं
सुमेरु पर्वत आदि हिमप्रदेश में फैले एवं हिमालयी श्रेणियों को पार करके दक्षिण एशिया, उत्तरी भारत होता हुआ दक्षिणी
भारत तथा पश्चिमोत्तर उत्तरापथ द्वारा समस्त अरब, अफ्रीका, आदि समस्त विश्व में
फ़ैल गया |
(ग) तृतीय मानव आवागमन – ( थर्ड ह्यूमन माइग्रेशन ) ---
दक्षिण प्रायद्वीप में विक्सित
नियंडरथल से होमो सेपियंस में विकासमान अवस्था में पेड़ों व गुफाओं से आखेटक रूप छोड़कर खेतिहर रूप में नदियों के किनारे
बसता हुआ, सभ्यताएं स्थापित करता हुआ मानव..उत्तर की ओर गमन करता हुआ मध्य भारत होता हुआ अपनी आदि
भाषा, सभ्यता एवं देवता संभु सेक, ( आदिदेव महादेव जिन्होंने बाद
में समुद्र मंथन से
निकला कालकूट विष पान एवं स्वर्ग से गंगावतरण आदि के उपरांत
ब्रह्मा, विष्णु से मैत्री के साथ ही देवलोक, जम्बूद्वीप एवं विश्व के अन्य समस्त
खण्डों एवं द्वीपों तथा देव-असुर आदि सभी को एक सूत्र में बांधने हेतु दक्षिण
भारत की बजाय कैलाश को अपना आवास बनाया एवं दक्ष की पुत्री सती से विवाह किया
और कालांतर में देवाधिदेव कहलाये |), के नेतृत्व में
उत्तर के सप्त-चरु तीर्थ क्षेत्र में पहुंचा | दोनों
भरतखंडीय सभ्यताओं ने मिलकर उन्नत सभ्यताओं को जन्म दिया | सरस्वती सभ्यता,
सिन्धु घाटी व हरप्पा सभ्यता के स्थापक भी यही मानव थे | हिमालय के नीची श्रेणियों
को पार करके ये मानव तिब्बत क्षेत्र में एवं आगे तक पामीर एवं सुमेरु पर्वत आदि
हिमप्रदेश में फैले एवं समस्त भारत में एक उन्नत सभ्यता देव
सभ्यता की स्थापना की |
1. दक्षिण
भारत में – --- दक्षिण प्रायद्वीप गोंडवाना प्रदेश – में स्थित शेष मानव का सामाजिक व भौतिक विकास हुआ,
भाषा का भी विकास होने लगा | ये शेष डोनोवन मानव समूह के विकासमान मानव उत्तर की
ओर धीरे धीरे अपनी सभ्यता का विकास करते हुए अपने विभिन्न क्षेत्रों की स्थानीय
बोलियों सहित उत्तर की ओर बढ़ते रहे | इनके देवता/ राजा शंभू या शिव थे
इस समय तक टेथिस सागर के विस्थापन से बने लवणीय क्षेत्र के स्थान पर
हिमालयी नदियों के बालुका भण्डार से भर जाने से उत्तर भारत का विश्व प्रसिद्द
उपजाऊ मैदान ( आज का सिन्धु-सरस्वती-गंगा-यमुना का मैदान) अस्तित्व में आचुका था |
ये दक्षिण भारतीय मानव अपनी सभ्यता व संस्कृति का विकास करते करते नगरों,
साम्राज्यों को बसाते हुए अधिकाँशत: प्रायद्वीप के अरब सागरीय तटीयभागों से होते
हुए होमोसेपियंस में विकासमान अवस्था में मानव..उत्तर की ओर गमन करता हुआ मध्य
भारत होता हुआ अपनी आदि व स्थानीय बोलियाँ, सभ्यता एवं देवता संभु सेक
या शिव के नेतृत्व में उत्तर के मैदान में पहुंचा एवं हरप्पा पूर्व व प्रारम्भिक -हरप्पा सभ्यता, या सिन्धु घाटी सभ्यता का विकास हुआ| जिसके प्रमाण व चिन्ह बोम्बे से गुजरात, सिंध,
पंजाब तक मिलते हैं|
2. उत्तर भारत में—सुमेरु क्षेत्र, मानसरोवर, सरस्वती का हिमालयी भाग प्राकृतिक रूप से संपन्न भारतीय भूभाग जीवन हेतु सर्वाधिक उपयुक्त था
जहां उपस्थित आदिमानव का पूर्ण मानव ( होमो सेपियंस ) में विकास हुआ जिन्होंने
ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र, सप्तर्षियों के नेतृत्व में उच्चतर सभ्यता को जन्म दिया| सुमेरु स्थल के चहुँ ओर स्वर्ग जैसे सौन्दर्यपूर्ण हरे-भरे मध्य एशिया
में ब्रह्मलोक, विष्णु लोक, इन्द्रलोक , स्वर्गलोक आदि बसाए गए | कश्यप ऋषि की २३
पत्नियों द्वारा समस्त देवता( सुर) , दानव, असुर , नाग आदि सब प्रकार के विभिन्न
प्राणियों की कोटियाँ समस्त केश्पियन क्षेत्र व यूरेशिया बसती गयीं | स्थानीय
बोलियों आदि के समन्वय से संस्कारित होकर पूर्व-संस्कृत या आदि-संस्कृत का जन्म
हुआ | यहाँ की भाषा देव
भाषा – आदि-संस्कृत -देव संस्कृत थी
जो.. आदिवासी, वनान्चलीय, स्थानीय कबीलाई व दक्षिण भारतीय जन जातियों की भाषा आदि
प्राचीन भारतीय भाषाओं से संस्कारित होकर बनी थी |
हिमालय के नीची श्रेणियों को पार करके
तिब्बत क्षेत्र में एवं आगे तक पामीर एवं सुमेरु पर्वत
आदि हिमप्रदेश में फैले एवं समस्त भारत
में एक उन्नत सभ्यता देव सभ्यता की स्थापना की उत्तर-पश्चिम
यूरेशिया, अफ्रीका, अरब, पश्चिम व मध्य एशिया, दक्षिण भारत, अमेरिका, आस्ट्रेलिया
आदि में फैले, वैदिक सभ्यता का झंडा लहराते हुए |
मानव इतिहास का
सर्वप्रथम सांस्कृतिक समन्वय --- मनु, मानव व वैदिक
सभ्यता ---
ब्रह्मा के पुत्र मनु की संताने मानव
कहलाईं जो सुमेरु क्षेत्र में जनसंख्या बढ़ने के कारण ब्रह्मा द्वारा पृथ्वी पर
बसने का आदेश दिया गया अर्थात सुमेरु क्षेत्र से हिमालयी क्षेत्र होते हुए भारतीय
भूमि बसाए गए | वे अपनी उन्नत
सभ्यता, विभिन्न स्थानीय बोलियाँ सहित हिमालय की श्रेणियां पार करते हुए
सरस्वती-सिन्धु के मैदान सप्तचरूतीर्थ में पहुंचे|
यहाँ
सृष्टि के महान समन्वयक दक्षिण भारतीय आदि-देव शिव-शम्भू, संगठनकर्ता विष्णु एवं
मध्यस्थ सभी के पितामह ब्रह्मा के समन्वय में दोनों भरतखंडीय
सभ्यताओं ने मिलकर एक उन्नततम सभ्यता को जन्म दिया जो पश्च-हरप्पा या सरस्वती-सभ्यता
व पूर्व-वैदिक, वैदिक सभ्यता कहलाई और त्रिदेव – ब्रह्मा, विष्णु, महेश का
आविर्भाव हुआ| यहीं ऋग्वेद की रचना हुई| जिसे
भगवान शिव ने संकलित किया एवं चार वेदों में विभाजित किया | यही आर्य
सभ्यता पूर्व की मूल प्रचलित भाषा देव-संस्कृति ..देव-लोक की भाषा --आदि संस्कृत
थी जिसे देव-वाणी कहा जाता है | जो.. आदिवासी, वनान्चलीय, स्थानीय कबीलाई व दक्षिण भारतीय जन जातियों की
भाषा आदि प्राचीन भारतीय भाषाओं से संस्कारित होकर बनी थी | वेदों की रचना इसी देव भाषा में हुई जिन्हें शिव ने चार विभागों में किया, जिनके अवशेष
लेकर प्रलयोपरांत चतुर्थ मानव आवागमन के रूप में मानवों की प्रथम-पीढी वैवस्वत मनु
के नेतृत्व में तिब्बत से भारतीय क्षेत्रों में उतरी |
इस प्रकार
ब्रह्मा-विष्णु-महेश- स्वय्म्भाव मनु, दक्ष, कश्यप-अदिति-दिति द्वारा
स्थापित विविध प्रकार के आदि-प्राणी सभ्यता.. ( कश्यप ऋषि की विविध पत्नियों से
उत्पन्न विश्व की मानवेतर संतानें नाग, पशु, पक्षी, दानव, गन्धर्व, वनस्पति
इत्यादि ) एवं देव.असुर सभ्यता आदि का निर्माण
हुआ| मूल भारतीय प्रायद्वीप से स्वर्ग
व देवलोक ( पामीर, सुमेरु, जम्बू द्वीप, समस्त पुरानी दुनिया=यूरेशिया+अफ्रीका
+भारत ) कैलाश में दक्षिण –प्रायद्वीप से उत्तरापथ एवं हिमालय की मनुष्य के लिए
गम्य ( टेथिस सागर की विलुप्ति व हिमालय के ऊंचा उठने से पूर्व ) ..नीची श्रेणियों
से होकर मानव का आना जाना बना रहता था... यही सभ्यता कश्यप ऋषि की संतानों –
देव-दानव-असुर आदि विभिन्न जीवों व प्राणियों के रूप में समस्त भारत एवं विश्व में
फ़ैली एवं विश्व की सर्वप्रथम
स्थापित सभ्यता देव-मानव सभ्यता कहलाई |
स्वर्ग, इन्द्रलोक, विष्णुलोक, शिवलोक, ब्रह्मलोक ....सुमेरु-कैलाश ..पामीर
–आदि पर्वतीय प्रदेशों में एवं स्वय्न्भाव मनु के
पुत्र- पौत्रों आदि द्वारा ,काशी, अयोध्या आदि
महान नगर आदि से पृथ्वी को बसाया जा चुका
था | विश्व भर में विविध
संस्कृतियाँ नाग, दानव, गन्धर्व, असुर
आदि बस चुकी थीं | हिमालय के दक्षिण का
समस्त प्रदेश द्रविड़ प्रदेश कहलाता था..जो सुदूर
उत्तर तक व्यापार हेतु आया-जाया करते थे |
हरप्पा या सिन्धु घाटी सभ्यता नष्ट नहीं हुई अपितु
वह वैदिक सभ्यता में विलीन होकर एकाकार होगई और आज भी हिन्दू या भारतीय या सनातन
सभ्यता उसी सरस्वती–सभ्यता एवं वैदिक सभ्यता के मूल गुण धर्म अपनाये हुए है |
हम जो कुछ भी हरप्पा सभ्यता व वैदिक सभ्यता में
देखते हैं, धर्म—प्राकृतिक पूजा, स्त्री-सत्तात्मक समाज, वर्तन –मिट्टी व कांस्य,
खिलौने, मातृशक्ति महत्ता, पशुपति शिव, स्वास्तिक, चक्र, इंद्र, विष्णु, ब्रह्मा, देवी
पार्वती, दक्ष, सुमेरु, स्वर्ग, इन्द्रलोक, वेद, व्यवहार, रहन-सहन, भाषाएँ वह सभी
आज भी समस्त भारत में उत्तर, दक्षिण में अपितु समस्त विश्व में विभिन्न भावान्तर,
भाषांतर, एवं स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार विभिन्न धार्मिक अंतर से व्याप्त है,
सभी धर्म आदि-वैदिक धर्म के ही रूपांतर हैं |
प्रमाण यही बताते
हैं कि भारत के उत्तराखण्ड अर्थात्
ब्रह्मावर्त क्षेत्र में ही सप्तचरुतीर्थ के पास वितस्ता
नदी की शाखा देविका नदी के तट पर मनुष्य जाति की उत्पत्ति
हुई...अतः कहा जाता है यहीं पर आदि-सृष्टि की उत्पत्ति हुई कहा जाता है |
विश्व के तीन मूल धर्मों में मानव से सम्बंधित कुछ विशिष्ट बिंदु ये
हैं --
-----रोम व यूनानी अपने देवताओं को सुमेरु पर
स्थित मानते थे एवं देवों की आज्ञा से वे पृथ्वी लोक में आये...|
----ईसाइयों के ईश्वर ने भी इंसान को स्वर्ग
से निकाल दिया ...|
----मुस्लिमों का खुदा भी सातवें आसमान पर
रहता है |
----थेओसोफिकल समाज के अनुसार वैदिक धर्म के लोग भारत के ही मूल निवासी थे |
उन्होंने ही योरोपीय सभ्यता का भी प्रारम्भ किया| क्योंकि वैदिक ज्ञान में भारतीय
वैदिक अध्यात्मिक ज्ञान एवं यूरोप के भौतिक ज्ञान का समन्वय है |
----ईरानी भाषा के
प्राचीनतम ग्रंथ अवेस्ता की सूक्तियां ऋग्वेद से मिलती जुलती हैं। अगर इस
भाषिक समरूपता को देखें तो ऋग्वेद का रचनाकाल इससे काफी पूर्व आता है। बोगाज-कोई
(एशिया माईनर) में पाए गए ईसा पूर्व के
अभिलेख में हिंदू देवताओं इंद, मित्रावरुण, नासत्य
इत्यादि को देखते हुए इसका काल और अधिक पीछे माना जा सकता है।
सुर-असुर सभ्यता ---
प्रारंभिक ऋग्वेदिक
मंडलों में सृष्टि उत्पत्ति सूक्तों में सुर का अर्थ तात्विक अर्थ पदार्थ
रचना के सृजनशील मूल प्राकृतिक सृष्टि कणों (शक्तियों) को कहा गया है एवं असृजनशील
व सृजन में बंधता बाधा उत्पन्न करने वाले कठोर रासायनिक बंधनों को बनाने वाले कणों
को ( शक्तियों को ) असुर कहा गया है |
–-ऋग्वेद १/२२/२२६ में मन्त्र है..तद्विष्णो
परमं पदं सदा पश्यति सूरय: दिबीव चक्षुराततम |---अर्थात ..सूरयः (सुर)
= विद्वान्, ज्ञानी जन अपने
सामान्य नेत्रों ( ज्ञान चक्षुओं ) से अदृष्ट देव ईश्वर विष्णु को देखते हैं| तथा
“ ---मद्देवानाम सुरत्वेकम || ( ऋक.3/५५) ..सभी महान देवों का
सुरत्व, अर्थात अच्छे कार्य हेतु बल संयुक्त है, एक ही है | अदिति
के सबसे ज्येष्ठ व प्रतापी पुत्र सूर्यदेव के कारण सभी देवों को सुर कहा
गया |
वस्तुतः यह एक
समन्वित सभ्यता थी | स्वयन्भाव मनु पुत्र मानवों के साथ कश्यप सागर क्षेत्र से आये
हुए महर्षि कश्यप की विभिन्न पत्नियों से पुत्र, सभी मानवेतर प्राणी – जो देव, दनुज, दैत्य, नाग आदि थे तथा विविध
आचारों वाले थे | सदाचार मानवों व देवों का मूल-भाव व्यवहार था, जो पिता ब्रह्मा व
विष्णु-इंद्र, शिव सभी के उपासक थे | यद्यपि सभी साथ साथ रहते थे परन्तु मानव व देवों से अन्य
सभी -दनुज, दैत्य, नाग, आदि पितामह ब्रह्मा से शक्ति अर्जन तो करते थे परन्तु
अनाचार-अन्याय से भी दूर नहीं थे | वे केवल शिव का ही पूजन अर्चन करते थे |
वे सभी शक्ति के बल पर भौतिक उन्नति को मूल मानकर अनाचार में लिप्त होने लगे परन्तु देवों ने अध्यात्म, अति-भौतिकता से दूरी एवं सदाचार का मार्ग अपनाया जिन्हें सुर (=देवता) कहा जाने लगा एवं देव विरोधी दैत्य,दानव,नाग आदि को असुर | दोनों ही अपनी सभ्यता को श्रेष्ठ मानते थे| इस प्रकार समस्त पृथ्वी पर देव-मानव सभ्यता व असुर-सभ्यता का प्रसार होने लगा| देवासुर संग्राम होने लगे | मानव प्रायः देवों की सहायता करते थे अतः असुर लोग मानवों पर भी अत्याचार में लिप्त रहते थे| देवों का स्वर्गलोक विश्व-विजेता का सिंहासन माना जाने लगा|
वे सभी शक्ति के बल पर भौतिक उन्नति को मूल मानकर अनाचार में लिप्त होने लगे परन्तु देवों ने अध्यात्म, अति-भौतिकता से दूरी एवं सदाचार का मार्ग अपनाया जिन्हें सुर (=देवता) कहा जाने लगा एवं देव विरोधी दैत्य,दानव,नाग आदि को असुर | दोनों ही अपनी सभ्यता को श्रेष्ठ मानते थे| इस प्रकार समस्त पृथ्वी पर देव-मानव सभ्यता व असुर-सभ्यता का प्रसार होने लगा| देवासुर संग्राम होने लगे | मानव प्रायः देवों की सहायता करते थे अतः असुर लोग मानवों पर भी अत्याचार में लिप्त रहते थे| देवों का स्वर्गलोक विश्व-विजेता का सिंहासन माना जाने लगा|
सुर-असुरों के मूल पुरुष ऋषि कश्यप का
आश्रम मेरू पर्वत के शिखर पर स्थित था | कश्यप सागर ..केस्पियन
सी.... कश्यप मेरु प्रदेश ..कश्मीर प्रदेश उन्हीं के नाम पर कहे जाते हैं| देव, दानव
एवं मानव सभी ऋषि कश्यप को बहुत आदरणीय मानते एवं उनकी आज्ञा का पालन करते थे ऋषि
कश्यप ने अनेकों स्मृति-ग्रंथों की रचना की थी |
प्रारंभ में सभी महाद्वीप आपस में एक से जुड़े हुए थे। इस दूसरे धरती को प्राचीन काल में सात द्वीपों में बांटा गया था – जम्बू द्वीप, प्लक्ष द्वीप, शाल्मली द्वीप, कुश द्वीप, क्रौंच द्वीप, शाक द्वीप एवं पुष्कर द्वीप। इसमें से जम्बू द्वीप सभी के बीचोबीच स्थित था। जम्बू द्वीप के 9 खंड थे : इलावृत, भद्राश्व, किंपुरुष, भारत, हरिवर्ष, केतुमाल, रम्यक, कुरु और हिरण्यमय। इसी क्षेत्र में सुर और असुरों का साम्राजय था |
प्रारंभ में सभी महाद्वीप आपस में एक से जुड़े हुए थे। इस दूसरे धरती को प्राचीन काल में सात द्वीपों में बांटा गया था – जम्बू द्वीप, प्लक्ष द्वीप, शाल्मली द्वीप, कुश द्वीप, क्रौंच द्वीप, शाक द्वीप एवं पुष्कर द्वीप। इसमें से जम्बू द्वीप सभी के बीचोबीच स्थित था। जम्बू द्वीप के 9 खंड थे : इलावृत, भद्राश्व, किंपुरुष, भारत, हरिवर्ष, केतुमाल, रम्यक, कुरु और हिरण्यमय। इसी क्षेत्र में सुर और असुरों का साम्राजय था |
एक ही पितामह सृष्टिकर्ता ब्रह्मा एवं एक
ही पिता कश्यप मुनि की विभिन्न पत्नियों से संतान- देव ‘अदिति’ के पुत्र,
दैत्य 'दिति' के
पुत्र एवं दानव 'दनु' के पुत्र अर्थात भाई भाई होने पर
भी बड़े भाइयों दैत्य व दानवों ने देवों के विरुद्ध दुश्मनी / प्रतियोगिता के कारण
श्रेष्ठता सिद्ध करने हेतु पहले तो अति- साहसतापूर्ण व वीरतापूर्ण कार्यों हेतु
स्वयम को प्रतिबद्ध किया, तत्पश्चात भौतिक उन्नति व सुखलिप्तता हेतु अतिचारी कर्म
प्रारम्भ किये, गुरु भृगु के
पुत्र शुक्राचार्य के नेतृत्व में शक्तिशाली होने पर देवों
के विरुद्ध कर्मप्रारम्भ
कर दिए जो अति-भौतिकतापूर्ण एवं मानवीयता व धर्म-विरुद्ध अनाचारितापूर्ण भी होने
लगे अतः वे सुर विरोधी अर्थात असुर कहलाये जाने लगे, इसी के साथ
वैचारिकता एवं संस्कृति-भिन्नता के कारण स्व-संस्कृति स्थापना एवं वर्चस्व के हेतु
संघर्ष होने लगे |
देवता
और असुरों की यह लड़ाई चलती रही। जम्बूद्वीप के इलावर्त क्षेत्र ( रशिया=रूस)
में 12
बार देवासुर संग्राम हुआ। असुरों ने वर्चस्व
के लिए लगातार देवों के साथ युद्ध किया और इनमें से कई युद्धों में वे प्राय:
विजयी भी होते रहे। असुरों में भी बड़े बड़े प्रसिद्द राज्याध्यक्ष,
बलवान-शक्तिशाली, वीर, भक्त, धार्मिक, विद्वान् हुए | उनमें से कुछ ने तो सारे
विश्व पर अपना साम्राज्य स्थापित किया जब तक कि उनका संहार इन्द्र, विष्णु, शिव आदि देवों ने नहीं किया। देवों, मूलतः इंद्र व विष्णु के शत्रु होने के कारण ही
उन्हें असुर, दुष्ट, दैत्य कहा गया है, किंतु सामान्य
रूप से वे दुष्ट नहीं थे। उनके गुरु भृगु
के पुत्र शुक्राचार्य
थे, जो देवगुरु बृहस्पति
के तुल्य ही ज्ञानी और राजनयिक थे।
महादेव
शिव सुर–असुर दोनों के प्रति समभाव
रखते थे यद्यपि वे दैत्यों के अति-भौतिकता की संस्कृति एवं देवों की
सुखलिप्ततापूर्ण जीवनचर्या की अपेक्षा वनान्चली प्राकृतिक जीवन शैली के समर्थक
थे| असुर भी प्रायः प्रकृति-पूजक थे। देव गुरु बृहस्पति के भाई दैत्य गुरु
शुक्राचार्य स्वयँ शिव के शिष्य, भक्त व उपासक थे | वे उशना नाम से
प्रसिद्द कवि-विद्वान् एवं मृतक को पुनः जीवित कर देने वाली मृतसंजीवनी
विद्या के ज्ञाता थे जो भगवान शिव
ने उन्हें देवों को अमृत द्वारा अमरता प्राप्त होने पर दोनों वर्गों के समानुपातिक
समन्वय व शक्तिसंतुलन के स्वरुप प्रदान की थी | इस प्रकार ब्रहस्पति के शिष्य व
समर्थक देव, सुर तथा शुक्राचार्य के शिष्य व समर्थक दैत्य आदि असुर कहे जाने लगे |
यद्यपि दोनों संस्कृतियों में प्रेम व विवाह
आदि अंतर्संबंध प्रतिबंधित नहीं थे | यथा
उशना अर्थात शुक्राचार्य ने इंद्र के लिए बज्र निर्मित किया, भक्त प्रहलाद,
शंखचूर्ण असुर की पत्नी विष्णु भक्त तुलसी , मथुरा का धार्मिक न्यायप्रिय शासक मधु
दैत्य जिसका पुत्र लवण बड़ा होने पर अत्याचारी राजा व लवणासुर कहा गया ।
दैत्यराज हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रहलाद
के विष्णु भक्त होने के बाद असुर भी मानवीयता एवं भक्ति-भावयुत होने लगे एवं
विद्याधरों की कोटि में आने लगे एवं असुरों में भी देवताओं के समर्थक होने
लगे | वर्चस्व के युद्धों में अंतिम बार प्रहलाद के पुत्र राजा बलि के साथ इंद्र का युद्ध हुआ और
देवता हार गए तब संपूर्ण जम्बूद्वीप पर असुरों का राज हो गया। इस
जम्बूद्वीप के बीच के स्थान में था इलावर्त राज्य
जो आज का समस्त रूस व चीन है |
---– देव केवल स्वर्ग, देवलोक, भरत-खंड ( मध्य एशिया, उत्तरापथ, उत्तराखंड, भारतवर्ष, ब्रह्मावर्त ) तक सिमट गए | तत्पश्चात अमृत-मंथन – समुद्र
मंथन की गाथा इन दो संप्रदायों में समन्वय की कहानी है |जिसके बाद परस्पर
सौहार्द व सहयोग का वातावरण बना |
परस्पर
सहयोग तथा एकजुट प्रयत्न से एक राष्ट्रीय जीवन
की खोज हुई। पशुपालन भी समाज ने सीखा और खेती व्यापक बनी। इस प्रकार एक ओर जहॉं सामाजिकता के सर्वश्रेष्ठ भावों का निर्माण हुआ
दूसरी ओर वहॉं लौकिक उन्नति भी हुई। यह सभ्यता के दोहरे कार्य की ओर पहला
प्रयत्नपूर्वक उठाया गया कदम था। सबका समन्वय करता हुआ, सहिष्णु, एकरस सामाजिक जीवन के निर्माण से समाज मे स्थायित्व एवं अमरत्व आया।
इस मंथन से एश्वर्य तथा संपदा के साथ मानव को वारूणी भी प्राप्त हुई। असुर व असुरों के उपासक, जो प्राकृतिक शक्तियों के ज्ञान में आगे थे, पर रजोगुण एवं तमोगुण प्रधान थे, वारूणी पीकर मदहोश हो गए। इसलिए उनके पल्ले अमृत नहीं पड़ा। वे एकरस सांस्कृतिक जीवन के अंग न बन बसे। फिर भी एक विशाल प्रयत्न सभी प्रकार के लोगों को मिलाकर साथ चलने का अध्यवसाय हुआ और इसी से प्रारंभिक समृद्धि, सामर्थ्य और लौकिक संपदा एकरस सामाजिक जीवन की खोज में मिलीं।
तदुपरांत ब्रह्मा, शिव एवं विष्णु ने वामन-अवतार संधि द्वारा बलि को एवं उसके समर्थक असुरों को पाताल - अमेरिका, आस्ट्रेलिया आदि-- भेज दिया गया एवं देव व उनके समर्थक - मानव, असुर, दैत्य व नाग आदि अन्य मानवेतर जातियां समस्त यूरेशिया, अफ्रीका में फ़ैल गए| इस काल तक असुरों व अन्य देवेतर जातियों के समर्थ, वीर, योद्धा, भक्त एवं महान व्यक्तित्वों को अर्ध-देव व देव श्रेणी में आने का सम्मान मिलना प्रारम्भ होचुका था | यथा इंद्र का मित्र वृषाकपि, बलि को इंद्र पद प्राप्त होना, हनुमान का पूज्य देवों में सम्मिलित होना |
इस मंथन से एश्वर्य तथा संपदा के साथ मानव को वारूणी भी प्राप्त हुई। असुर व असुरों के उपासक, जो प्राकृतिक शक्तियों के ज्ञान में आगे थे, पर रजोगुण एवं तमोगुण प्रधान थे, वारूणी पीकर मदहोश हो गए। इसलिए उनके पल्ले अमृत नहीं पड़ा। वे एकरस सांस्कृतिक जीवन के अंग न बन बसे। फिर भी एक विशाल प्रयत्न सभी प्रकार के लोगों को मिलाकर साथ चलने का अध्यवसाय हुआ और इसी से प्रारंभिक समृद्धि, सामर्थ्य और लौकिक संपदा एकरस सामाजिक जीवन की खोज में मिलीं।
तदुपरांत ब्रह्मा, शिव एवं विष्णु ने वामन-अवतार संधि द्वारा बलि को एवं उसके समर्थक असुरों को पाताल - अमेरिका, आस्ट्रेलिया आदि-- भेज दिया गया एवं देव व उनके समर्थक - मानव, असुर, दैत्य व नाग आदि अन्य मानवेतर जातियां समस्त यूरेशिया, अफ्रीका में फ़ैल गए| इस काल तक असुरों व अन्य देवेतर जातियों के समर्थ, वीर, योद्धा, भक्त एवं महान व्यक्तित्वों को अर्ध-देव व देव श्रेणी में आने का सम्मान मिलना प्रारम्भ होचुका था | यथा इंद्र का मित्र वृषाकपि, बलि को इंद्र पद प्राप्त होना, हनुमान का पूज्य देवों में सम्मिलित होना |
बाद में कर्म के नियमानुशासन की
प्रतिबद्धता से संयुक्त होने पर अति-भौतिकता पर चलने वालों को असुर एवं
संस्कारित मानवीय व उच्चकोटि के सदाचरण के गुणों को सुर कहा गया | ‘देव’ शब्द के लिए सुर का
प्रयुक्त करने लगे और ‘असुर’ का अर्थ ‘राक्षस’ करने लगे।
‘देव’ तथा ‘असुर’ – वैदिक भारतीयों-आर्यों की ही दो शाखाऍं थीं। बाद
के काल में सुर–असुर को ही आर्य-अनार्य कहा जाने
लगा | प्राचीन ग्रंथों में आर्यों के कहीं
बाहर से आने का उल्लेख या किंवदंती नहीं मिलती। आर्यों–-अनार्यों के युद्धों का वर्णन
उक्त ग्रंथों में नहीं है। संघर्ष की कोई झलक हमें ऐतिहासिक
सामग्री में नहीं मिलती।
आर्य व द्रविड़ ---
अर्यमा--वैदिक देवता हैं जो कश्यप मुनि
के पुत्र व तीसरे आदित्य हैं, ये
आदर-सत्कार-सेवाभाव (होस्पीटेलिटी—जो मानव
के स्वाभाविक गुण हैं ) उंच-नीच विभेद व्यवहार और न्यायकारिता, उवर्रता के देवता हैं |
अच्छे मानव में ये गुण होना अनिवार्य है तभी वह आर्य कहलाने योग्य है | आर्य जाति व देश का नाम – पृथ्वी के देव,
पितृव्य के लोक के अधीक्षक अर्यमा के नाम पर हुआ |
महाराजा पृथु के पुत्र द्राविड़ जो भारत के दक्षिण क्षेत्र
के राजा हुए उनके नाम पर इस देश का नाम द्रविड़ देश भी हुआ | महा-जलप्रलय के समय वाले वैवस्वत मनु को द्रविड़ देश का राजा सत्यव्रत कहा गया है | अर्थात आर्य
भारत देश में
स्थित श्रेष्ठ कर्म रत मानवों का समूह था | द्रविड़ देश भारत का ही नाम था | बाद में स्वयं की स्वतंत्र पहचान हेतु दक्षिण भारत स्थित राजा
द्राविड़ के वंशज स्वयं को द्रविड़ कहने लगे होंगे |
वैदिक जन समस्त विश्व में विभिन्न द्रव्य-व्यापार-विनिमय
के लिए प्रसिद्द थे, जो वैदिक जनों ने ही प्रारम्भ किया था| इनके सार्थवाह,
बैलगाड़ियों व अश्व-रथों में आया जाया करते थे | इन्हें ‘द्रविडोदा’..द्रव्य ( = पदार्थ, वस्तुएं, धन, मुद्रा ) प्रदान करने
वाले या द्रविड़ कहा जाने लगा | अर्थात समस्त भारतीय द्रविड़ ही कहलाते थे |
महाजलप्रलय के मूलनायक- द्रविड़ देश (
भारत) के राजा सत्यव्रत ही थे, जो तत्पश्चात वैवस्वत मनु कहलाये|
( द) चतुर्थ मानव आवागमन –( फोर्थ
ह्यूमन माइग्रेशन )...
महा जल-प्रलय एवं मनु की नौका ----
यह देव-असुर सभ्यता उन्नत
होते हुए भी धीरे धीरे भोगी सभ्यता बन चली थी, युद्ध होते रहते थे, स्त्री-पुरुष
स्वतंत्र व अनावृत्त थे, स्त्रियाँ स्वच्छंद थीं, बन्धनहीन व स्वेच्छाचारी | किसी समुदाय की प्रारंभिक त्रुटियाँ होती हैं मस्तीभरा
जीवन, उपभोग्या नारी का स्वरूप,
अनेक स्त्रियों के साथ अवैध संबंध आदि अतिशय
भोगपूर्ण व विलासी जीवन | इस उन्नत सभ्यता में भी यही त्रुटियाँ आयीं | सोमरस का देवों द्वारा और सुरा का असुरों द्वारा पान, उन्मुक्त जीवन आदि | अत्यंत भौतिक उन्नति, प्रकृति से छेड़-छाड़, अति-सुख
की चाह में राग-रंग में मस्त रहना, विलासप्रिय जीवन, क्रमश शासन व सामजिक
नियमानुशासन का क्षीण होते जाना इस महान संस्कृति के भी पतन व नाश का कारण
बनी एवं सृष्टि की सबसे महान जल-प्रलय ( मनु की नौका प्रकरण ) का कारण बनी, जिसका
वर्णन विश्व की प्रत्येक सभ्यता में मिलता है | जिसमें समस्त पश्चिमी एशिया, जम्बू द्वीप, उत्तरापथ, भारत सहित सारी सभ्यता का
सम्पूर्ण विनाश हुआ | जिसके चिन्ह तक हमें प्राप्त नहीं होते | केवल
वैवस्वत मनु एवं साथ नौका में लाये हुए बचे हुए वेद, सप्तर्षि, कुछ बीज आदि ही
बचे|
हिमालय उत्थान के परवर्ती लगभग अंतिम काल के अभिनूतन युग के हिमयुग
में कश्यप क्षेत्र, महान हिमालय एवं हिंदूकुश क्षेत्रों में उत्पन्न भूगर्भीय हलचल
से हुई महा-जल-प्रलय (–मनु की नौका घटना )
में देव-सभ्यता के विनाश पर वैवस्वत मनु ने इन्हीं वेदों के अवशेषों को लेकर तिब्बतीय क्षेत्र से भारत में
प्रवेश किया, ( इसीलिए वेदों में बार बार पुरा-उक्थों व वृहद् सामगायन का वर्णन आता है
) जिसे योरोपीय विद्वान् भ्रमवश आर्यों का भारत में बाहर
से प्रवेश कहते हैं |
इस महाजलप्रलय से विनष्ट सुमेरु या जम्बू द्वीप की देव-मानव-असुर सभ्यता
पुनः आदिम दौर में पहुँच गयी जो लोग व जातियां वहीं यूरेशिया के उत्तरी भागों में
तथा हिमालयके उत्तरी प्रदेशों में फंसे रहे वे उत्तर की स्थानीय मौसम, वर्फीली
हवाएं ....सांस्कृतिक अज्ञान के कारण अविकसित-अर्धविकसित रहे | जो सभ्यताएं मनु के नेतृत्व में हिमालय के
दक्षिणी भाग की भौगोलिक स्वस्थ भूमि ( यथा भारत-भूमि ) पर बसी वह महान विक्सित
सभ्यताएं बनीं |
गौरीशंकर शिखर पर उतर कर मनु एवं अन्य बचे हुए लोग
तिब्बत में बस गए | मनु एवं नौका में बचे हुए जीवों व वनस्पतियों के बीजों से पुनः
सृष्टि हुई| हिमालय की निम्न श्रेणियों को पार
कर मनु की संतानें तिब्बत एवं कम ऊँचाई वाले पहाड़ी विस्तारों में बसती गईं।
फिर जैसे-जैसे समुद्र का जल स्तर घटता गया वे भारतीय भूमि के मध्य भाग में आते
गए। धीरे-धीरे मनु का कुल पश्चिमी, पूर्वी और दक्षिणी मैदान और पहाड़ी प्रदेशों में फैल गए ।
जनसंख्या वृद्धि और वातावरण में तेजी से होते परिवर्तन के कारण वैवस्वत मनु की संतानों ने अलग-अलग भूमि की ओर रुख करना शुरू किया। जो हिमालय के इधर फैलते गए उन्होंने ही अखंड भारत की सम्पूर्ण भूमि को ब्रह्मावर्त, ब्रह्मार्षिदेश, मध्यदेश, आर्यावर्त एवं भारतवर्ष आदि नाम दिए। यही लोग साथ में वेद लेकर आए थे जिन्होंने एक उत्कृष्ट सभ्यता को जन्म दिया जो निश्चय ही विनष्ट देव सभ्यता का संस्कारित रूप था | यही आर्य संस्कृति के नाम से प्रसिद्द हुई |
जनसंख्या वृद्धि और वातावरण में तेजी से होते परिवर्तन के कारण वैवस्वत मनु की संतानों ने अलग-अलग भूमि की ओर रुख करना शुरू किया। जो हिमालय के इधर फैलते गए उन्होंने ही अखंड भारत की सम्पूर्ण भूमि को ब्रह्मावर्त, ब्रह्मार्षिदेश, मध्यदेश, आर्यावर्त एवं भारतवर्ष आदि नाम दिए। यही लोग साथ में वेद लेकर आए थे जिन्होंने एक उत्कृष्ट सभ्यता को जन्म दिया जो निश्चय ही विनष्ट देव सभ्यता का संस्कारित रूप था | यही आर्य संस्कृति के नाम से प्रसिद्द हुई |
आर्य संस्कृति
व अनार्य----
देव सभ्यता की
त्रुटियों का निराकरण करते हुए महान् चिंतक एवं सिद्धांतनिष्ठ व्यक्तित्व के धनी परमश्रद्धेय वैवस्वत
मनु ( जो सनातन मानव परम्परा में सातवें मनु थे) ने महा-जलप्रलयोपरांत मन-मानव –संस्कृति की स्थापना की जो
विनष्ट देव-संस्कृति का ही संस्कारित रूप था | यही आर्य संस्कृति कहलाई |
चित्र-5 –परवर्ती मानव आवागमन (लेटर ह्यूमन माइग्रेशन--श्याम )
वैवस्वत मनु ने आदि मनु, स्वयंभाव मनु द्वारा प्रणीत मानव-धर्मशास्त्र
की स्मृतियों पर ही -मनु-स्मृति के रूप में नीति-नियम पालक व्यवस्था से पुनः समाज को संपन्न किया तथा परिशोधित भाषा वैदिक-संस्कृत व
लौकिक संस्कृत का गठन से एक उच्च आध्यात्मिक चिंतन युक्त श्रेष्ठ
सभ्यता को जन्म दिया जो वैदिक सभ्यता का पुनर्जन्म ही था | वे
सभी मनुष्य आर्य कहलाने लगे। आर्य एक गुणवाचक शब्द है जिसका सीधा-सा अर्थ है श्रेष्ठ। इसी से यह धारणा प्रचलित हुई कि देवभूमि से वेद धरती
पर उतरे। स्वर्ग से गंगा को उतारा गया आदि| इस प्रकार आर्य जाति...विश्व का प्रथम सुसंस्कृत
मानव समूह...का भारतीय
क्षेत्र में जन्म व विकास होने के उपरांत...मानव सारे भारत एवं विश्व भर में
भ्रमण करते रहे सुदूर पूर्व में फैलते रहे |
इन आर्यों के ही कई गुट अलग-अलग झुंडों में पूरी धरती पर फैल गए और वहाँ बस कर भाँति-भाँति के धर्म और संस्कृति व सभ्यताओं आदि
को जन्म दिया जो मूल में आर्य सभ्यता से विपन्न या उसकी की ही स्थानापन्न एवं विभिन्न
विकृतियों से संपन्न सभ्यताएं थीं। सिर्फ भौतिक
सुख में डूबे, स्वयं में मस्त, अधार्मिक कृत्य व व्यवहार वाले लोगों, जातियों व
सभ्यताओं को अनार्य कहा जाने लगा | मनु की संतानें ही आर्य-अनार्य में बँटकर धरती
पर फैल गईं।
इस धरती पर आज जो भी मनुष्य हैं वे सभी
वैवस्वत मनु की ही संतानें हैं | अपने
मूल देश भारत से दूर होते गए यही मानव, स्थान व जलवायु के अनुसार तथा समयानुसार
विस्मृति के कारण आर्य या सनातन संस्कृति व संस्कृत-भाषा के ही विभिन्न बदलाव
रूपों को विभिन्न धर्म और संस्कृति व सभ्यताओं व भाषा के रूप में प्रयोग
व व्यवहार करते हुए समस्त विश्व में स्थापित हुए |
मानव रक्त में आसुरी भाव अर्थात
अति-भौतिकता जनित सुखाभिलाषा के प्रति आकर्षण के कारण विद्रोह करने की क्षमता
पुराकाल से ही चली आ रही है, यही आसुरी भाव प्रत्येक काल में पुनः पुनः सिर उठाता
रहता है । देव व असुरों के आपसी विद्रोह एवं देव-सभ्यता विनाश के पश्चात जब महर्षि अत्रि ने वैवस्वत मनु एवं अपने
शिष्य ऋषि उतथ्य के साथ इस मानव संस्कृति, आर्य संस्कृति की स्थापना की | इसकी
जड़ों को शक्तिशाली और बलवती बनाने का अदम्य प्रयास किया तब भी इसके विरोध के लिये विरोध हुआ। पुलस्त्य और विश्रवा ने अपनी पूर्ण शक्ति से इसकी स्थापना का विरोध
किया तथा रक्ष-संस्कृति की स्थापना की | यही रक्ष-संस्कृति आगे चलकर आर्य संस्कृति के
लिए अत्यन्त
बाधक सिद्ध हुई और अंततः इक्ष्वाकुवंशीय दशरथ नंदन राम द्वारा
रावण पर विजय के उपरांत ही भारत से पूर्ण रूप से आसुरी-अनार्य व्यवस्था ध्वस्त हुई
एवं समस्त भारत व विश्व में आर्य संस्कृति की
स्थापना और रामायण की रचना| |
इसी आकर्षण व विद्रोह क्षमता के कारण
द्वापर में बची-खुची शेष आसुरी शक्तियों का उद्भव हुआ एवं श्रीकृष्ण द्वारा उनका पराभव
करके पुनः धर्म-संस्कृति स्थापना की गयी और गीता
व महाभारत की रचना जिसमें उद्घोष है—
यदा यदा हि धर्मस्य
ग्लानिर्भवति भारत |...
धर्म
संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे |
आज के इतिहास में भी ये आसुरी भाव पुनः पुनः
विविध मानव व्यवहार, विचार, आचरण, कदाचरण, संस्कृति अपहरण के रूप में सिर उठाते
रहे हैं, और आज भी उठा रहे हैं |
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