गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

ये मेरी संस्कृति जो है ..बात भारतीय संस्कृति की ....डा श्याम गुप्त



                    ये मेरी संस्कृति जो है

            जी हाँ, बात हो रही है मेरी संस्कृति की, भारतीय संस्कृति की ...जो अद्भुत है, अनन्यतम है, विविधाओं से युक्त है, जिसकी कोई एक किताब, एक नियम, एक अकेली राह नहीं है | जिसके सारे भगवान-भगवती, देवी-देवता ...विवाहित हैं, बाल बच्चेदार हैं. एक पत्नी व्रत भी...बहु पत्नी वाले भी ..कर में शस्त्र, शास्त्र, पुष्प, वीणा, माला, शंख अदि लिए हुए हैं ...कोई मृगछाला लपेटे...कोई गहनों से लदे हुए हैं| भोग में लिप्त हैं, परम वैरागी भी हैं...मर्यादा पुरुषोत्तम हैं...मर्यादा तोड़ने वाले प्रेम-क्रीडा युत लीलाधर भी | योगेश्वर भी हैं ...विभिन्न युद्ध करते हुए, महान योद्धा भी...रणछोड़ भी | अव्यक्त परब्रह्म भी है..व्यक्त ब्रह्म-ईश्वर भी ...सत भी असत भी ..जो सृष्टि सृजन हेतु वीर्य-निषेचन...गर्भ का आधान भी करता है ... .मायापति भी है, माया बंधन में बंधा माया का दास भी ...नीति-नियम बंधनों से युक्त भी, स्वच्छंदता-अनियमितताओं से भरपूर भी..जिसे विरोधी अज्ञानी जन विकृतियाँ भी कहते हैं....  फिर भी वह सदा सर्वदा पूर्ण है ....
“पूर्णमद: पूर्णमिदं  पूर्णात पूर्णमुदच्यते |
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||”

        यह विश्ववारा संस्कृति है..क्योंकि इस के जन्मदाता प्रथम मानव इसी भारत भूमि से उद्भूत व सम्बंधित हैं...प्रथम मानव यहीं जन्मे, पले, इस उन्नत संस्कृति को जन्म दिया एवं यहीं से समस्त विश्व में फैले...प्रगति का गीत सजाते हुए | अतः यह बहुआयामी संस्कृति है जो मानव जीवन के वैविध्य, आचरण व चरित्र के तात्विक ज्ञान को प्रस्तुत करती है | जहाँ अन्य संस्कृतियाँ व धर्म एकांगी हैं अपूर्ण हैं..जीवन के ज्ञान को अत्यंत सतही रूप में प्रस्तुत करती हैं अतः नष्ट व नष्ट प्रायः होती रहती हैं वहीं भारतीय संस्कृति बहुआयामी जीवन की समस्त तत्वों की गहन तात्विक व्याख्या व उच्चतम ज्ञान को प्रस्तुत करती है ...अतः वह शाश्वत है, सनातन है ...यही सनातन धर्म भी है ...तभी कहा जाता है ..धर्म की जड़ सदा हरी...|

         वेदों..उपनिषदों व पुराणो आदि में जो विभिन्न आख्यानों, कथाओं, उदाहरणों का वर्णन है जिन्हें अज्ञान वश आलोचनाओं का शिकार बनाया जाता है वे वास्तव में जीवन व व्यवहार के उच्चतम ज्ञान से परिपूर्ण तथ्यों की सांकेतिक भाषा में प्रस्तुतियां हैं | उदाहरण स्वरुप हम यहाँ दो दृष्टान्तों का मूल तात्विक व्याख्या स्वरुप प्रस्तुत करेंगे|

१.ब्रह्मा का अरस्वती पर आसक्त होना....कथा है की सृष्टिकर्ता ब्रह्मा सरस्वती ( ज्ञान की देवी...कहीं कहीं शतरूपा भी कहा गया है ) के आविर्भाव पर उस पर आसक्त होगये | वे जिधर जातीं उधर ही देखने लगते ..जब वे आसमान की और जाने लगीं तो ऊपर के पंचम मुख से दृष्टिपात करने लगे | सभी के द्वारा भर्त्सना पर शिवजी ने त्रिशूल से उनका पंचम सिर काट दिया ...वे चतुर्मुख रह गए | दुहिता समान नारी पर कुदृष्टि के कारण उन्हें पृथ्वी पर पूजा से भी वंचित कर दिया गया |
------ तात्विक अर्थ है कि कर्ता को अपने कृतित्व के अतिरेक में इतना अहं में लिप्त नहीं होजाना चाहिए की वह ज्ञानातिरेक में ही इतना लिप्त होजाय एवं चारों और ज्ञान ही ज्ञान दिखाए दे एवं संसार व कर्म से विरत हो जाय, इससे उसके व प्रकृति के कृतित्व में व्यवधान आता है | ब्रह्मा जब अति ज्ञान में लिप्त होगये तो उनसे सृष्टि सृजन में लापरवाही होने लगी | शिव अर्थात प्रकृति के कल्याणकारी रूप द्वारा  सत, तम, रज के सम्यग ज्ञान रूपी त्रिशूल से उनका ज्ञानातिरेक नष्ट किया गया तब वे अपनी मूल कार्य सृष्टि सृजन की और उन्मुख हुए | अपने ही कृति, कृतित्व व कार्य के दर्प व अहंकार में लिप्त स्वार्थी व्यक्ति पूजा के योग्य कहाँ होता है |

२. ब्रहस्पति का वैराग्य एवं पत्नी जुहू की व्यथा .... देव गुरु ब्र्ह्पति की पत्नी जुहू ने देवों से शिकायत की कि ब्रहस्पति अत्यंत वैराग्य की और उन्मुख होगये हैं ,,,वे अपने पति धर्म व सांसारिक धर्म एवं अपने ब्रह्म धर्म का भी निर्वाह नहीं कर रहे हैं | देवताओं ने ब्रहस्पति की महावैराग्य की अवस्था को देखा | सभी ने मिलकर पुनः ब्रहस्पति को अपने कर्म का ध्यान दिलाया एवं जुहू को उन्हें पुनः सौंप कर अपने नियमित धर्म का पालन करने में नियत किया|
------- तात्विक अर्थ है .. शास्त्रों की व्यवस्था है कि प्राणी मात्र को ज्ञान एवं अज्ञान ( संसार, माया, कर्म) को साथ साथ निर्वाह करना चाहिए | केवल ज्ञान भी अन्धकार में लेजाता है, केवल सांसारिक कर्म में स्थित रहना भी | जैसा ईशोपनिषद ( यजुर्वेद अध्याय ४० ) का श्लोक है...
 विध्यांचाविध्या यस्तद वेदोभय सह |
अविध्यायां मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाम्रितंनुश्ते ||
..........अर्थात प्राणी को विद्या व अविद्या दोनों को साथ साथ अपनाना चाहिए| अविद्या ( संसार, कर्म) से संसार रूपी सागर को तैरकर, विद्या (ज्ञान) से अमरता , मोक्ष प्राप्त करना चाहिए |

---अतः वैराग्य की कर्म अक्रिय अवस्था में अपने दोनों धर्म ...सांसारिक एवं ब्राह्मण धर्म से दूर होजाने पर ..सांसारिक तत्व जुहू ने देवताओं...प्रकृति द्वारा उन्हें अपने कर्त्तव्य का भान कराया |

गुरुवार, 28 अगस्त 2014

वैदिक साहित्य में सृजन की महान विद्वत संरचना परिकल्पना (इंटेलीजेंट डिजायन या ग्रांड डिजायन ..डा श्याम गुप्त ...



वैदिक साहित्य में  सृजन की महान विद्वत संरचना परिकल्पना (इंटेलीजेंट डिजायन या ग्रांड डिजायन )


          अमेरिकी वैज्ञानिक, धार्मिक, दार्शनिक क्षेत्रों से उत्पन्न विचार आज विश्व भर के  विज्ञान, धर्म व दार्शनिक जगत में चर्चा का विषय है, कि इतनी जटिल व महान एवं निश्चित संरचना... इंटेलीजेंट ग्रांड डिजायन... जो प्रत्येक कोशिका, परमाणु व भौतिक एवं जीव-जगत व अंतरिक्ष जगत में परिलक्षित होती है डार्विन के प्राकृतिक चयन से नहीं हो सकती अपितु यह अवश्य ही किसी अत्यंत बुद्धिमान संरचनाकार  ( इंटेलीजेंट डिजायनर )  द्वारा ही होसकती है जो मछली के फिन्स व शल्क, पक्षियों के पर, चौंच आदि के सटीक उत्पत्ति में दिखाई देती है | वैज्ञानिकों ने यह भी पाया है कि डीएनए के असंख्य लम्बाई के धागेनुमा संरचनाओं का कोशिका में होना, केन्द्रक में एक बेक्टीरियल मोटर का होना जो 100,000 rpm की गति से कार्य करती है यह अवश्य ही किसी अत्यंत बुद्धिमान संरचनाकार द्वारा ही हो सकती है | यद्यपि उस बुद्धिमान संरचनाकार को ईश्वर कहने में सभी वर्ग हिचकिचाहट में हैं हाँ कुछ ईसाई जगत के लोग इसे ईसाई-प्रभु द्वारा बनाया हुआ मानते हैं| वैदिक साहित्य एवं अन्य भारतीय शास्त्रीय रचनाओं में इस विषय पर पर्याप्त साहित्य उपलब्ध है |
        प्रकृति के बुनियादी संरचना नियमों की परिकल्पना एवं स्थापना ब्रह्म द्वारा की गयी | यजुर्वेद १,३,७ का मन्त्र (सामवेद ३,२१,९ ) देखें....
            “ब्रह्म जजानं प्रथमं पुरस्तात विसीमितः सुरुचो वेन: आव |
            स बुध्न्या sउपमा sस्य तिष्ठा: सतश्च योनिम सतश्च विवः ||
-------सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्म में जो परमशक्ति का प्रादुर्भाव हुआ वह शक्ति ब्रह्म के व्यवस्था रूप में व्यक्त हुई | वही व्यवस्था विविध रूपों में व्यक्त/अव्यक्त लोकों व जगत को प्रकाशित / संचालित करती है |
    “ब्रह्म क्रतोअमृता विश्ववेदस:, शर्म नो यंशन त्रिवारूथ मंहस: ||”..ऋग्वेद -१०/६६/९४९९
---ब्रह्म ने विश्व के सम्पूर्ण ज्ञानयुक्त तीन ...अधि-भौतिक, अधि-दैविक एवं आध्यात्मिक स्वर देने वाला, पृथ्वी, आकाश व द्युलोक को संरक्षण प्रदान करने वाला तीन खम्भों वाला दिव्य आश्रय प्रदान किया |
   जीवन तत्व संरचना नियम का प्रादुर्भाव ब्रह्म द्वारा हुआ ...ऋग्वेद १०/८२ में देखें ..
चक्षुष:पिता मनस्वा हि धीरो घृतमेने  अजन्नम्ममाने|
यदेदन्ता अदद्रहंत पूर्व आदिद द्यावा-पृथिवी अप्रथेताम || -----पूर्व समय में द्यावा-पृथ्वी  का विस्तार होकर वह अन्दर बाहर सुद्रिड होकर प्रतिष्ठित हुए तब सर्वदृष्टा पिता ने नमनशील घृत ( अनुशासनबद्ध, नियमबद्ध ) मूलद्रव्य, प्राण व ओजस ( शक्ति) का सृजन किया | पृथ्वी आकाश अंतरिक्ष के जीवन लायक होने पर जीवन की संरचना की | यजुर्वेद ११/१/४३१ में वर्णित है....
“युन्जन्ति प्रथमं मंस्तत्वाय सविता धिय| अग्नि ज्योति निचाय्य पृथिव्या s अध्यायप्त ||”
----सृष्टा परमात्मा संकल्प शक्ति से सृष्टि संरचना की परिकल्पना मनस्तत्व व धी...बुद्धि व धारण शक्ति का विकास करके अग्नि( ऊर्जा ) से ज्योति जागृत( संकल्पित संरचना ) करके  
भूमंडल में स्थापित कर देते हैं|
यजु.६/4/२१२ का कथन है .विष्णो कर्मणि पश्यतः यतो व्रतानि पस्येस |इन्द्रस्य युज्य सखा ||
---विष्णु ( विश्व अणु ) के सृष्टि राजानं, संचालन एवं धारण नियमों /प्रक्रियाओं को ध्यान से देखें , समझें इन नियमों में अनेकानेक शाश्वत अनुशासनों ( मूल संरचना परिकल्पना ) का दर्शन किया जा सकता है जो संयोजन शक्ति ( इंद्र) के साथ नियामक शक्ति है |
अथर्ववेद 4/१/५९४ में देखें ...सहि दिवि स पृथिव्या ऋतस्य मही क्षेपं रोदसी अस्कभयत |
                       महान मही अस्कभायद विजातो यो सद्य पार्थिवं च रज: ||
---वे परमात्मा ही जो शाश्वत नियमों के द्वारा उन वृहद् पृथ्वी व द्यूलोक को स्थापित करते हैं एवं सूर्य रूप में अपने तेज से उसे संव्याप्त करते हैं|.......ऋग्वेद १०/१२१ में वर्णित है...
यश्चिदापो महिना पर्यावश्यद्द्क्षं दधाना जनयंतीर्यग्यम |
यो देवेष्वधि देव एक आसीत् कस्मै देवाय हविषा विधेम ||  -----जिस परमेश्वर ने आपः ( मूल तत्व, -मूल सरंचना-परिकल्पना सृष्टि संरचना की क्षमता धारक विराट यज्ञ को देखा ...उस समय वही एक देव रूप अवस्थित थे \ वे जो भी हैं हम उन्हीं के निमित्त हवियुक्त अर्चना करें ...करते हैं|......ऋग्वेद १०/९० का पुरुष सूक्त कहता है ...
सहस्रशीर्षा पुरुष सहस्राक्ष सहस्रपातः| सा भूमि विश्वतो वृत्वायत्यतिष्ठ: द्दशान्गुलम ||.----- वह विराट पुरुष जो सहस्र आँखों, चरण, शिर वाला है समस्त संसार का अतिक्रमण करके उसे दस उँगलियों ( निर्माण करने वाले अवयवों ) से आवृत्त किये हुए है |
----सृष्टि निर्माण की समस्त संकल्पना, परिकल्पना की संरचना, महापरिकल्पना, इंटेलीजेंट डिजायन, उस ब्रह्म ने दस उँगलियों अर्थात मनुष्य के हाथों में निहित की हुई है |
       मूल शक्ति-कणों का आविर्भाव एवं सुनियोजित नियामक एवं व्यवहारिक कार्य तंत्रों व चक्रों यथा वायुचाक्र, जलचक्र, वर्षा तंत्र, ऋतुचक्र, कालचक्र आदि की संरचनात्मक परिकल्पना देखिये ऋग्वेद २२/३०५ का कथन है...
         “इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा निधदे यदम | समूलमहस्य पांसुरे ||”
-----त्रिआयामी सृष्टि के पोषण, पूर्ण नियमन का रहस्य अंतरिक्ष की धूलि के सूक्ष्म कणों ( सब एटोमिक पार्टिकल्स ) के प्रवाह ( कोस्मिक विंड ) में सन्निहित है | उन्हीं के अनुरूप पदार्थ बदलते व बनते हैं..यह विष्णु के चक्र ( विश्व-अणु = मूल आदि कण ) के चक्रीय ( संरचनात्मक क्रमिक गतिविधियाँ ) पराक्रम हैं अर्थात यह परमात्मा द्वारा विशेष क्रम में रचा गया परमाणुओं का कार्य सुनियोजित है नियमहीन नहीं |
       ‘एकोsम बहुस्याम ‘ के पश्चात पदार्थों के बनने की क्रमिकता कैसे बनी रहती है |ऋग्वेद १०/१३० में वर्णित है ...“यो यसो विश्वतस्तन्तुभिस्तत एक: शतदेव कर्मभिरायत |
                   इस्त्रे वयन्ति पितरो व आयुष:प्रवमाय वयेत्यासते तते ||”
----- इस सृष्टि यज्ञ में पंचभूत रूपी वस्त्रों को बुना जाता है | पितृगण ( पूर्वकंण, आदि कण ) बुनते हुए, अनेक प्रकार के उत्कृष्ट व निकृष्ट वस्त्रों व पदार्थों की रचना करते हैं|
ऋग्वेद १०/९० में कहा गया है ....   सप्तास्यासन परिधियारिस्त्रि अपत सामिध: कृता |
                             यदज्ञं तत्वाना भवघ्नत्पुरुषं पशुं ||   ----- वे जब सृष्टि का ताना बाना बुन रहे थे तो सृष्टि की सात परिधियाँ बनाई गयीं, ३x७ समिधाएँ हुईं | उस स्वाधीन (पुरुष-ब्रह्म ) को पशु ( पाश = बंधनों से युक्त चेतना ) से आबद्ध किया गया |
 --सात परिधियाँ = रासायनिक वर्ग ब्सारिनी में तत्वों के 7 वर्ग ....परमाणु संरचना में अंतिम वाले ( ओर्विट ) में 7 एलेक्ट्रोन.....पृथ्वी के सात तल....अंतरिक्ष के सात परतें |  
---त्रिसप्त समिधाएँ ...= पृथ्वी, आकाश, अंतरिक्ष तीनों में ये सप्त स्थान रचनाएँ ऊर्जा देती हैं|
   ऋग्वेद १०/६१ के अनुसार समस्त संरचना का मूल नाभिक ऊर्जा ( न्यूक्लियर इनर्जी ) है ...
इयान मे नाभिरिह ये सधस्वयिमे  ये देवा अयामस्मि पूर्वः |
द्विजा अह प्रथमना ऋतस्येदं धेनुरदुज्जायमाना  || ---समस्त भौतुक व जीव प्राणी का
उत्पत्ति स्थल मेरा केद्र (मूल नाभिकीय ऊर्जा ) है | द्विज या प्रथम उत्पन्न सभी का यही सत्य
है | परमतत्व का मनः संकल्प ( मनु) तथा विविध रूप धारिणी शतरूपा ( ऊर्जा )का मूल , उनका नाभिक परमसत्ता है |
ऋग्वेद १०/७१ परमसत्ता द्वारा स्थापित सृजन की महान संरचना परिकल्पना को पूर्ण रूपेण व्याख्यायित करता है.....
ऋचां त्वां पोषमस्ति पुपुस्वांन्यायत्र्म तवो गायति श्क्वरीषु |
ब्रह्मा त्वो वदति जातविद्यां यज्ञस्य मात्रां विमिमीत उत्व: ||  ----वेदमंत्रों में आपके द्वारा यज्ञीय अनुष्ठान (सृष्टि संरचना मूल परिकल्पना ) में विधि विधान के प्रयोग सहित विराजमान है |जिनमें मूल सिद्धांतों की गठन क्रिया ( स्तोता)...क्रियात्मक ज्ञान व सिद्धांत ( श्क्वरीशु )...क्यों व कैसे वास्तविक कार्य करने की शैली ( ब्रह्मा ) एवं कार्यों का वास्तविक कृतित्व ( अध्वर्यु ) व्याख्यायित है |
            स्टीफन हाकिंस व अन्य वैज्ञानिक ईश्वर के मष्तिष्क को मानव का मष्तिष्क मानते हैं कि कोइ सुपरमेन है जो इस ग्रांड संरचना को बनाता व चलाता है तो क्या वही ईश्वर तत्व नहीं है | तो फिर स्टीफन जैसा महान व उच्च क्षमता वाला मष्तिष्क किस ने बनाया व वैसा ही सभी का क्यों नहीं होता | विज्ञान यह भी नहीं बता पाता कि बिगबेंग का वह पिंड प्रथमबार व हरबार कहाँ से आया व आता है | वस्तुतः यह पूर्वनिर्धारित पूर्व-परिकल्पित है | ऋग्वेद के अनुसार ...यही सृष्टि के प्रारम्भ में स्थापित व्यवस्था, स्वचालित बारम्बारिता के नियम से समस्त दृश्य-अदृश्य जगत में पृथ्वी व अंतरिक्ष में चलती रहती है अपने पूर्व-परिकल्पित नियमानुसार .....यथा...ऋग्वेद का मन्त्र...  “सूर्य चन्द्रमसौ धाता यथा पूर्वं कल्पयत |
                                   दिवं च पृथिवीं च अंतरिक्ष्यो स्व: ||
             इस अनवरत स्वचालित सृष्टि चक्र का वर्णन ऋग्वेद १०/२९ में दिया गया है...
अदथ्यां ग्रामं वह्मान्याराद्न्चक्रया स्वाध्या वर्तमानं |
सिषक्तचर्य : प्रश्रुयुमा जनानां सद्यः शिश्ना प्रभियानो नवीयान ||   ---- परमात्मा की जो यह स्वचालित जगत उत्पत्ति की प्रक्रिया अनादिकाल से निरंतर चल रही है, प्राणी समुदाय को वहन कर रही है वही जीवों के जोड़ों को उत्पन्न करती है व उन्हें मिलाती है |                                   
             यह मूल संरचना परिकल्पना है जिससे समस्त सृष्टि सृजन की प्रक्रिया संपन्न होती है जो अव्यक्त ब्रह्म का संकल्प एकोहं बहुस्याम -->---> व्यक्त ब्रह्म--> व्यक्त्ब शक्ति --> अशांत महाकाश (ईथर) में हलचल --> गति --->ऊर्जा --> वायु ,अग्नि, जल --> महतत्व--> सब-एटोमिक पार्टिकल--> एटम--> अणु--> त्रिआयामी कण --> पञ्च महाभूत-->तन्मात्राएँ -->इन्द्रियां--> विविध सृष्टि तक प्रथम बार एवं प्रत्येक बार स्वचालित रूप से होती रहती है | यही ईश्वरीय महान संरचना परिकल्पना की महत्ता व महानता है |
            अनेकों ब्रह्मांडों की संरचना परिकल्पना भी वर्णित है | यथा..ब्रह्म संहिता का श्लोक ३५ प्रस्तुत है...एको sप्यसौ रचवितुं जगदंड कोटिं, यच्छक्तिरास्ति जगादंडच्या यदन्तः |
            अंडान्तरस्थ परमाणु चयान्तरस्थं गोबिन्दमादि पुरुषं तमहं भजाम्यहं ||   ---- जो शक्ति व शक्तिमान से निर्भेद एक तत्व है, जिनके द्वारा करोड़ों ब्रह्मांडों की सृष्टि होने पर भी उनकी शक्ति उअनसे पृथक नहीं है, जिनमें सारे ब्रह्माण्ड स्थित हैं, जो साथ ही साथ ब्रह्मांडों के भीतर रहने वाले परमाणु-समूह के भीतर भी पूर्ण रूप से विद्यमान हैं उन आदि पुरुष गोविन्द का मैं भजन करता हूँ | ...तथा .“और असीम उस महाकाश में ,
                                हैं असंख्य ब्रह्माण्ड उपस्थित |
                                धारण करते हैं ये सब ही,
                               अपने अपने सूर्य चन्द्र सब |
                               अपने अपने ग्रह नक्षत्र सब ,
                               है स्वतंत्र सत्ता प्रत्येक की ||” .....सृष्टि-महाकाव्य से
           इस प्रकार अंततः ऋग्वेद 4/१/५९३ में ऋषि उद्घोष करता है ....
प्रन्यो जज्ञे विद्वानस्य बंधु: विश्वा देवानां जनिया विवक्ति |
ब्रह्म ब्रह्माना उभय्भार मध्यारतीये सच्चै: स्वधा अपिप्र तस्थो ||
---- जो इन दिव्य नियमों को जान लेता है, वह जानता है कि ब्रह्म से ब्रह्म ( ज्ञान, वेद व यज्ञ ) की उत्पत्ति होती है | उसके नीचे, मध्यवर्ती व उच्च स्थान से समस्त सृष्टि व प्राणियों को तृप्त करने वाली शक्तियों का उदय हुआ है |
                           




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लखनऊ, उत्तर प्रदेश, India
--एक चिकित्सक, शल्य-विशेषज्ञ जिसे धर्म, दर्शन, आस्था व सान्सारिक व्यवहारिक जीवन मूल्यों व मानवता को आधुनिक विज्ञान से तादाम्य करने में रुचि व आस्था है।