गीता का योग
श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को सुनाई जाने वाली गीता मूलतः महाभारत का अंश है जो ७०० श्लोक का है अत: इसे सप्तशती भी कहा जाता है| यह वही योग है, ईश्वर प्राप्ति का उपाय है, जिसके आदिवक्ता हिरण्यगर्भ हैं | जिसे सूर्य ने मनु को, मनु ने इक्ष्वाकु को सुनाया था | | स्वयं गीता में कहा है—
इमं वित्रिस्वते योगं प्रोक्तवान इमव्ययं|
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्वाकवेsब्रवीता ||
यही योग समस्त उपनिषदों के ज्ञान का समन्वय करके भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को कहा| अतः इसे समस्त शास्त्रों का अंश...सर्व वेदमयी गीता ...कहा गया |
“सर्वोपनिषद गावो दोग्धा गोपाल नन्दनं “
समस्त उपनिषद् गाय रूप हें जिन्हें श्रीकृष्ण ने दुह कर गीता रूपी अमृत विश्व को प्रदान किया | यही योग तत्पश्चात पतंजलि ने वर्णित किया है |
गीता में इस योग की दो परिभायें मिलती हैं ...
१.योगः कर्मसुकौशलं –अर्थात किसी कर्म को कुशलता से करना ही योग है | अथवा अध्यात्मिक भाव में कर्म को सुकौशल अर्थात सुकर्म करना ही योग है | मूल अर्थ एक ही है | इसमें कर्मयोग की महत्ता दर्शाई गयी है परन्तु सुकर्म समुचित ज्ञान व श्रृद्धा-भक्ति होने पर ही किया जा सकता है|
२.अन्य स्थान पर कहा गया है ‘समत्वं योग उच्यते’ अर्थात मूल रूप से समन्वय ही योग है, किसका समन्वय ---ज्ञान, भक्ति व क्रिया के त्रियोग का समन्वय | अर्थात मूल रूप से गीता का योग भक्तियोग, ज्ञान योग व कर्म योग का समन्वय है | यही योग है |
श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को सुनाई जाने वाली गीता मूलतः महाभारत का अंश है जो ७०० श्लोक का है अत: इसे सप्तशती भी कहा जाता है| यह वही योग है, ईश्वर प्राप्ति का उपाय है, जिसके आदिवक्ता हिरण्यगर्भ हैं | जिसे सूर्य ने मनु को, मनु ने इक्ष्वाकु को सुनाया था | | स्वयं गीता में कहा है—
इमं वित्रिस्वते योगं प्रोक्तवान इमव्ययं|
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्वाकवेsब्रवीता ||
यही योग समस्त उपनिषदों के ज्ञान का समन्वय करके भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को कहा| अतः इसे समस्त शास्त्रों का अंश...सर्व वेदमयी गीता ...कहा गया |
“सर्वोपनिषद गावो दोग्धा गोपाल नन्दनं “
समस्त उपनिषद् गाय रूप हें जिन्हें श्रीकृष्ण ने दुह कर गीता रूपी अमृत विश्व को प्रदान किया | यही योग तत्पश्चात पतंजलि ने वर्णित किया है |
गीता में इस योग की दो परिभायें मिलती हैं ...
१.योगः कर्मसुकौशलं –अर्थात किसी कर्म को कुशलता से करना ही योग है | अथवा अध्यात्मिक भाव में कर्म को सुकौशल अर्थात सुकर्म करना ही योग है | मूल अर्थ एक ही है | इसमें कर्मयोग की महत्ता दर्शाई गयी है परन्तु सुकर्म समुचित ज्ञान व श्रृद्धा-भक्ति होने पर ही किया जा सकता है|
२.अन्य स्थान पर कहा गया है ‘समत्वं योग उच्यते’ अर्थात मूल रूप से समन्वय ही योग है, किसका समन्वय ---ज्ञान, भक्ति व क्रिया के त्रियोग का समन्वय | अर्थात मूल रूप से गीता का योग भक्तियोग, ज्ञान योग व कर्म योग का समन्वय है | यही योग है |