शनिवार, 30 जुलाई 2011

स्त्री-विमर्श गाथा-भाग-५...पुरुष अधिकारत्व समाज....ड़ा श्याम गुप्त....

             ------ पुरुष  सत्तात्मक समाज में भी नारी की स्थिति कोई दासी की नहीं रही , अपितु सलाहकार की आदरणीय स्थिति थी | देखाजाय तो हम प्रारंभ से ही मूलतः समाज व्यवस्था की तीन धाराएं दिखाई पडती हैं----आदम को फल देने वाली व भटकाकर स्वर्ग से च्युत कराने वाली घटना पाश्चात्य देशों व अरब देशों में है जबकि भारत में यह घटना मनु , इडा व श्रृद्धा की आदरणीय  भाव की कथा है | अतः मूलतः पाश्चात्य समाज में नारी को अपराधी, शैतान की कृति आदि माना जाता रहा वहीं भारत में वह सदा  आदरणीय  रही | इस प्रकार 
----प्रथम धारा --जिसमें योरोप, अमेरिका, द अमेरिका, चीन, अफ्रीका, मध्य एशिया आदि भाग थे ...जिनमें मूलतः स्त्री सतात्त्मक समाज होने पर भी, अडम्स व ईव-की कथा के कारण -स्त्री को गर्हित समझा जाता रहा व युद्धों में उन्हें लूट, उपयोग व उपभोग की सामग्री व वलात्कार व अत्याचार के योग्य समझा जाता रहा |
----द्वितीय धारा----जिसमें मूलतः अरब भूमिखंड , उत्तरी अफ्रीकी  देश आदि थे , जिनमें मूलतः पुरुष सत्तात्मक समाज होने पर भी आदम व हव्वा --कथा के कारण ..स्त्री को उपभोग, लूट व वलात्कार की सामग्री समझा जाता रहा और   अत्याचारों का सिलसिला रहा |
---तृतीय धारा.....जो सिर्फ भारतीय उप महादीपीय भूखंड में रही....जहां आदि कथा आदम -हब्बा की न होकर मनु-इडा-श्रृद्धा की है ...जो अनुशासन, विद्वता व श्रृद्धा भावना की प्रतीक हैं.....अतः भारत में पुरुष प्रधान  समाज होने पर भी  सदैव से ही  नारी विद्वता, कला की प्रतीक व आदर का पात्र  रही |  भारत में भी द.भारत  में स्त्री- सत्तात्मक व्यवस्था -स्त्री  व्यवस्थात्मक  परिवार में परिवर्तित  होकर आज भी चल रही है वहीं अधिक उन्नत होने पर  उत्तर भारत में पुरुष परिवार नियामक व्यवस्था बनी ---परन्तु दोनों व्यवस्थाओं में ही स्त्री आदर का पात्र रही | उसे कभी भी पाश्चात्य देशों की भाँति शैतान की कृति नहीं समझा गया......यह इस बात का द्योतक है की मनुष्य अपनी प्राचीन व्यवस्थाओं के साथ उत्तर भारत से पहले समस्त उत्तर, पश्चिम व पूर्व की दुनिया में फैला एवं आगे प्रगति से दूर रहने के कारण पुरा-युग में रहा  (इसी  प्रकार  दक्षिण भारत में ) परन्तु अपने मूल स्थान  उत्तर भारतीय भूखंड में नए नए उन्नत  व्यवस्थाओं की स्थापना करता रहा....  | इसीलिये आज भी भौतिकता व उससे सम्बंधित भोग पूर्ण उन्नति पाश्चात्य व्यवस्था का भाव रहा जबकि धर्म, अध्यात्म, मानवता  के  भाव के साथ साथ उन्नति भारतीय भूभाग का मूल चरित्र रहा |
               ------- यूं तो पुरुष सत्तात्मक समाज में मानव सर्वाधिक उन्नति की और अग्रसर हुआ|  परन्तु फिर भी  प्रारम्भ से ही ईश्वर सत्ता को चुनौती  के साथ साथ, आसुरी  भाव व देवीय भावों के द्वंद्व प्रारम्भ होने से अनाचार , अत्याचार , द्वंद्व आदि प्रारम्भ होगये थे | परन्तु नारी मूलतः स्वतंत्र व आदरणीय थी |   हाँ स्त्रियों द्वारा प्रेम भक्ति के कारण  स्वयं की ओढी हुई --त्याग, श्रृद्धा, भक्ति, पति पारायणता की सतीत्व भाव ( यह सामंती- युग की सती प्रथा नहीं थी ) की नींव पड़ने लगी थी |  साथ ही साथ आसुरी-भाव समाज में स्त्री स्वच्छंदता भी चलती रही |  राम की शबरी, अहल्या प्रसंग  व कृष्ण-राधा का प्रेम प्रसंग और कुब्जा प्रसंग इस के उदारहरण माने जा सकते हैं | स्वयंवर आदि प्रथाएं भी इसी  का प्रतीक हैं |  यद्यपि.राजनैतिक कारणों से या प्रेम -प्रसंगों के कारण स्वयंबर प्रथा व आठ प्रकार के विवाह अस्तित्व में आये परन्तु  स्त्रियों  के अधिकार सीमित होने प्रारम्भ होगये थे....स्त्रियों के सदैव पिता, पति व पुत्र की सुरक्षा में रहने के उपक्रम भी उपस्थित हुए| शर्तों पर स्वयंवर-----सीताके लिए धनुष-यज्ञ  , द्रौपदी के लिए मछली की आँख भेदन आदि  शर्तें मूलतः स्त्री की स्वायत्तता पर अंकुश का ही प्रतीक हैं |



          वहीं  दूसरी ओर  स्त्री -पुरुष स्वच्छंदता के अनुचित परिणाम आने लगे...तो नैतिकता के प्रश्न उठे एवं स्त्री-पुरुष दोनों के लिए ही नैतिकता , शुचिता के नियम बने |  धर्म, अध्यात्म , योग, ब्रह्मचर्य आदि भाव पुरुषों के लिए बने, ताकि स्त्रियों की अमर्यादा भाव व यौवन-काम की उद्दाम भावनाओं को पुरुष- निर्लिप्तता द्वारा  भी  मर्यादित किया जा सके..... गंगा अवतरण  व शिव का उसे अपनी जटाओं में बाँध लेना सिर्फ नदी कथा नहीं अपितु नारी के उद्दाम वेग को योग द्वारा नियंत्रण  की कथा भी है.... क्योंकि अनुभव में स्त्रियाँ अधिक हानि उठाने वाली स्थिति में होती थीं अतः मर्यादा, आचरण, शुचिता के बंधन   अधिक कठोर होने लगे  कुलीन, शिक्षित व सदाचारी स्त्रियों ने स्वयं ही त्याग, भक्ति, सतीत्व आदि के उदात्त भाव स्वीकार किये व राजनैतिक और परिस्थितियों वश वे पुरुष की परमुखापेक्षी व बंधन में होती गयीं, और समाज पूर्ण रूप से पुरुष अधिकारत्व समाज में परिवर्तित  होता गया. |


             फिर भी भारत में  स्त्रियों की अवस्था दासी की भांति नहीं थी ,  यह सीता व राधाके चरित्र से समझा जा सकता है की उनमें विरोध के स्वर तो हैं असामाजिकता के तत्व नहीं अपितु स्वयं ओढी हुई प्रेम-दास्य भावना  है , जबकि विश्व के अन्य सभी समाजों में  स्त्रियों को मानवी मानने में भी शक था, उन्हें शैतान की कृति, पापी समझा जाता था एवं हर प्रकार से तिरस्कार व अत्याचार के योग्य |  मिश्र, बेबीलोन आदि की संस्कृतियाँ व  नेफ्रेतीती आदि की कथाओं के प्रसंगों, से यह समझा जा सकता है  |      

                      ---चित्र साभार.... 
               

मंगलवार, 26 जुलाई 2011

स्त्री-विमर्श गाथा -भाग ४--पुरुष-सत्तात्मक समाज....

स्त्री-विमर्श गाथा -----भाग -४...




चित्र-1 - मातृसत्ता -शायद पुरुष (शिव-पशुपति) स्त्री सत्ता ( देवी या पार्वती )की अर्चना करते हुए..........................................>------&


-------इस प्रकार स्त्री ने संतति हित व अपनी अन्य मूल प्रकृतिगत विशेषताओं के कारण घर पर रहना स्वीकार किया और सारी व्यवस्था-प्रबंधन व अन्तः सुरक्षा भार नारी पर व आर्थिक भरण-पोषण, वाह्य प्रबंधन , शत्रु से सुरक्षा व युद्ध आदि का मूल दायित्व पुरुष पर रहा , और स्त्री -प्रबंधन समाज की स्थापना हुई | यद्यपि आवश्यकता पड़ने पर व आवश्यक मसलों प शत्रु से युद्ध, युद्ध प्रवंधन, सुरक्षा व परामर्श व भरण-पोषण के लिए आवश्यक कार्यों में स्त्री , पुरुषों का साथ देती थी | वस्तुतः यह समन्वयात्मक -प्रवंधन समाज व्यवस्था थी व सह जीवन ही था| | यही व्यवस्था आगे चलकर बनी मातृसत्तात्मक परिवार व पितृ सत्तात्मक परिवार का प्रतीक थी |
चित्र-........महाकाली रूप ------------------------------------------------>

-------ज्ञान - विज्ञान की उन्नति हुई , स्त्री-पुरुष द्वंद्व बढे, जनसंख्या के दबाव , बल व मस्तिष्क के उपयोग , युद्धों ,आर्थिक व सामाजिक दबाव व द्वंद्व व युगों की संतति-मोह, प्रेम व गर्भावस्था में अक्रियता के कारण पुरुष नारी का सुरक्षा-भाव बनने लगा |मानव स्थिर होने लगा, कबीले, वर्ग, कुटुंब, बनने लगे | युगों के जीवन प्रभाव वश नारी में मूलतः ..सौम्यता,प्रेम, त्याग, लज्जा, कला, संस्कृति के उपयोग रक्षण के भाव मूल भाव उत्पन्न होने लगे व पुरुष में...कठोरता , बल, शौर्य,वीरता, विद्वता, ज्ञान, नेतृत्त्व क्षमता आदि के भाव...जो युगानुकूल आवश्यकता भी थी | इस प्रकार बल को पौरुष व सौम्यता , संकोच , लज्जा को नारीत्व का पर्याय माना जाने लगा |
--- चित्र-३- लिंग -योनि पूजा ( हरप्पा)--- व आदि-शिव, पशुपति समाधिस्थ-------------------------- ------------------------>>
इस कारण जहां परिवाद बाद की स्थापना व बाद में काल-क्रमानुसार -विवाह संस्था के साथ देव-देवी युग्म उनकी पूजा -अर्चना का आविर्भाव हुआ वहीं नेतृत्त्व - क्षमता के कारण -पुरुष में प्रधान ,मुखिया ..राजा , देवता व किसी सर्व-शक्तिमान सत्ता की कल्पना का आविर्भाव हुआ और आदि-मातृका के स्थान पर पुरुष- ईश्वर, ब्रह्म की की कल्पना अस्तित्व में आई, साथ ही साथ माया,प्रकृति आदि नारी भाव ईश्वर-रूपों की कल्पना भी हुई, जो मूल रूप में समन्वयात्मक समाज के ही चिन्ह हैं | | बीला-मुखिया ,राजा में -देवता व ईश्वर के भाव की स्थापना हुई | शायद इसी समय सर्व-प्रथम अर्धनारीश्वर भाव ..लिंग-योनि पूजा , अस्तित्व में आई, जो बाद में पार्वती-शिव एवं पशुपति , देवाधिदेव महादेव शिव अदि-देव व ईश्वर बने, व अन्य विष्णु, ब्रह्मा आदि विभिन्न देवों की -देवियों की कल्पना हुई , पहले प्रकृति के विभिन्न उपादानों के रूप में तत्पश्चात उनके मानवीकरण के रूप में | इस प्रकार पूर्ण-रूपेण पुरुष-सत्तात्मक समाज की स्थापना हुई | परन्तु यह केवल एक प्रकार का श्रम-विभाजन ही था , व्यवहार में यह भी एक समन्वयात्मक- समाज ही था, जिसका प्रमाण प्रत्येक देव के साथ एक देवी की कल्पना व ईश्वर के साथ माया , प्रकृति आदि की कल्पना से मिलता है |

-------नारी इस व्यवस्था में भी आधीन नहीं थी, आदरणीय सलाहकार के रूप में पूज्य थी , स्त्री के बिना यज्ञ पूर्ण नहीं हो सकती थी | कोई भी अनुष्ठान...धार्मिक, राजनैतिक , सामाजिक ---स्त्री परामर्श व उपस्थिति के बिना नहीं हो सकता था.... शायद मानव इतिहास के इसी काल-क्रम में विभिन्न ज्ञान, विज्ञान, धर्म, दर्शन, व कला , अभियांत्रिकी, मानवता,व्यवहार, स्त्री-शिक्षा आदि की सर्वाधिक उन्नति हुई व मानव उन्नति के नए नए द्वार खुले " यस्तु नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता " के मूल मन्त्रों की स्थापना इसी समय होने लगी थी | ऋग्वेद १०/१५/१०४२०/२ में ऋषिका शची पोलोमी का कथन है ..."अहं केतुरहं मूर्धामुग्रा विवाचानी | ममेदनु क्रत पति: सेहनाया उपाचरेत ||.......अर्थात मैं ध्वज स्वरुप ( परिवार की गृह स्वामिनी ) तीब्र बुद्धिवाली व प्रत्येक विवेचना में समर्थ हूँ | मेरे पतिदेव सदैव मेरे कार्यों का अनुमोदन करते हैं |तथा "अहं बदामि नेत त्वं, सभामा त्वं वद : |मेयेदस्तम्ब केवलो नान्यासि कीर्तियाश्चन ||" अर्थात ..हे स्वामी ! सभा में भले ही आप बोलें परन्तु घर पर मैं ही बोलूंगी | उसे सुनकर आप अनुमोदन करें |..... विवाह संस्था कोई कठोर व बंधन नहीं थी, स्त्रियाँ अपने क्रिया-कलापों में स्वतंत्र थी एवं इच्छा से किसी भी पुरुष अथवा जीवन साथी चुनने को स्वतंत्र थीं |

-----------वास्तव में ये दोनों ही व्यवस्थाएं स्थान, काल, देश के अनुसार युगों युगों तक साथ साथ ही चलती रहीं |आदि- मानव के उन्नत होकर मानव बनने , घुमंतू से स्थिर होने , कबीले, वर्ग, ग्राम व्यवस्था व श्रम विभाजन की विभिन्न कोटियों के उत्पन्न होने तक, जिनके मूल प्रभाव का पता अभी तक उपस्थित मातृसत्तात्मक -परिवार( यथा .भारत ) व पितृसत्तात्मक परिवारों(यथा उत्तर भारत ) की उपस्थिति से पता चलता है | मूलतः पृथ्वी के भूखंडों के बनते -बिगड़ते रहने से , नए-नए देशों व आश्रय -स्थलों के परिवर्तन होते रहने से , जन संख्या के निरंतर दवाब के कारण मानव कुल , समूह, वर्ग लगातार अन्य स्थलों को पलायन करते रहे | उत्तर भारतीय भूखंड, जीवन के लिए सर्वाधिक उपयुक्त होने से यहाँ मानव की उत्पत्ति हुई एवं यहाँ से विश्व के अन्य उत्तरी, पश्चिमी, पूर्वी भागों की ओर पलायन के साथ अपने समयानुकूल समाज-व्यवस्था को भी साथ लेजाते रहे | मूल स्थान उत्तर भारत में जन संख्या व ज्ञान के प्रसार के साथ नयी व्यवस्थाएं आती रहीं | इसी प्रकार दक्षिण भारतीय भूखंड के सम्मिलित होने पर हिमालय आदि श्रृंखलाएं बनी व मानव ने विन्ध्य श्रृंखला पार करके दक्षिण की ओर पलायन किया अपने तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के साथ | इसीलिये हम देखते हैं कि उत्तर-भारत, अरब देशों , अफ्रीकी देशों आदि में पुरुष प्रधान व्यवस्था उत्पन्न होती गयी जबकि दक्षिण भारत, पूर्वी भारत, योरोप, चीन, अमेरिका , लेटिन अमेरिका आदि देशों में स्त्री सत्ता अधिक प्रभावी रही व आज भी परिलक्षित है | यद्यपि धीरे धीरे यह पुरुष प्रवंधित समाज में बदलती गयी |

----सभी चित्र ..साभार ...

शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

स्त्री -पुरुष विमर्श गाथा --भाग ३ --स्त्री सत्तात्मक समाज ....

चित्र-१..मातृ-देवी ---चित्र-२-मातृ-देवी व पुजारी -चित्र-३--मातृ-देवी द्वारा पशु से युद्ध-









चित्र४- -- स्त्री सत्ता की स्वच्छान्द्चारिता












इस प्रकार मानव द्वारा सहजीवन
अपनाने के पश्चात अपनी प्रकृतिगत कार्य दक्षता, कार्य-लगन ,तीक्ष्ण-बुद्धि, दूरदर्शिता व प्रत्युत्पन्नमति एवं संतान के प्रति स्वाभाविक अधिक लगाव के कारण स्त्री ने स्वयं ही श्रम विभाजन की आवश्यकतानुसार संतान-परिवार-समूह- कबीला -के साथ गुफा, बृक्ष-आवास या एक स्थान पर स्थित आवास पर( घर पर ) ही रहकर ही समस्त आतंरिक व वाह्य प्रबंधन व्यवस्था स्वीकार की | इस प्रकार स्त्री-प्रवंधन समाज का गठन हुआ | समाज मूलतः खाद्य-वस्तु एकत्रक (फ़ूड-गेदरर) था | बाहर जाकर अन्न, फल, या शिकार एकत्र करना पुरुष का व उसका प्रबंधन, वितरण, संरक्षण व समस्त आतंरिक प्रबंधन स्त्री का कार्य हुआ| स्त्री-पुरुष सम्बन्ध स्वच्छंद थे | मूलतः समाज "लिव इन रिलेशन शिप " के रूप में था | स्त्रियाँ व पुरुष स्वच्छंद थे व अपनी इच्छानुसार किसी भी एक या अधिक पुरुष-स्त्री के साथ सम्बन्ध रख सकते थे |
ज्ञान बढ़ा, मानव गुफाओं से झोपडियों में आया | घुमंतू से स्थिर हुआ | वह प्रकृति के अंगों ...सूर्य, चन्द्र, वर्षा आदि की आश्चर्य , भय ,व श्रृद्धा वश आराधना तो करता था परन्तु ईश्वर का कोई स्थान न था न पुरुष देवताओं का | स्त्री सत्ता अधिक दृढ हुई और स्त्री प्रबंधन से स्त्री-सत्तात्मक समाज की स्थापना हुई |सभी पुरुष पूर्णतया स्त्री-सत्ता के अधीन होकर ही कार्य करते थे |पुरुष धीरे धीरे सिर्फ आज्ञापालक की भांति होता गया | संतान आदि .माताओं के सन्दर्भ से ही जाने व माने जाते थे ..., वन-देवी , आदि-माता, माँ , मातृका , सप्तमातृका , प्रकृति-देवी के साथ, वन देवी आदि विभिन्न देवियों की पूजा स्त्री सत्तात्मक समाज की ही देन है | उस काल में किसी पुरुष देवता की पूजा या मूर्ति -लिंग का उल्लेख नहीं मिलता | सबसे प्राचीन मूर्तियां पुरुष देवताओं की न होकर , देवी के थान ( स्थान-सिर्फ चबूतरा बिना किसी मूर्ति के ) व मातृका , सप्तमातृका की ही मूर्तियां हैं |
इस प्रकार स्त्रियाँ शासक व पुरुष प्राय: सैनिक की भांति -सुरक्षा व कार्मिक व सलाहकार - हेतु उपयोग होने लगे...स्वच्छंदता व सामूहिकता के दुष्परिणाम आने लगे , स्त्रियाँ अत्यंत स्वच्छंद व स्वेच्छाचारी होने लगीं तो पुरुष द्वारा भी बल प्रयोग की घटनाएँ होने लगीं | दोनों के आचरण से द्वंद्व बढ़ने लगे| धीरे धीरे शक्ति सलाहकार-सैनिक-सेनापति के रूप में पुरुष के हाथ में आती गयी | गर्भावस्था के दौरान अक्रिय रहने व संतति -पालन के दौरान शक्तिहीन होने के कारण पुरुष स्त्री का सुरक्षा -भाव बनने लगा | शारीरिक शक्ति व बल का बर्चस्व बढ़ा और समाज का प्रबंधन पुरुष के हाथ में चलागया| इस प्रकार पुरुष प्रवंधित समाज की स्थापना हुई |

सोमवार, 4 जुलाई 2011

स्त्री-पुरुष विमर्श गाथा...भाग दो ..सहजीवन.व श्रम विभाजन ...डा श्याम गुप्त...

-------वह आकृति अपनी गुफा में से अपने फल आदि उठाकर आगंतुक की गुफा में साथ रहने चली आई | यह मैत्री भाव था, साहचर्य --निश्चय ही संरक्षण-सुरक्षा भाव था..पर अधीनता नहीं ....बिना अनिवार्यता..बिना किसी बंधन के.....| इस प्रकार प्रथम बार मानव जीवन में सहजीवन की नींव पडी | साथ साथ रहना...फल जुटाना ..कार्य करना..स्वरक्षण...स्वजीवन रक्षा...अन्य प्राणियों की भांति | चाहे कोई भी फल या खाना जुटाए...एक बाहर जाए या दोनों ...पर मिल बाँट कर खाना व रहने की निश्चि प्रक्रिया -सहजीविता - ने जीवन की कुछ चिंताओं को -खतरे की आशंका व खाना जुटाने की चिंता -अवश्य ही कुछ कम किया | और सिर्फ खाना जुटाने की अपेक्षा कुछ और देखने समझने जानने का समय मिलने लगा |
--------फिर एक दिन उन्होंने ज्ञान का फल चखा ....स्त्री-पुरुष का भेद जाना ... वे पत्तियों से अपना शरीर ढंकने लगे, बृक्षों पर आवास बनने की प्रक्रिया हुई, अन्य अपने जैसे मानवों की खोज व सहजीवन के बढ़ने से अन्य साथियों का साहचर्य..सहजीवन..के कारण .. सामूहिकता का विकास हुआ...नारी स्वच्छंद थी....स्त्री-पुरुष सम्बन्ध बंधन हीन उन्मुक्त थे | एक प्रकार से आजकल के 'लिव इन रिलेशन' की भांति | स्त्री-पुरुष सम्बन्ध विकास से संतति मानव समाज के विकास के साथ ही संतति सुरक्षा का प्रश्न खड़े हुए, जो मानवता का सबसे बड़ा मूल प्रश्न बना, क्योंकि प्रायः नर-नारी दोनों ही भोजन की खोज में दूर दूर चले जाते थे व बच्चे जानवरों के बच्चों के भांति पीछे असुरक्षित होजाते थे ...| समाज बढ़ने से द्वंद्व भी बढ़ने लगे | अतः शत्रु से संतति रक्षा के लिए किसी को आवास स्थान पर रहना आवश्यक समझा जाने लगा, इसप्रकार प्रथम बार कार्य विभाजन, श्रम विभाजन (Division of labour) की आवश्यकता पडी |
--------क्योंकि नारी शारीरिक रूप से चपल, स्फूर्त, प्रत्युत्पन्न मति, तात्कालिक उपायों में पुरुष से अधिक सक्षम, तीक्ष्ण बुद्धि वाली , दूरदर्शी होने के साथ साथ , संतति की विभिन्न आवश्यकताओं व प्रेम भावना की पूर्ति हित सक्षम होने के कारण --उसने स्वेक्षा से निवास-स्थान पर असहाय संतान के साथ रहना स्वीकार किया , और स्त्री प्रबंधन समाज की स्थापना हुई | जो बाद में स्त्री -सत्तात्मक समाज भी कहलाया |
----------------क्रमश : भाग तीन..स्त्री-सत्तात्मक समाज.....

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लखनऊ, उत्तर प्रदेश, India
--एक चिकित्सक, शल्य-विशेषज्ञ जिसे धर्म, दर्शन, आस्था व सान्सारिक व्यवहारिक जीवन मूल्यों व मानवता को आधुनिक विज्ञान से तादाम्य करने में रुचि व आस्था है।