शनिवार, 20 मार्च 2010

जीवन , जीव व मानव ---भाग -२.----डा श्याम गुप्त का आलेख

मानव - भाग २

प्रस्तुत प्रलेख के पिछले अंक भाग १. में हमने शीर्षक विषय पर आधुनिक वैज्ञानिक मत प्रस्तुत किया था। इस भाग में हम उपर्युक्त विषय पर वैदिक व भारतीय दर्शन सम्मत मत प्रस्तुत करेंगे।

वैदिक साहित्य के अनुसार सृष्टि का निर्माण ब्रह्मा द्वारा किया गया। ऋग्वेद ४/५८ का कथन है - 'उद् ब्रह्मा शृंणवत्पश्यमानं चतु: श्रंगो वसादिगौर एतत।' -- अर्थात हमारे द्वारा गाये गए स्तवन ब्रह्मा जी श्रवण करें जिन चार (वेद रूपी) श्रंगों वाले गौरवर्णी देव ने इस जगत को बनाया।

१. मूल सृष्टि क्रम--ब्रह्मा द्वारा सृष्टि का मूल संक्षिप्त क्रम चार चरणों में बनाया गया। प्रथम जड़ सृष्टि जिसे सावत्री परिकर कहते हैं व द्वितीय, तृतीय व चतुर्थ मनस्तत्व या चेतन सृष्टि, जिसे गायत्री परिकर कहा गया। जिसमें भू:, ऊर्जा तत्त्व व भुवः, मनस्तत्व, संकल्प भाव तत्त्व है। ये तीन चेतन हैं - (१.) द्वितीय: देव, जो सदा देने वाले हैं परमार्थ भाव युक्त -- देव, (वरुण, पृथ्वी, अग्नि, पवन आदि ) एवं बृक्ष (वनस्पति जगत )। (२) तृतीय: मानव - आत्म बोध युक्त, ज्ञान कर्म पुरुषार्थ मय; पृथ्वी का सर्वश्रेष्ठ तत्त्व। (३) चतुर्थ: प्राणि जगत - प्रकृति के अनुसार सुविधा भाव से जीने वाले, मानव, वनस्पति व भौतिक जगत के मध्य संतुलन रखने वाले।

वस्तुत विज्ञान के अनुसार पहले पदार्थ होता है पुनः उसमे किसी तरह जीवन उद्भूत होता है। चेतन तत्व, भाव तत्त्व व रूप तत्वों की अवधारणा विज्ञान में नहीं है जबकि वैदिक विज्ञान में उससे आगे जाकर, चेतन तत्व की सदैव उपस्थिति की बात कही गयी है; ब्रह्मा द्वारा भाव तत्व, रूप तत्वों की सृष्टि के बाद जीव जगत बनाया जाता है एवं चेतन तत्व, मूल आदि ऊर्जा व भाव व रूप सृष्टि प्रवेश करके जीव का रूप देतीं हैं, जो वनस्पति, प्राणी व मानव सभी मेंप्रवेश करती है।

यह व्यवस्था (भूयग्य) पुनः -पुनः क्रमिक चक्रीय क्रम में होती रहती है। यह भारतीय विज्ञान व दर्शन का विशिष्ट विचार है। ऋग्वेद १०/७२/४ -में कहा गया है --'भूर्जग्यो उत्तानापदो भुव आशा अजायन्त। अदिर्तेदक्षो अजायत दक्षाद्वादिती परि:।।' -- भू (आदि प्रवाह) से ऊर्ध्व गतिशील (मूल आदि कणों) की रचना हुई। भुव: (होने की) आशा (संकल्प शक्ति -चेतन) का विकास हुआ। अदिति (मूल अखंड आदिशक्ति) से दक्ष (सृजन के कुशलता युक्त प्रवाह) उत्पन्न हुए; दक्ष से पुनः अदिति (अखंड प्रकृति, पृथ्वी, जग) उत्पन्न हुआ।

२. भाव सृष्टि की उत्पत्ति -- जैसा पहले ही बताया जा चुका है कि भुव: - चेतन तत्व -- शंभु व माया (आदि ऊर्जा तत्व) के संयोग से महत्तत्व (आदि व्यक्त तत्व) बनता है और उससे अहं (जो वस्तुतः आदि सृष्टि भाव तत्त्व है)। अहं के मूल तीन गुणों से ही सारे भाव तत्व उत्पन्न हुए। अतः सत् , तम् , रज ये तीन गुण ही प्रत्येक वस्तु, भाव व क्रिया के गुण होते हैं। इस प्रकार:

अहं के तामस भाव से -शब्द, आकाश, धारणा, ध्यान, विचार , स्वार्थ, लोभ, भय ,सुख, दुःख आदि बनाए गए।
अहं के राजस भाव से -५ ज्ञानेन्द्रियाँ - कान, नाक, नेत्र, जिव्हा, त्वचा आदि। ५ कर्मेन्द्रियाँ - वाणी, हाथ, पैर, गुदा, उपस्थ व तैजस (वस्तु का रसना भाव) जिससे जल के संयोग से गंध, सुगंध बने।
अहं के सत् भाव से - मन (११ वीं इन्द्रिय), ५ तन्मात्राएँ (ज्ञानेन्द्रियों के भाव - शब्द, रूप, स्पर्श, गंध, रस) एवं १० इन्द्रियों के अधिष्ठाता देव।

३. रूप सृष्टि की संरचना -- जीव व शरीर से पहले ही भाव सृष्टि की तरह रूप सृष्टि होती है। पुनः शरीर उत्पन्न पर वे सब उसमें प्रवेश करते हैं, यह भी वैदिक ज्ञान का विशिष्ट पहलू है। ब्रह्मा के स्वयं के विविध भाव, रूप, गुण, शरीर व शरीर त्याग से क्रमिक रूप में अन्य विविध सृष्टि रचना हुई। (इसे विज्ञान की भाषा में कह सकते हैं कि ब्रह्मा के ज्ञान, मन व संकल्प शक्ति के अनुसार क्रमिक विकास होता गया।

तमोगुणी: सोते समय सृष्टि- जो तिर्यक- अज्ञानी, भोगी, इच्छा-वशी, क्रोधी, विवेक शून्य, भ्रष्ट-आचरण वाले-पशु-पक्षी-पुरुषार्थ के अयोग्य।
सत्व गुणी: देव, ग्यान वान,विषय प्रेमी, दिव्य-परन्तु पुरुषार्थ के अयोग्य।
रज़ो गुणी: तप साधना भाव में - मानव की रचना - जो अति विकसित प्राणी था, साधनाशील, क्रियाशील, तीनों गुणों से युक्त-सत, तम, रज़-कर्म व लक्ष्योन्मुख, सुख-दुख रूप, द्वन्द्व युक्त, श्रेय-प्रेय के योग्य, ब्रह्म का सबसे उत्तम साधक। मानव की कोटियों में ब्रह्मा के तम भाव देह से - आसुरी प्रवृत्ति, जानु से-वैश्य भाव, चरण से शूद्र भाव, उस देह के त्याग से-रात्रि व अग्यान भाव। सत्व भाव देह से -- मुख से ब्राह्मण भाव, पार्श्व से पित्र गण व सन्ध्या भाव, इस देह के त्याग से -दिन व उज्जवल ज्ञान के भाव। रज़ो भाव देह से - काया से - काम व क्षुधा भाव, वक्ष से - क्षत्रिय व क्षात्र भाव, शौर्य, इस देह के त्याग से - उषा व उषा भाव।

अन्य विशिष्ट कोटियां--ब्रह्मा के प्रसन्न भाव - गायन - वादन में - गन्धर्व, अन्धेरे में-राक्षस, यक्ष आदि भूखी सृष्टि, क्रोध में क्रोधी व मान्साहारी, पिशाच आदि बने। पांच मुखों (ग्यान) से--चार वेद--रिक, यजु, साम, अथर्व; गायत्री, ब्रहत्साम, जगती छंद, वैराग्य व पन्चम मुख से आयुर्वेद तत्पश्चात---ब्रह्मचर्य, ग्रह्स्थ, बानप्रस्थ, सन्यास चार आश्रम; कर्म विमुख लोगों के लिये - नर्क आदि का दन्ड विधान। यह ब्रह्मा का क्रमिक विकास - विधान है, मानव का ज्ञान - अज्ञान आदि से जैसा भाव होता गया वैसा ही प्राणी भाव बनता गया। (शायद गुण सूत्र, क्रोमोसोम, हेरीडिटी, स्वभाव का क्रमिक विकास)।

४. जीवन--विज्ञान के अनुसार जीवन बाहर से आया व विकसित हुआ, के विपरीत वेदिक मत के अनुसार-चेतन ब्रह्म सदैव ही उपस्थित रहता है - अव्यक्त -- भुव: रूप में व्यक्त होकर माया से सम्प्रक्त होकर ब्रह्मा द्वारा बनाये शरीर में भाव व रूप सृष्टि के अनुसार प्रविष्ठ होकर जीवन की उत्पति करता, व जीव बनता है।

५. जीव, जीवन वर्धन, सन्तति वर्धन, लिन्ग चयन, स्वचालित मैथुन प्रक्रिया -- ब्रह्मा ने समस्त, देव, असुर, वनस्पति, प्राणियों के साथ ही मानव का भी निर्माण किया। जो सृष्टि की सर्वोत्तम कृति थी। चारों पुरुषार्थ -धर्म,अर्थ, काम, मोक्ष के योग्य था। यह क्रम इस प्रकार था---मानस सृष्टि, संकल्प सृष्टि, काम संकल्प सृष्टि व मैथुनी सृष्टि।

१. सर्वप्रथम ब्रह्मा ने -सनक, सनन्दन,सनातन, सनत्कुमार--चार मानस पुत्र बनाये, जो तुरन्त योग साधना हेतु रम गये । वे वेद के साक्षात अवतार थे औगायत्री का अवगाहन करने लगे।
२. पुन: संकल्प से नारद, भ्रिगु,कर्म,प्रचेतस,,पुलह,अन्गिरस, क्रतु, पुलस्त्य, अत्रि, मरीचि--१० प्रज़ापति बनाये।
३. पुन: संकल्प द्वारा ही ९ पुत्र--भ्रिगु, मरीचि, पुलस्त्य, अन्गिरा, क्रतु, अत्रि, वशिष्ठ, दक्ष, पुलह एवम ९ पुत्रियां-ख्याति, सम्भूति, भूति, प्रीति, क्षमा, प्रसूति, आकूति ...आदि उत्पन्न कीं; यद्यपि ये सभी लोग संकल्प द्वारा संतति प्रव्रत्त थे परन्तु कोई निश्चित सतत:, स्वचालित प्रक्रिया व क्रम नहीं था। सभी एकान्गी थे (प्राणी व वनस्पति भी;) अत: ब्रह्मा का सृष्टि क्रम समाप्त नहीं हो पा रहा था।

ब्रह्मा ने पुन: प्रभु (आदि ब्रह्म) व सरस्वती (आदि ग्यान शक्ति) -- का स्मरण किया। तब रुद्र देव, जो शम्भु महेश्वर व आदि माया का सम्मिलित रूप था; अर्धनारीश्वर (द्विलिन्गी ) रूप में प्रकट हुए। रुद्रदेव ने स्वंय को -- क्रूर-सौम्या, शान्त-अशान्त, श्यामा-गौरी, शीला-अशीला आदि ११ नारी भाव, व ११ पुरुष भावों मेंविभक्त किया । ये सभी ११--११ स्त्री-पुरुष भाव सभी जीवों-वनस्पति, प्राणी, मानव, - में समाहित हो गये। (लिंग चयन) इस प्रकार काम- सृष्टि का प्रादुर्भाव हुआ। जो आगे स्वचालित सतत: सृष्टि का उपक्रम बना।

६. जीव सृष्टि -- ब्रह्मा ने अपने दायें भाग से -- मनु व बायें भाग से शतरूपा को प्रकट किया, जिनमें रुद्रदेव के ११-११ नर-नारी भाव समाहित होने से वे प्रथम मानव युगल हुए। वे मानस, संकल्प, व काम संकल्प विधिओं से सन्तति उत्पत्ति में प्रव्रत्त थे। इनसे समस्त मनुष्य जाति की उत्पत्ति हुयी। परन्तु अभी स्वचालित श्रिष्टि प्रक्रिया नहीं थी।

पुनः ब्रह्मा ने मनु की काम संकल्प पुत्रियां-आकूति व प्रसूति को दक्ष को दिया दक्ष को मानस सृष्टि फ़लित नहीं थी, अत: उसने काम संकल्प प्रक्रिया से अनेक पुत्र उत्पन्न किये, परन्तु सब नारद के उपदेश से तपस्या को चले गये, और दक्ष ने नारद को सदा घूमते रहने का श्राप दे दिया।

पुन: दक्ष ने प्रसूति के गर्भ से सम्भोग, मैथुन जन्य प्रक्रिया द्वारा ६० पुत्रियों को जन्म दिया जिन्हें ब्रह्मा के आदेशानुसार-सोम, अन्गिरा, धर्म, कश्यप, अरिष्ट्नेम आदि ऋषियों को दिया गया, जिनसे मैथुनी प्रक्रिया द्वारा आगे स्वत: सतत:सन्तति वर्धन क्रम चला व चलता जारहा है। अत: वास्तविक श्रिष्टि - क्रम दक्ष से माना जाता है।

प्रथम मैथुनी क्रम प्रसूति से चला अत: गर्भाधान को प्रसूति व जन्म को प्रसव कहा जाता है। शम्भु महेश्वर - इस लिन्गीय चयन, लिन्ग निर्धारण व काम सम्भोग स्वत: उत्पत्ति प्रणाली के मूल हैं अत: इसे माहेश्वरी प्रज़ा या श्रिष्टि कहा जाता है।
वस्तुत: जब तक नारी भाव की उत्पत्ति न होती, स्वत: सृष्टि का क्रम कैसे पूरा हो सकता था।
मानव के अतिरिक्त अन्य प्राणियों का जन्म--कश्यप ऋषि से उनकी विभिन्न पत्नियों से हुआ।

अदिति-से देव; दिति से दैत्य, दनु से दानव, स्वोषा से रुद्रगण, भद्रा से गन्धर्व, सन्ध्या से राक्षस, क्रोधाविष्ठा से जन्गली जानवर, वारुणी- एरावती से गज, वराह, दिग्गज़, सरमा से कुत्ते-बिल्ली वंश, व्रत्ता से विध्याधर, किन्नर; जांगल से-वनस्पति, कामदेनु से गाय, बैल आदि भारवाहक पशु, वडवा से अश्व, गधे, ऊंट खच्चर, श्येनी-शुकी- धतराष्ट्री, ग्रधी, क्रोन्ची से समस्त पक्षी, मैढक, मत्स्य, जलचर वविनता से गरुड और कद्रू से नाग, व अन्य रेंगने वाले सरिसृप आदि उत्पन्न हुए।

इस् प्रकार ब्रह्मा का सृष्टि क्रम संपूर्ण हुआ। यह क्रम सदैव संपूर्ण रहता है क्रमिक, क्योकि ब्रह्म सदैव पूर्ण है।

'ओम पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।'

बुधवार, 10 मार्च 2010

सृष्टि क्रम ---द्वितीय प्रलेख ---जीवन ,जीव व मानव भा १,---डा श्याम गुप्त

सृष्टि - क्रम के क्रमिक आलेख के इस द्वितीय क्रम “ जीवन, जीव व मानव” में हम, --जीवन कैसे आरम्भ हुआ, जीव में गति, आकार वर्धन व सन्तति वर्धन( रीप्रोडक्शन ), लिन्ग भिन्नता भाव ,सन्तति वर्धन की लिन्गीय स्वतः चालित प्रणाली (सेक्सुअल ओटोमेशन फ़ोर रीप्रोडक्शन ) कैसे प्रारम्भ हुआ एवम मानव का विकास क्रम तथा भविष्य का मानव –विषयों पर , आधुनिक वैज्ञानिक मत, पाश्चात्य दर्शन व भारतीय वैदिक विग्यान सम्मत विचारों से, निम्न तीन प्रलेखों द्वारा अवगत करायेंगे :-

भाग १-पाश्चात्य दर्शन व आधुनिक वैग्यानिक मत, डार्विन सिद्धान्त .

भाग २-वैदिक विज्ञान सम्मत मत.

भाग ३- भविष्य का महामानव .

भाग १-आधुनिक वैज्ञानिक मत

आधुनिक विग्यान मूलतः डार्विन की थिओरी ( सर चार्ल्स डार्विन-१८०९—१८८२ ई), ओरिज़िन ओफ़ स्पेसीज़ (१८५९ ) पर केन्द्रित है ।वस्तुतः डार्विन की थ्योरी कोई नवीन खोज नहीं थी अपितु प्राचीन ग्रीक धारणाएं-आगस्ताइन, अरस्तू, लिओनार्डो डा विंसी, अल्फ़्रेड रसल,प्लेटो आदि दार्शनिकों के विचारों की पुष्टि व समाशोधन ही था ।वस्तुतः विग्यान -दर्शन से ही प्रारम्भ होता है ।

आगस्टाइन को- अडाप्टेशन व हेरीडिटी के बारे में पता था। प्लेटो के अनुसार-ईश्वर एक सम्पूर्णता है तथा महानता की क्रमिकता ( अ ग्रेट चेन ) के अनुसार सर्वाइवल ओफ़ फ़िटेस्ट पर कार्य करता है । अरस्तू के अनुसार प्राणी रौक( शिला-अर्थात कण=एटम ) से -->सामान्य -> जटिल प्राणी -->मानव --> एन्जिल्स की सीढी (लेडर लाइक ) प्रणाली से बना। ग्रीक दार्शनिक एनाक्सीमेन्डर (ई.पू.६१०—५४६ ईपू )ने बताया कि जीवन जल की नमी से सर्वप्रथम जल में हुआ फ़िर सरल से जटिल प्राणी से मछली व मानव बना,--चित्र अ--। ब्रह्मांड ( यह शब्द वैदिक देन है ) एक प्रारम्भिक अन्ड( अ प्राइमोर्डियल एग --कोस्मोस) से बना । इन दर्शनों के अनुसार समस्त विश्व एक सम्मिलित श्रेणी ( कोमन डिसेन्ट ) व एक जीन पूल से बना है। इन्ही दर्शनों को डार्विन ने प्रयोगों , अनुभवों द्वारा अपनी थ्योरी का आधार बनाया ।वस्तुतः ये प्राचीन दर्शन व्यक्तिवादी, व मानवतावादी व ईश्वर-अनीश्वर-विग्यान वादी थे ’ वह तो बाद में कठोर ईश्वर वादी धर्मों –क्रिश्चियन व इस्लाम में सब कुछ गोड या खुदा द्वारा ६ य ७ दिनों में बनाया गया बताया है, जो इवोल्यूशन में विश्वास नहीं रखते ।

१.जीवन – विग्यान के अनुसार ओक्सीज़न न होने से प्रिथ्वी पर जीवन नहीं था,शायद जल में उपस्थित ओक्सीज़न परमाणु किसी तरह माइक्रो-मोलीक्यूल बने और जल में अपने आप को पुनः वर्धित करके प्रथम एक कोशीय जीव बना अथवा धूम केतु के साथ प्रिथ्वी पर जीवन आया व विकसित हुआ । इस सम्बन्ध में मूलतः ये मत हैं—

----(अ) उल्काओं की वर्षा या धूम्रकेतु के साथ जीअन वहां से प्रिथ्वी पर जल-महासागरों में आया.

----(ब) धूम्रकेतु या उल्का के जल में गिरने पर तीब्र ताप की उपस्थित कणों से प्रतिक्रियाओं से जीवन की उत्पत्ति हुई ।

---(स)-१९५० में अमेरिकन केमिस्ट व बायोलोजिस्ट, स्टेनले लायड मिलर तथा यूरे ने प्रयोगों द्वारा पयोग शाला में अकार्बनिक पदार्थों से सामान्य भौतिक प्रक्रियाओं से जैविक ( कार्वनिक ) पदार्थ बनाने में सफ़लता प्राप्त की ।अमोनिया, हाइड्रोज़न व मीथेन (जैसी ज्यूपिटर आदि ग्रहों पर स्थिति है ) गेसों के मिश्रण में जल वाष्प की उपस्थिति में विध्युत पास की, तो भूरे रन्ग का पदार्थ–अमीनो-असिड सा पदार्थ बना जो न्यूक्लिअक अम्ल(जो प्रत्येक जीव कोशिका का मूल अन्ग है) बनाने में मूल हिस्सा निभाता है। मिलर के अनुसा्र–जीवन की प्रथम बार उत्पत्ति का यह कारण हो सकता है।(चित्र-ब)

इस प्रकार( विग्यान के अनुसार मूलतः संयोग ही ) प्रथम जीवन –जीव जो प्रिथ्वी पर आया वह एक कोशीय जीवाणु (बेक्टीरिया) बना, जिससे समस्त जीव जगत—वनस्पति व प्राणी बने।

गति, वर्धन, सन्तति वर्धन, लिन्ग भिन्नता एवम लिन्गीय स्वचालित सन्तति वर्धन प्रणाली ---के अस्तित्व में आने को विग्यान मूलतः संयोग ही मानता है ,कोई निश्चित धारणा नहीं है। डार्विन के अनुसार-एक कोशीय जीव से –मानव तक विकास के लिये मूलतः निम्न चार प्रमुख बिन्दु—भूमिका निभाते हैं--

(क.)- जीवन के लिये सन्ग्राम (स्ट्रगल फ़ोर एग्ज़िस्टेन्स)—परिस्थिति के अनुसार स्वयं को ढालना, बदलना ।

(ब)- उपयुक्त का जीवित रहना-( सर्वाइवल ओफ़ फ़िटेस्ट )—कम्ज़ोर प्रज़ातियां नष्ट होजाती हैं, यथा प्रिथ्वी पर कालान्तर में जल के अथाह सागर कम होने , वनस्पति के कम होने, व स्तनपायियॊं के आने पर डायनासोरों का समाप्त होना ।

(स)—प्राक्रतिक चुनाव ( नेचुरल सिलेक्शन)—प्रक्रति(??? या ईश्वर???) अपने अनुसार स्वयम चुनाव कर लेती है कि कौन कब,कितनी- सन्बर्धन, प्रगति करेगा ।

(द)—उत्परिवर्तन ( म्यूटेशन )—किसी भी जीवधारी में अचानक कोई भी स्वतः बदलाव आसकता है, परिस्थिति,वतावरण, आवश्यकतानुसार या बिना किसी कारण के ।----------------मूलतःपरिस्थिकी ( ईकोलोजी), अडाप्टेबिलिटी, हेरीडिटी व जीन –ड्रिफ़्ट उपरोक्त के अनुसार उपरोक्त बदलाव होते हैं।

मानव का विकस क्रम---- उपरोक्त कारणों व बिन्दुओं के अनुसार ही , डार्विन के मतानुसार एक कोशीय जीव--->बहुकोशीय--->कीट क्रिमिआदि---> मत्स्य---> जल -स्थलचर-->सरीस्रप( रेंगने वाले रेप्टाइल)--->स्तन धारी--->वानर--->गोरिल्ला अदि क्रमिक विकास से मानव बना।----चित्र (स) एवम (द).

DA--4- चित्र अ,ब,स,द,---सभी गूगल से साभार --


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--चित्र स
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FrogApollo.jpgFrogApollo. चित्र -अ .

evolution4.jpg जीवन आया ---चित्र -ब

सोमवार, 8 मार्च 2010

नई सदी में नारी --डा श्याम गुप्त --

Monday, March 8, 2010

डॉ श्याम गुप्त का आलेख ---नई सदी में नारी--नारी मुक्ति का मार्ग व आरक्षण

नई सदी में नारी
( डा श्याम गुप्त )
पश्चिमी जगत के पुरुष विरोधी रूप से उभरा नारी मुक्ति संघर्ष आज व्यापक मूल्यों के पक्षधर के रूप में अग्रसर हो रहा है । यह मानव समाज के उज्जवल भविष्य का संकेत है। बीसवीं सदी का प्रथमार्ध यदि नारी जागृति का काल था तो उत्तरार्ध नारी प्रगति का । इक्कीसवी सदी क़ा यह महत्वपूर्ण पूर्वार्ध नारी सशक्तीकरण क़ा काल है। आज सिर्फ पश्चिम में ही नहीं वरन विश्व के पिछड़े देशों में भी नारी घर से बाहर खुली हवा में सांस लेरही है , एवं जीवन के हर क्षेत्र में पुरुषों से भी दो कदम आगे बढ़ा चुकी है। अब वह शीघ्र ही अतीत के उस गौरवशाली पद पर पहुँच कर ही दम लेगी जहां नारी के मनुष्य में देवत्व व धरती पर स्वर्ग की सृजिका तथा सांस्कृतिक चेतना की संबाहिका होने के कारण समाज 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता ' क़ा मूल मन्त्र गुनुगुनाने को बाध्य हुआ था ।
नारी की आत्म विस्मृति , दैन्यता पराधीनता के कारणों में विभिन्न सामाजिक मान्यताएं व विशिष्ट परिस्थितियाँ रहीं हैं , जो देश ,काल व समाज के अनुसार भिन्न भिन्न हैं। पश्चिम के दर्शन संस्कृति में नारी सदैव पुरुषों से हीन , शैतान की कृति,पृथ्वी पर प्रथम अपराधी थी। वह पुरोहित नहीं हो सकती थी । यहाँ तक कि वह मानवी भी है या नहीं ,यह भी विवाद क़ा विषय था। इसीलिये पश्चिम की नारी आत्म धिक्कार के रूप में एवं बदले की भावना से कभी फैशन के नाम पर निर्वस्त्र होती है तो कभी पुरुष की बराबरी के नाम पर अविवेकशील व अमर्यादित व्यवहार करती है।
पश्चिम के विपरीत भारतीय संस्कृति दर्शन में नारी क़ा सदैव गौरवपूर्ण व पुरुष से श्रेष्ठतर स्थान रहा है। 'अर्धनारीश्वर ' की कल्पना अन्यंत्र कहाँ है। भारतीय दर्शन में सृष्टि क़ा मूल कारण , अखंड मातृसत्ता - अदिति भी नारी है। वेद माता गायत्री है। प्राचीन काल में स्त्री ऋषिका भी थी , पुरोहित भी। व गृह स्वामिनी , अर्धांगिनी ,श्री ,समृद्धि आदि रूपों से सुशोभित थी। कोइ भी पूजा, यग्य, अनुष्ठान उसके बिना पूरा नहीं होता था। ऋग्वेद की ऋषिका -शची पोलोमी कहती है--
"" अहं केतुरहं मूर्धाहमुग्रा विवाचानीममेदनु क्रतुपति: सेहनाया उपाचरेत""---ऋग्वेद -१०/१५९/२
अर्थात -मैं ध्वजारूप (गृह स्वामिनी ),तीब्र बुद्धि वाली एवं प्रत्येक विषय पर परामर्श देने में समर्थ हूँ । मेरे कार्यों क़ा मेरे पतिदेव सदा समर्थन करते हैं । हाँ , मध्ययुगीन अन्धकार के काल में बर्बर व असभ्य विदेशी आक्रान्ताओं की लम्बी पराधीनता से उत्पन्न विषम सामाजिक स्थिति के घुटन भरे माहौल के कारण भारतीय नारी की चेतना भी अज्ञानता के अन्धकार में खोगई थी।
नई सदी में नारी को समाज की नियंता बनने के लिए किसी से अधिकार माँगने की आवश्यकता नहीं है,वरन उसे अर्जित करने की है। आरक्षण की वैशाखियों पर अधिक दूर तक कौन जासका है । परिश्रम से अर्जित अधिकार ही स्थायी संपत्ति हो सकते हैं। परन्तु पुरुषों की बराबरी के नाम पर स्त्रियोचित गुणों व कर्तव्यों क़ा बलिदान नहीं किया जाना चाहिए। ममता , वात्सल्य, उदारता, धैर्य,लज्जा आदि नारी सुलभ गुणों के कारण ही नारी पुरुष से श्रेष्ठ है। जहां ' कामायनी ' क़ा रचनाकार " नारी तुम केवल श्रृद्धा हो" से नतमस्तक होता है, वहीं वैदिक ऋषि घोषणा करता है कि-"....स्त्री हि ब्रह्मा विभूविथ :" उचित आचरण, ज्ञान से नारी तुम निश्चय ही ब्रह्मा की पदवी पाने योग्य हो सकती हो। ( ऋ.८/३३/१६ )।
नारी मुक्ति व सशक्तीकरण क़ा यह मार्ग भटकाव मृगमरीचिका से भी मुक्त नहीं है। नारी -विवेक की सीमाएं तोड़ने पर सारा मानव समाज खतरे में पड़ सक़ता है। भौतिकता प्रधान युग में सौन्दर्य की परिभाषा सिर्फ शरीर तक ही सिमट जाती है। नारी मुक्ति के नाम पर उसकी जड़ों में कुठाराघात करने की भूमिका में मुक्त बाज़ार व्यवस्था व पुरुषों के अपने स्वार्थ हैं । परन्तु नारी की समझौते वाली भूमिका के बिना यह संभव नहीं है। अपने को 'बोल्ड' एवं आधुनिक सिद्ध करने की होड़ में, अधिकाधिक उत्तेज़क रूप में प्रस्तुत करने की धारणा न तो शास्त्रीय ही है और न भारतीय । आज नारी गरिमा के इस घातक प्रचलन क़ा प्रभाव तथाकथित प्रगतिशील समाज में तो है ही, ग्रामीण समाज व कस्बे भी इसी हवा में हिलते नज़र आ रहे हैं। नई पीढी दिग्भ्रमित व असुरक्षित है। युवतियों के आदर्श वालीवुड व हालीवुड की अभिनेत्रियाँ हैं। सीता, मदालसा, अपाला,लक्ष्मी बाई ,ज़ोन ऑफ़ आर्क के आदर्श व उनको जानना पिछड़ेपन की निशानी है।
इस स्थिति से उबरने क़ा एकमात्र उपाय यही है कि नारी अन्धानुकरण त्याग कर ,भोगवादी संस्कृति से अपने को मुक्त करे। अपनी लाखों , करोड़ों पिछड़ी अनपढ़ बेसहारा बहनों के दुखादर्दों को बांटकर उन्हें शैक्षिक , सामाजिक, व आर्थिक स्वाबलंबन क़ा मार्ग दिखाकर सभी को अपने साथ प्रगति के मार्ग पर अग्रसर होना सिखाये । तभी सही अर्थों में सशक्त होकर नारी इक्कीसवीं सदी की समाज की नियंता हो सकेगी ।

महिला दिवस पर-डा श्याम गुप्त की कविता -

महिला दिवस पर-डा श्याम गुप्त की कविता ----

तुम , तुम और तुम

सकल रूप रस भाव अवस्थित , तुम ही तुम हो सकल विश्व में |
सकल विश्व तुम में स्थित प्रिय,अखिल विश्व में तुम ही तुम हो |
तुम तुम तुम तुम , तुम ही तुम हो,तुम ही तुम हो तुम ही तुम हो ||

तेरी वींणा के ही नाद से, जीवन नाद उदित होता है |
तेरी स्वर लहरी से ही प्रिय,जीवन नाद मुदित होता है |

ज्ञान चेतना मान तुम्ही हो ,जग कारक विज्ञान तुम्ही हो |
तुम जीवन की ज्ञान लहर हो,भाव कर्म शुचि लहर तुम्ही हो |

अंतस मानस या अंतर्मन ,अंतर्हृदय तुम्हारी वाणी |
अंतर्द्वंद्व -द्वंद्व हो तुम ही , जीव जगत सम्बन्ध तुम्ही हो |

तेरा प्रीति निनाद होता , जग का कुछ संबाद होता |
जग के कण कण भाव भाव में,केवल तुम हो,तुम ही तुम हो |

जग कारक जग धारक तुम हो,तुम तुम तुम तुम, तुम ही तुम हो |
तुम तुम तुम तुम, तुम ही तुम हो,तुम ही तुम हो,तुम ही तुम हो |

तुम्ही शक्ति, क्रिया, कर्ता हो, तुम्ही ब्रह्म इच्छा माया हो |
इस विराट को रचने वाली, उस विराट की कृति काया हो |

दया कृपा अनुरक्ति तुम्ही हो, ममता माया भक्ति तुम्ही हो |
अखिल भुवन में तेरी माया,तुझ में सब ब्रह्माण्ड समाया |

गीत हो या सुर संगम हे प्रिय!, काव्य कर्म हो या कृति प्रणयन |
सकल विश्व के गुण भावों में, तुम ही तुम हो,तुम ही तुम हो |

तेरी प्रीति-द्रिष्टि का हे प्रिय, श्याम तन मन पर साया हो |
मन के कण कण अन्तर्मन में, तेरी प्रेम -मयी छाया हो ।

स्रिष्टि हो स्थिति या लय हो प्रिय!, सब कारण का कारण, तुम हो ।
तुम ही तुम हो,तुम ही तुम हो,तुम तुम तुम तुम प्रिय, तुम ही तुम हो ॥

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लखनऊ, उत्तर प्रदेश, India
--एक चिकित्सक, शल्य-विशेषज्ञ जिसे धर्म, दर्शन, आस्था व सान्सारिक व्यवहारिक जीवन मूल्यों व मानवता को आधुनिक विज्ञान से तादाम्य करने में रुचि व आस्था है।