आधुनिक-विज्ञान व पुरा वैदिक-विज्ञान, धर्म, दर्शन, ईश्वर, ज्ञान के बारे में फ़ैली भ्रान्तियां, उद्भ्रान्त धारणायें व विचार एवम अनर्थमूलक प्रचार को उचित व सम्यग आलेखों, विचारों व उदाहरणों, कथा, काव्य से जन-जन के सम्मुख लाना---ध्येय है, इस चिठ्ठे का ...
बुधवार, 30 दिसंबर 2009
रविवार, 20 दिसंबर 2009
कम्प्यूटर आया--
युग बदला दुनिया बदली कम्प्युटर आया।
सबल सूचना तंत्र लिए घर-घर में छाया।
सभी तरह के खेल तमाशे भी है लाया।
इन्टरनेट की माया ने सबको भरमाया ।
दुनिया भर में इन्फोटेक का जाल बिछाया।
सभी समस्याओं का हल लेकर आया।
युग बदला जीवन बदला कम्प्युटर आया।
माउस और की पर रियाज़ हम पेल रहे हैं।
जावा और कोबोल के पापड बेल रहे हैं।
हार्ड डिस्क के नखरे भी हम झेल रहे हैं।
विंडो टू थाउजेंड थ्री ने दिल धड़काया।
डव्लू डव्लू डाट कोम बन सब पर छाया।
....युग ...
भैया को है इन्टरनेट -चेट पर जाना।
पापा को है शतरंज में उसे हराना।
मुझको भी हैं सुनने जम कर नए तराने।
चाचाजी ने लैटर लिख प्रिंटर खडकाया।
मम्मी को भी ई-कामर्स का शौक लगाया।
....युग ...
दादी ने छोटी बुआ को ई मेल लिखवाया।
ताऊजी ने पेक-मेन का गेम लगाया।
चाची जी ने सुन्दर ग्रीटिंग कार्ड बनाया।
दादाजी ने रामायण का डिस्क चलाया।
गुडिया ने भी पिक्चर-पिक्चर शोर मचाया।
....युग ...
टी वी, वीडियो गेम सभी हो गए पुराने।
पुस्तक पेपर लाइब्रेरी के गए ज़माने।
जन-जन की आँखों में लाया सपन सुहाने।
टाइपिस्ट-स्टेनो का भी दिल धड़काया।
पर बिट्टू की आँखों में चश्मा चढ़वाया।
युग बदला दुनिया बदली कम्प्युटर आया।
-- डा श्याम गुप्त
शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009
सृष्टि व ब्रह्माण्ड (भाग -३)----रचना एवं निर्माण कार्य.
सृष्टि व ब्रह्माण्ड (भाग -३)
(सृष्टि व ब्रह्माण्ड भाग २ में हमने वैदिक विज्ञान के अनुसार सृष्टि रचना प्रारम्भ क्रम, से विश्वौदन अज (कोस्मिक सूप) बनने व उसमें भाव तत्व का प्रवेश तक व्याख्यायित किया था, आगे इस भाग में हम समय की उत्पत्ति, जड़ व जीव सृष्टि की मूल भाव संरचना, मूल तत्व-महत्तत्व, व्यक्त पुरुष, व्यक्त मूल ऊर्जा -आदिशक्ति, त्रिदेव, अनंत ब्रह्माण्ड की रचना एवं निर्माण कार्य में व्यवधान का वर्णन करेंगे)
१. सृष्टि की भाव संरचना ---वह चेतन ब्रह्म, परात्पर ब्रह्म, पर ब्रह्म (जैसा कि भाग २ में कहा ही कि चेतन प्रत्येक कण में प्रवेश करता है) ; जड़ व जीव दोनों में ही निवास करता है। उस ब्रह्म का भू : रूप (सावित्री रूप), जड़ सृष्टि का निर्माण करता है एवं भुव: (गायत्री रूप) जीव सृष्टि की रचना करता है। इस प्रकार --
---परात्पर अव्यक्त से --->परा शक्ति (आदि शम्भू -अव्यक्त) एवं अपरा शक्ति (आदि माया -अव्यक्त) - दोनों के संयोग से ==आदि व्यक्त तत्व --महत्त्तत्व प्राप्त होता है।
----महत्तत्व के विभाजन से ---> व्यक्त पुरुष (आदि विष्णु) व आदि-माया (व्यक्त आदि शक्ति अपरा)
----आदि विष्णु (आदि-पुरुष) से --->महा विष्णु, महा शिव, महा ब्रह्मा ---क्रमश: पालक, संहारक, धारक तत्व बने (विज्ञान के इलेक्ट्रोन, प्रोटोन व न्यूत्रों कण कहा जा सकता है)
----आदि माया (आदि शक्ति) से --> रमा, उमा व सावित्री --सर्जक,संहारक व स्फुरण प्रति तत्व बने। (विज्ञान के एंटी-इलेक्ट्रोन-प्रोटोन-न्यूत्रों कहा जासकता है) ---आधुनिक विज्ञान में पुरुष तत्व की कल्पना नहीं है, ऊर्जा ही सब कुछ है, कण व प्रति कण सभी ऊर्जा हे हैं, जो देवी भागवत के विचार, देवी -आदि-शक्ति ही समस्त सृष्टि की रचयिता है -के समकक्ष है)
----महाविष्णु व रमा के संयोग (सक्रिय तत्व व सृजक ऊर्जा) से अनंत चिद-बीज या हेमांड (जिसमें स्वर्ण अर्थात सब कुछ निहित है) या ब्रह्माण्ड (जिसमें ब्रह्म अर्थात सब कुछ निहित है) या अंडाणु, ग्रीक दर्शन का प्रईमोरडियल - एग, की उत्पत्ति हुई जो असंख्य व अनंत संख्या में थे व महाविष्णु (अनंत अंतरिक्ष) के रोम-रोम में (सब ओर बिखरे हुए) व्याप्त थे। प्रत्येक हेमांड की स्वतंत्र सत्ता थी।
----महा विष्णु से उत्पन्न ---> विष्णु चतुर्भुज (स्वयं भाव से), लिंग महेश्वर शिव व ब्रह्मा (विभिन्नांश से) ---इन तीनों देवों ने (त्रि-आयामी जीव सत्ता) प्रत्येक हेमांड में प्रवेश किया।
----इस प्रकार इन हेमांडों में में --त्रिदेव,माया, परा-अपरा ऊर्जा, दृव्य, प्रकृति,व उपस्थित विश्वौदन अज उपस्थित थे, सृष्टि रूप में उद्भूत होने हेतु। (अब आधुनिक विज्ञान भी यह मानने लगा है कि अनंत अंतरिक्ष (चिदाकाश) में अनंत-अनंत आकाश गंगाएं हैं अपने-अपने अनंत सौरी मंडलों व सूर्यों के साथ, जिनकी प्रत्येक की अपनी स्वतंत्र सत्ताएं हैं।)
२. निर्माण में रुकावट --निर्माण ज्ञान भूला हुआ ब्रह्मा --लगभग एक वर्ष तक(ब्रह्मा का एक वर्ष == मानव के करोड़ों वर्ष) ब्रह्मा, जिसे सृष्टि निर्माण
करना था,उस हेमांड में घूमता रहा,वह निर्माण प्रक्रिया समझ नहीं पा रहा था, भूला हुआ था। (आधुनिक विज्ञान के अनुसार हाइड्रोजन, हीलियम पूरी निर्माण में कंज्यूम होजाने के कारण निर्माण क्रम युगों तक रुका रहा, फिर अत्यधिक शीत होने पर पुन: ऊर्जा बनने पर सृष्टि क्रम प्रारम्भ हुआ)
----जब ब्रह्मा नेआदि -विष्णु की प्रार्थना की, क्षीर सागर (अंतरिक्ष,महाकाश, ईथर) में उपस्थित, शेष-शय्या (बची हुई मूल संरक्षित ऊर्जा) पर लेटे हुए नारायण (नार=जल,अंतरिक्ष ;;अयन=निवास, स्थित विष्णु) की नाभि (नाभिक ऊर्जा) से स्वर्ण कमल (सत्, तप,श्रृद्धा रूपी आसन) पर वह ब्रह्मा,-चतुर्मुख रूप (कार्य रूप) में अवतरित हुआ। आदि माया सरस्वती (ऊर्जा का सरस -भाव रूप) का रूप धर कर वीणा बजाती हुई (ज्ञान के आख्यानों सहित) प्रकट हुई एवं ब्रह्मा के ह्रदय में प्रविष्ट हुईं। इस प्रकार उसे सृष्टि निर्माण प्रक्रिया कापुन; ज्ञान हुआ, और वे सृष्टि रचना में रत हुए।
३. समय (काल)---अंतरिक्ष में बहुत से भारी कणों ने, मूल स्थितिक ऊर्जा,नाभीय व विकिरित ऊर्जा, प्रकाश कणों आदि को अत्यधिक मात्रा में मिला कर कठोर रासायनिक बंधनों वाले कण-प्रति कण बनालिए थे (जिन्हें राक्षस कहागया है) वे ऊर्जा का उपयोग रोक कर सृष्टि की आगे प्रगति रोके हुए थे,पर्याप्त समय बाद (ब्रह्मा को ज्ञान के उपरांत) उदित, इंद्र (रासायनिक प्रक्रिया-यग्य) द्वारा बज्र (विभिन्न उत्प्रेरकों) के प्रयोग से उन को तोड़ा। वे बिखरे हुए कण --काल-कांज या समय के अणु कहलाये। इन सभी कणों से--
अ. - विभिन्न ऊर्जाएं, हलके कण व प्रकाश कण मिलकर--विरल पिंड (अंतरिक्ष के शुन) कहलाये, जिनमें नाभिकीय ऊर्जा के कारण संयोजन व विखंडन (फिसन व फ्यूज़न) के गुण थे, उनसे सारे नक्षत्र,( सूर्य, तारे आदि),आकाश गंगाएं (गेलेक्सी) व नीहारिकाएं (नेब्यूला) आदि बने।
ब. - मूल स्थितिक ऊर्जा,भारी व कठोर कण मिलाकर जिनमें उच्च ताप भी था, अंतरिक्ष के कठोर पिंड ---गृह,उप गृह, पृथ्वी आदि बने।
----क्योंकि ये सर्व प्रथम दृश्य ज्ञान के रचना पिंड थे, एक दूसरे के सापेक्ष घूम रहे थे, इसके बाद ही एनी दृश्य रचनाएँ हुईं, तथा ब्रह्मा को ज्ञान का भी यहीं से प्रारम्भ हुआ ; अत; ब्रह्मा कादीन व समय की नियमन गणना यहीं से प्रारम्भ मानी गयी।
-- डा श्याम गुप्ता
रविवार, 15 नवंबर 2009
स्रिष्टि व जीवन --भाग-२
वैदिक विज्ञान के अनुसार समस्त सृष्टि का रचयिता - 'परब्रह्म ' है; जिसे ईश्वर, परमात्मा, वेन, विराट, ऋत, ज्येष्ठ ब्रह्म, सृष्टा व चेतन आदि नाम से भी पुकारा जाता है।
१. सृष्टि पूर्व -ऋग्वेद के नासदीय सूक्त के अनुसार (१०/१२९/१ व २ ) - "न सदासीन्नो सदासीत्तादानी। न सीद्र्जो नो व्योमा परोयत। एवं --"आनंदी सूत स्वधया तदेकं। तस्माद्वायन्न पर किन्चनासि।"
अर्थात प्रारंभ में न सत् था, न असत, न परम व्योम व व्योम से परे लोकादि; सिर्फ वह एक अकेला ही स्वयं की शक्ति से, गति शून्य होकर स्थित था इस के अतिरिक्त कुछ नहीं था। कौन, कहाँ था कोइ नहीं जानता क्योंकि -- "अंग वेद यदि वा न वेद " वेद भी नहीं जानता क्योंकि तब ज्ञान भी नहीं था। तथा --""अशब्दम स्पर्शमरूपंव्ययम् ,तथा रसं नित्यं गन्धवच्च यत ""-(कठोपनिषद १/३/१५ )--अर्थात वह परब्रह्म अशब्द, अस्पर्श, अरूप, अव्यय, नित्य व अनादि है । भार रहित, स्वयम्भू, कारणों का कारण, कारण ब्रह्म है। उसे ऋषियों ने आत्मानुभूति से जाना व वेदों में गाया।( यह विज्ञान के एकात्मकता पिंड के समकक्ष है जो प्रयोगात्मक अनुमान प्रमाण सेजाना गया है।)
२. परब्रह्म का भाव संकल्प - उसने अहेतुकी सृष्टि -प्रवृत्ति से, सृष्टि हित भाव संकल्प किया तब 'ॐ' के रूप में ' मूल अनाहत नाद स्वर 'अवतरित होकर, भाव संकल्प से अवतरित "व्यक्त साम्य अर्णव"( महाकाश, मनो आकाश, गगन, परम व्योम या ईथर ) में उच्चारित होकर गुंजायमान हुआ, जिससे -अक्रिय, असत, निर्गुण व अव्यक्त असद परब्रह्म से - सक्रिय, सत्, सगुण, व सद- व्यक्त परब्रह्म : हिरण्यगर्भ (जिसके गर्भ में स्वर्ण अर्थात सबकुछ है) के रूप में प्रकट हुआ। जो स्वयम्भू (जिसमे -जीव, जड़, प्रकृति, चेतन, सद-असद, सत्-तम्-रज, कार्य-कारण-मूल अपः - आदि मूल तत्व - , मूल आदि ऊर्जा, सब कुछ अन्तर्निहित थे। एवं परिभू (जो स्वयं इन सब में निहित था) है।
३. एकोहम बहुस्याम - वैदिक सूक्त -"स एकाकी नैव रेमे ...." व "कुम्भे रेत मनसो ...." के अनुसार व्यक्त ब्रह्म हिरण्य गर्भ के सृष्टि हित ईक्षण - तप व ईषत - इच्छा - एकोअहम बहुस्याम - (अब में एक से बहुत हो जाऊं -जो प्रथम सृष्टि हित काम संकल्प, मनो रेत: संकल्प था) उस साम्य अर्णव में 'ॐ' के अनाहत नाद रूप में स्पंदित हुई। प्रतिद्ध्नित स्पंदन से (= बिग्बेंग - विज्ञान) महाकाश की साम्यावस्था भंग होने से अक्रिय अप: (अर्णव में उपस्थित व्यक्त मूल इच्छा तत्व) सक्रिय होकर व्यक्त हुआ व उसके कणों में हलचल से आदि मूल अक्रिय ऊर्जा, सक्रिय ऊर्जा में प्रकट हुई व उसके कणों में भी स्पंदन होने लगा। कणों के इस द्वंद्व भाव व टकराहट से महाकाश (ईथर) में एक असाम्यावस्था व अशांति की स्थिति उत्पन्न होगई।
४. अशांत अर्णव (परम व्योम ) - आकाश में मूल अप: तत्व के कणों की टक्कर से ऊर्जा की अधिकाधिक मात्रा उत्पन्न होने लगी, साथ ही ऊर्जा व आदि अप: कणों से परमाणु पूर्व कण बनने लगे, परन्तु कोइ निश्चित सतत: प्रक्रिया नहीं थी।
५. नाभिकीय ऊर्जा न्यूक्लियर इनर्जी ) - ऊर्जा व कणों की अधिक उपलब्धता से - प्रति 1000 इकाई ऊर्जा से एक इकाई नाभिकीय ऊर्जा के अनुपात से नाभिकीय ऊर्जा की उत्पत्ति होने लगी (नाभानेदिष्ट ऋषि एक गाय दे सहस चाहते तभी इन्द्र से -- सृष्टि महाकाव्य से व ऋग्वेद आख्यान), जिससे ऋणात्मक, धनात्मक, अनावेषित व अति सूक्ष्म केन्द्रक कण आदि परमाणु पूर्व कण बनने लगे। पुन: विभिन्न प्रक्रियाओं (रासायनिक,भौतिक संयोग या विश्व-यग्य) द्वारा असमान धर्मा कणों से विभिन्न नए-नए कण, व सामान धर्मा कण स्वतंत्र रूप से (क्योंकि सामान धर्मा कण आपस में संयोग नहीं करते -यम्-यमी आख्यान -ऋग्वेद) महाकाश में उत्पन्न होते जारहे थे।
६. रूप सृष्टि कण - उपस्थित ऊर्जा एवं परमाणु पूर्व कणों से विभिन्न अद्रश्य व अश्रव्य रूप कण (भूत कण-पदार्थ कण) बने जो अर्यमा (सप्त वर्ण प्रकाश व ध्वनि कण), सप्त होत्र (सात इलेक्ट्रोन वाले असन्त्रप्त) व अष्ट वसु (आठ इलेक्ट्रोन वाले संतृप्त) जैविक (ओरगेनिक) कण थे।
७. त्रिआयामी रूप सृष्टि कण -उपरोक्त रूप कण व आधिक ऊर्जा के संयोग से विभिन्न त्रिआयामी कणों का आविर्भाव हुआ, जो वस्तुतः दृश्य रूप कण, अणु, परमाणु थे, जिनसे विभिन्न रासायनिक, भौतिक, नाभिकीय आदि प्रक्रियाओं से समस्त भूत कण, ऊर्जा व पदार्थ बने।
८. चेतन तत्व का प्रवेश - आधुनिक विज्ञान मेंचेतन तत्व नामक कोइ परिकल्पना या व्याख्या नहीं है । वैदिक विज्ञान के अनुसार वह चेतन परब्रह्म ही सचेतन भाव व प्रत्येक कण का क्रियात्मक भाव तत्व बनकर उनमें प्रवेश करता है ताकि आगे जीव-सृष्टि तक का विस्तार हो पाये। इसी को दर्शन में प्रत्येक वास्तु का अभिमानी देव कहा जाता है, यह ब्रह्म चेतन प्राण तत्व है जो सदैव ही उपस्थित रहता है, प्रत्येक रूप उसी का रूप है (ट्रांस फार्मेसन)--"अणो अणीयान, महतो महीयान "। इसीलिये कण-कण में भगवान् कहा जाता है।
इस प्रकार ये सभी कण महाकाश में प्रवाहित होरहे थे, ऊर्जा के सहित। इसी कण-प्रवाह को वायु नाम से सर्व-प्रथम उत्पन्न तत्व माना गया। कणों के मध्य स्थित विद्युत विभव अग्नि (क्रियात्मक ऊर्जा ) हुआ। भारी कणों से जल-तत्व की उत्पत्ति हुई।जिनसे आगे- जल से सारे जड़ पदार्थ, अग्नि से सारी ऊर्जाएं व वायु से मन, भाव, बुद्धि, अहं, शब्द आदि बने।
९. विश्वौदन अजः (पंचौदन अज )-- अज = अजन्मा तत्व, जन्म मरण से परे। ये सभी तत्व, ऊर्जाएं, सभी में सत्, तम् रज रूपी गुण, चेतन देव,- संयुक्त सृष्टि निर्माण का मूल पदार्थ, विश्वौदन अजः -सृष्टि कुम्भकार की गूंथी हुई माटी, (आधुनिक विज्ञान का कॉस्मिक सूप ), स्सरे अन्तरिक्ष में तैयार था, सृष्टि रचना हेतु।
१०. मूल चेतन आत्म-भाव (३३ देव)-चेतन जो प्रत्येक कण का मूल क्रिया भाव बनकर उनमें बसा, वे ३३ भाव रूप थे जो ३३ देव कहलाये।
ये भाव देव हैं --११ रुद्र -विभिन्न प्रक्रियाओं के नियामक; १२ आदित्य -प्रकृति चलाने वाले नीति-निर्देशक; ८ बसु- मूल सैद्धांतिक रूप, बल, वर्ण, नीति नियामक; इन्द्र -संयोजक व व्घतक नियामक व प्रजापति -सब का आपस में संयोजक व समायोजक भाव -- ये सभी भाव तत्व पदार्थ,-- सिन्धु (महाकाश, अन्तरिक्ष) में पड़े थे। विश्वोदन अज के साथ। (ये सभी भाव आत्म पदार्थ, चेतन, जो ऊर्जा, कण, पदार्थ सभी के मूल गुण हैं, विज्ञान नहीं जानता, ये रासायनिक, भौतिक आदि सभी बलों, क्रियाओं के भी कारण हैं।)
-- डा। श्याम गुप्त
बुधवार, 4 नवंबर 2009
मंगलवार, 3 नवंबर 2009
प्रमाण -मीमांसा
आधुनिक विज्ञान मूलतः प्रत्यक्ष प्रमाण को ही मानता है, जो प्रत्यक्ष आंखों से दिखाई दे वही सत्य है ,परन्तु मात्र वहही सही प्रमाण नहीं है वह सिक्के का सिर्फ़ एक पार्श्व भी हो सकता है , जो स्वयं विज्ञान के अत्याधुनिक आविष्कारों से हीप्रत्यक्ष प्रमाणित है ,जैसे---टी वी पर या थ्री -डी तस्वीर में पानी बहते दिखना जो कि वास्तविकता से परे अर्थात सत्य नहींहै परन्तु प्रत्यक्ष है |यह सत्य भी आपको अनुमान प्रमाण ( अनुभव , ज्ञान , विवेक,आदि )से अर्थात वैज्ञानिक ज्ञान से कि यहबहते जल का चित्र है एवं शास्त्र प्रमाण ( वैज्ञानिक साहित्य, इलेक्ट्रोनिक ज्ञान की पुस्तकें आदि ) से सुनिश्चित करना पडेगाकि ऐसा हो सकता है |
अनुमान प्रमाण -अर्थात जो प्रत्यक्ष उपस्थित नहीं है परन्तु अनुमान से जाना जाने वाला सत्य , जैसे धुंआ देखकरआग का अस्तित्व होना | यह व्यक्ति के अनुभव, ज्ञान , विवेक पर आधारित होता है |प्रत्यक्ष प्रमाण की सदैव आवश्यकतानहीं होती |
शास्त्र प्रमाण -राम थे या नहीं ,ऐतिहासिक घटनाएँ , शब्दों के अर्थ क्या होते हैं ,कहाँ से आए आदि विभिन्न बातेंशास्त्र प्रमाण से जानी व मानी जातीं है | इतिहास, भूगोल, क़ानून, नियम-नीति आदि शास्त्र प्रमाण होते हैं | ये युगों केअनुभव, ज्ञान के भण्डार व स्वयं -सिद्ध होते हैं
शनिवार, 24 अक्तूबर 2009
शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009
सृष्टि व ब्रह्माण्ड भाग १.
व जीवन की उत्पत्ति का रहस्य जाननाप्रत्येक मस्तिष्क का लक्ष्य बन गया।
इसी उद्देश्य यात्रा मेंमानव की क्रमिक भौतिक उन्नति, वैज्ञानिक व दार्शनिक उन्नति के आविर्भाव की गाथा है। आधुनिक --विज्ञान हो या दर्शन या पुरा-वैदिक - विज्ञान इसी यक्ष प्रश्न का उत्तर खोजना ही सबका का चरम लक्ष्य है ।
की गाथा है |
१/१००० सेकन्ड में तापक्रम १०० बिलिअन सेंटीग्रेड होगया, घनीभूत ऊर्ज़ा व
विकिरण के मुक्त होने से आदि-ऊर्ज़ा उपकण उत्पन्न होकरनन्त ताप के कारण
विखन्डित होकर एक दूसरे से तीब्रता से दूर होने लगे। ये हल्के,भार
रहित,विद्युतमय व उदासीन आदि ऊर्ज़ा उपकण थे।जो मूलतः- इलेक्ट्रोन्स,
पोज़िट्रोन, न्युट्रीनोज़ व फ़ोटोन्स थे । सभी कण बराबर संख्या में थे एवन
उपस्थित स्वतन्त्र ऊर्ज़ा से लगातार बनते जा रहे थे। इस प्रकार एक
’कोस्मिक-सूप’ बन कर तैयार हुआ।
(सान्द्रीकरण) स्थिति- कणो के लगातार आपस में दूर-दूर जाने से तापक्रम कम
होने लगा एवम हल्के कण एक दूसरे से जुड कर भारी कण बनाने लगे,जो
१०००मिलियन: १ के अनुपात में बने। वे मुख्यतया ,प्रोटोन ,न्यूट्रोन व
फ़ोटोन्स थे। (जो -१०००मिलियन एलेक्ट्रोन्स या फ़ोटोन्स या पोज़िट्रोन्स
या न्यूट्रीनोस=१ प्रोटोन या न्यूट्रोन के अनुपात में बने।) ये एटम-पूर्व
कण थे जो लगातार बन रहे थे एवम उपस्थित ऊर्ज़ा से नये उप-कण उत्पन्न भी
होरहे थे, तापमान लगातार गिरने से बनने की प्रक्रिया धीमी थी।
१४वे सेकन्ड मेंतीब्र अनीहिलेशन से जटिल केन्द्रक बनने लगे, १ प्रोटोन+ १
न्यूट्रोन=भारी हाइड्रोज़न(ड्यूटीरियम) के अस्थायी केन्द्रक व पुनः २
प्रोटोन+२ न्यूट्रोन से स्थायी हीलियम के केन्द्रक ,जो परमाणु पूर्व कण थे
बने।
इस समयआदि-कण बनने की्प्रक्रिया धीमी होने पर स्वतन्त्र ऊर्ज़ा के व
एलेक्ट्रोन्स आदि के न होने से आगे की विकास प्रक्रिया लाखों वर्षों तक
रूकी रही। यद्यपि कणों के तेजी से एक दूसरे से दूर जाने पर यह पदार्थ-
कोस्ममिक-सूप-कम घना होता जारहा था, अतः उपस्थित गेसों की एकत्रीकरण
(क्लम्पिन्ग) क्रिया प्रारम्भ होचली थी ,जिससे बाद में गेलेक्सी व तारे
आदि बनेने लगे।
वर्ष बाद जब ताप बहुत अधिक कम होने पर,पुनः ऊर्ज़ा व एलेक्ट्रोन्स निस्रत
हुए; ये एलेक्ट्रोन, प्रोटोन्स व न्यूट्रोन्स से बने केन्द्रक के चारों ओर
एकत्र होकर घूमने लगे ,इस प्रकार प्रथम एटम का निर्माण
हुआ जो हाइड्र्प्ज़न व हीलियम गेस के थे। इसी प्रकार अन्य परमाणु, अणु, व
हल्के-भारी कण,गेसें ऊर्ज़ा आदि मिलकर विभिन्न पदार्थ बनने के प्रक्रिया
प्रारम्भ हुई।----
ब्रह्माण्ड बनता चलागया |
के इस एक अन्य सिद्दान्त के अनुसार,ब्रह्मांड सदैव वही रहता है, जैसे
-जैसे कण एक दूसरे से दूर होते हैं नया पदार्थ उन के बीच के स्थान को भरता
जाता है, तारों,
कण लगातार एक दूसरे से दूर होते जाने से ब्रह्मान्ड अत्यधिक ठन्डा होने
पर, कणों के मध्य आपसी आकर्षण समाप्त होने पर, पदार्थ कण पुनः विश्रन्खलित
होकर अपने स्वयम के आदि-कण रूप में आने लगते हैं, पदार्थ विलय होकर पुनः
ऊर्ज़ा व आदि कणों में संघनित्र होकर ब्रह्मांड एकात्मककता को प्राप्त
होता है,पुनः नय्र बिगबेन्ग व पुनर्स्रष्टि के लिये।
गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009
वैदिक युग में लक्ष्मी पूजन ----,संस्कृति ,मानव व्यवहार व दीपावली पर्व ----
"" अन्धः तम् प्रविशन्ति ये न सम्भूत्यः उपासते | ततो भूयः यऊ ये असम्भूत्यः रताः ||""-----वे जो संसार का व्यवहार पालन नहीं करते घोर कष्ट पाते हैं ; परन्तु वे और भी घोर कष्टों में घिरते हैं जो केवल संसारी कृत्यों में ही रमे रहते हैं |
इसी सामंजस्य का पर्व दीपावली व लक्ष्मी आवाहन का वैदिक साहित्य में इस प्रकार विभिन्न वर्णन है----
श्री सूक्त में वैदिक ऋषि कहता है--""महालक्ष्मी च विघ्न्हे विष्णु पत्नी च धीमहि |तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात ||""महालक्ष्मी को मैं जानता हूँ ,जिस विष्णु पत्नी का ध्यान करता हूँ, वह हमारे मन, बुद्धि को प्रेरणा दे |
""" शुचीनां श्रीमतां गेहे योग्भ्रश्तो अभिजायते | तां म आवह जातवेदो लक्ष्मी मन पगामिनीम |
यस्यां हिरण्य विन्देय गामश्च पुरुशान्हम ||"""----अर्थात हे जातवेदस ! में सुवर्ण,गाय, घोडे व इष्ट मित्रों को प्राप्त कर सकूं , ऐसी अविनासी लक्ष्मी मुझे दें |
"""पद्मानने पद्मिनी पद्मपत्रे पद्मप्रिये पद्म दलायाताक्षी विश्व प्रिये विश्व मनोनुकूले त्वत्पाद पद्मं मई संनिधास्त्व ||---हे कमल मुखी,कमल पर विराजमान,कमल दल से नेत्रों वाली , कमल पुष्पों को पसंद कराने वाली लक्ष्मी सदैव मेरे ह्रदय में स्थित हों |
"""ऊँ हिरण्य वर्णा हरिणीं सुवर्ण रज़स्त्राम चंद्रा हिरण्य मयी लक्ष्मी जात वेदों मआवः||"""----हे अग्नि! हरित, व हिरण्य वर्ण हार , स्वर्ण,रज़त सुशोभित चन्द्र और हिरण्य आभा देवी लक्ष्मी का आव्हान करो||
''''' तामं आवह जातवेदो लक्ष्मी मन पगामिनीम | यस्या हिरण्यं विदेयं गामश्च पुरुशान्हं अश्व्पूर्वा रथमध्याहस्तिनादं प्रमोदिनीम | श्रियं देवी मुपव्हायें श्रीर्मा देवी जुषतां ||"""----- हे हमारे गृह -अनल !आव्हान करो कि उस देवी का वास हो जो प्रचुर धन, प्रचुर गो,अश्व,सेवक,सुतदे, जिनके पूर्वतर ,मध्यस्थ,रथ, हस्ति रव से प्रवोधित पथ पर देवी का आगमन हो | यहे प्रार्थना है|
शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2009
प्राचीन भारत में सर्जरी के कुछ दर्पण---
शनिवार, 5 सितंबर 2009
राधा ---व्युत्पत्ति व उदभव
सर्व प्रथम रिग्वेद के भाग १/मंडल१-२ में-राधस शब्द का प्रयोग हुआ है,जिसको ’बैभवके अर्थ में प्रयोग कियागया है। रिग्वेद-२/३-४-५- में-’ सुराधा’ शब्द श्रेष्ठ धनों से युक्त के अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है। सभी देवों से उनकीसंरक्षक शक्ति का उपयोग कर धनों की प्रार्थना , प्राक्रतिक साधनों का उचित उपयोग की प्रार्थना की गई है। रिग्वेद-५/५२/४०९४ में ’ राधो’ व ’आराधना’ शब्द शोधकार्यों के लिये भी प्रयोग किये गये हैं,यथा--
"यमुनामयादि श्रुतमुद्राधो गव्यं म्रजे निराधो अश्व्यं म्रजे॥" अर्थात यमुना के किनारे गाय,घोडों आदि धनों कावर्धन(व्रद्धि व उत्पादन) आराधना सहित करें।
वस्तुतः रिग्वेदिक व यजुर्वेद व अथर्व वेदिक साहित्य में ’ राधा’ शब्द की व्युत्पत्ति =रयि(संसार, ऐश्वर्य,श्री,वैभव) +धा( धारक,धारण करने वालीशक्ति) ,से हुई है; अतः जब उपनिषद व संहिताओं के ग्यान मार्गीकाल में स्रष्टि के कर्ता का ब्रह्म व पुरुष,परमात्मा, रूप वर्णन हुआ तो समस्त संसार की धारक चित-शक्ति,ह्लादिनी शक्ति,परमेश्वरी(राधा) का आविर्भाव हुआ ;भविष्य पुराण में--जब वेद को स्वयं साक्षात नारायण कहा तो उनकीमूल क्रतित्व-काल,कर्म,धर्म व काम के अधिष्ठाताहुए--काल रूप क्रष्ण व उनकी सहोदरी(भगिनी-साथ-साथउदभूत) राधा परमेश्वरी; कर्म रूप ब्रह्मा व नियति(सहोदरी); धर्म रूप-महादेव व श्रद्धा(सहोदरी) एवम कामरूप-अनिरुद्ध व उषा ।----इस प्रकार राधा परमात्व तत्व क्रष्ण की चिर सहचरी , चिच्छित-शक्ति(ब्रह्म संहिता) है।
वही परवर्ती साहित्य में श्री क्रष्ण का लीला-रमण,व लोकिक रूप के आविर्भाव के साथ उनकी साथी,प्रेमिका,पत्नीहुई, व ब्रज बासिनी रूप में जन-नेत्री।
वस्तुतः गीत गोविन्द व भक्ति काल के समय स्त्रियों के सामाज़िक(१ से १० वीं शताब्दी) अधिकारों में कटौती होचुकी थी, उनकी स्वतंत्रता ,स्वेच्छा, कामेच्छा अदि पर अंकुश था। अत राधा का चरित्र महिला उत्थान वउन्मुक्ति के लिये रचित हुआ। पुरुष-प्रधान समाज में क्रष्ण उनके अपने हैं,जो उनकी उंगली पर नाचते है, स्त्रियों केप्रति जवाब देह हैं,नारी उन्मुक्ति ,उत्थान के देवता हैं। इस प्रकार ब्रन्दावन अधीक्षिका, रसेश्वरी श्री राधाजी का ब्रजमे, जन-जन में, घर-घर में ,मन-मन में, विश्व में, जगत में प्राधान्य हुआ। वे मातु-शक्ति हैं, भगवान श्री क्रष्ण केसाथ सदा-सर्वदा संलग्न,उपस्थित,अभिन्न--परमात्म-अद्यात्म-शक्ति; अतः वे लौकिक-पत्नी नहीं होसकतीं, उन्हेंबिछुडना ही होता है,गोलोक के नियमन के लिये ।
शुक्रवार, 28 अगस्त 2009
वेदिक युग में चिकित्सक-रोगी संबंध--
संस्क्रति व समाज़ में काल के प्रभावानुसार उत्पन्न जडता , गतिहीनता व दिशाहीनता को मिताने के लिये समय-समय परइतिहास के व काल-प्रमाणित महान विचारों ,संरक्षित कलापों को वर्तमान से तादाम्य की आवश्यकता होतीहै। विश्व के प्राचीनतम व सार्व-कालीन श्रेष्ठ साहित्य,वैदिक-साहित्य में रोगी -चिकित्सक सम्बन्धों का विशद वर्णन है, जिसका पुनःरीक्षण करके हम समाज़ को नई गति प्र्दान कर सकते हैं।
चिकित्सक की परिभाषा--रिग्वेद(१०/५७/६) मे क्थन है--"यस्तैषधीः सममत राजानाःसमिता विव । विप्र स उच्यते भि्षगुक्षोहामीव चातनः ॥"--जिसके समीप व चारों ओर औषधिया ऐसे रहतीं हैं जैसे राजा के समीप जनता,विद्वान लोग उसे भैषजग्य या चिकित्सक कहते हैं। वही रोगी व रोग का उचित निदान कर सकता है। अर्थात एक चिकित्सक को चिकित्सा की प्रत्येक फ़ेकल्टी(विषय व क्षेत्र) ,क्रिया-कलापों,व्यवहार व मानवीय सरोकारों में निष्णात होना चाहिये।
रोगी व समाज का चिकित्सकों के प्रति कर्तव्य--देव वैद्य अश्विनी कुमारों को रिग्वेद में "धी जवना नासत्या" कहागया है, अर्थात जिसे अपनी स्वयम की बुद्धि व सत्य की भांति देखना चाहिये। अतःरोगी व समाज़ को चिकित्सक के परामर्श व कथन को अपनी स्वयम की बुद्धि व अन्तिम सत्य की तरह विश्वसनीय स्वीकार करना चाहिये। रिग्वेद के श्लोक १०/९७/४ के अनुसार---"औषधीरिति मातरस्तद्वो देवी रूप ब्रुवे । सनेयाश्वं गां वास आत्मानाम तव पूरुष ॥"--औषधियां माता की भंति अप्रतिम शक्ति से ओत-प्रोत होतीं हैं,हे चिकित्सक! हम आपको,गाय,घोडे,वस्त्र,ग्रह एवम स्वयम अपने आप को भी प्रदान करते हैं।अर्थात चिकित्सकीय सेवा का रिण किसी भी मूल्य से नहीं चुकाया जा सकता। समाज व व्यक्ति को उसका सदैव आभारी रहना चाहिये।
चिकित्सकों के कर्तव्य व दायित्व---
१. रोगी चिकित्सा व आपात चिकित्सा- रिचा ८/२२/६५१२-रिग्वेद के अनुसार--"साभिर्नो मक्षू तूयमश्विना गतं भिषज्यतं यदातुरं ।"-- अर्थात हे अश्विनी कुमारो! (चिकित्सको) आप समाज़ की सुरक्षा,देख-रेख,पूर्ति,वितरण में जितने निष्णात हैं,उसी कुशलता,व तीव्र गति से रोगी व पीढित व्यक्ति को आपातस्थिति में सहायता करें। अर्थात चिकित्सा व अन्य विभागीय कार्यों के साथ-साथ आपात स्थिति रोगी की सहायता सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
२. जन कल्याण- रिचा ८/२२/६५०६ के अनुसार--" युवो रथस्य परि चक्रमीयत इमान्य द्वामिष्ण्यति । अस्मा अच्छा सुभतिर्वा शुभस्पती आधेनुरिव धावति ॥"--हे अश्वनी कुमारो आपके दिव्य रथ( स्वास्थ्य-सेवा चक्र) का एक पहिया आपके पास है एक संसार में। आपकी बुद्धि गाय की तरह है।--चिकित्सक की बुद्धि व मन्तव्य गाय की भांति जन कल्याण्कारी होना चाहिये।उसे समाज व जन-जन की समस्याओं से भली-भांति अवगत रहना चाहिये एवम सदैव सेवा व समादान हेतु तत्पर।
३. रोगी के आवास पर परामर्श--रिग्वेद-८/५/६१००-कहता है- "महिष्ठां वाजसात्मेष्यंता शुभस्पती गन्तारा दाषुषो ग्रहम ॥"--गणमान्य,शुभ,सुविग्य,योग्य एवम आवश्यकतानुसार आप( अश्वनी कुमार-चिकित्सक) स्वयं ही उनके यहां पहुंचकर उनका कल्याण करते हैं।
४.-स्वयं सहायता( सेल्फ़ विजिट)--रिचा ८/१५/६११७-में कहा है--"कदां वां तोग्रयो विधित्समुद्रो जहितो नरा। यद्वा रथो विभिथ्तात ॥"--हे अश्विनी कुमारो! आपने समुद्र(रोग -शोक के ) में डूबते हुए भुज्यु( एक राजा) को स्वयं ही जाकर बचाया था, उसने आपको सहायता के लिये भी नहीं पुकारा था। अर्थत चिकित्सक को संकट ग्रस्त, रोग ग्रस्त स्थित ग्यात होने पर स्वयं ही ,विना बुलाये पीडित की सहायता करनी चाहिये।
यदि आज ी चिकित्सा जगत, रोगी ,तीमारदार,समाज सभी इन तथ्यों को आत्मसात करें,व्यवहार में लायें ,तो आज के दुष्कर युग में भी आपसी मधुरता व युक्त-युक्त सम्बन्धों को जिया जासकता है, यह कोई कठिन कार्य नहीं, आवश्यकता है सभी को आत्म-मंथन करके तादाम्य स्थापित करने की।
शनिवार, 22 अगस्त 2009
मीमांसा के सिद्दान्त,तर्क-संगत व सटीक --समाचार...हि.न्दुस्तान.........
क्या सटीक बात कही है आद.जज साहब काट्जू जी ने -कि लोग मेक्स्वेल आदि के सिद्दान्त आदि की बात तो करते हैं परंतु शब्दों की व्याख्या का ढाई हज़ार साल पुराने ’मीमान्सा ’ में दिये गये सिद्दान्तों की कोई बात नहीं करता, अदालतें भी इससे अनभिग्य हैं,उन्होने उदाहरण दिया "न कलंजं भक्ष्येत" अर्थात बासी खाना नही खाना चाहिये।
वस्तुतः मीमान्सा है क्या? वास्तव में आज कुछ गिने-चुने लोग ही जानते होन्गे।" मीमान्सा" भारतीय षड-दर्शन का एक अंग है जो महर्षि जैमिनी द्वारा रचित है। जो वेदों की वैयाकरणीय व्याख्या प्रस्तुत करती है जिसमें शब्दों, अर्थों,भावों के तात्विक अर्थों पर विचार किया गया है।ग्यान मीमान्सा व तत्व मीमान्सा द्वारा विभिन्न शब्दों के तत्वार्थ दिये गये हैं, छोटे-छोटे सूत्र रूप में। उदाहरणार्थ--सर्व आत्म वशं सुखं, -सुख मनुष्य के अपने मन के वश में है।
"अवैद्य्त्वाद भावः कर्मणि स्वात"-(६/१/३७)-विद्या का सार्थक भाव न होने से व्यक्ति शूद्र होता है। तथा: गुणार्थमिति चेत"(६/१/४८)--जाति का आधार योग्यता है। "अज़ " का अर्थ पुराने चावल न कि मांस भक्षी लोगों द्वारा कहा हुआ ,बकरा ।" तपश्चफ़ल सिद्धिष्वाल्लोकवत"(३/८/८)--यग्य कर्म केवल धन व्यय करना नहीं तप की मनोव्रित्ति होनी चाहिये-- आदि ।
सिद्धान्त-- मीमान्सा जीवन के कर्मवादी सिद्दान्त की व्याख्या करती है।उसके अनुसार भौतिक जगत जैसा दिखाई देता है वैसा ही है। धर्म-एक भौतिक नियम है,प्रत्येक व्यक्ति की पसन्द की बस्तु नहीं, नैतिक कर्तव्य ही धर्म है। जगत परमाणु की प्रत्यक्ष सत्ता है,गुण,कर्म,द्रव्य,समभाव, अभाव आदि पंच तत्वों से से सन्सार बना है।वह शब्द-प्रमाण व प्रमाणवाद की स्थापना करता है। फ़ल कर्म से मिलता है, वेद में जो ईश्वर का रूप है वही सत्य है।
मीमान्सा ईश्वर का वर्णन नहीं करता।
उद्देश्य--कर्म द्वारा ही ईश्वर व मोक्ष प्राप्ति। मानव जीवन का उद्देश्य-अभ्युदय,अर्थात सांसारिक उन्नति ,एवम निश्रेयस,अर्थात मोक्ष । कर्म द्वारा दुखः का नाश ही मोक्ष है।
मीमान्सा प्रत्येक शब्द व बस्तु, भाव,विचार ,तथ्य को विवेचनात्मक,विश्लेषणात्मक द्रष्टि से तौल कर कर्म करने का आदेश देती है। आधुनिक पाश्चात्य फ़िलासफ़ी में--मैटाफ़िज़िक्स(तत्व-मीमान्सा),एपिस्टोमोलोजी(प्रमाण मीमान्सा), एथिक्स(आचार मीमान्सा),ऐस्थेटिक्स(सौन्दर्य-मीमान्स)---मीमान्सा दर्शन के ही अन्ग हैं।
रविवार, 9 अगस्त 2009
वेदिक साहित्य में मानसिक स्वासथ्य व रोग...
रोग उत्पत्ति और विस्तार प्रक्रिया ( पेथो-फ़िज़िओलोजी)--अथर्व वेद का मन्त्र,५/११३/१-कहता है--
"त्रिते देवा अम्रजतै तदेनस्त्रित एतन्मनुष्येषु मम्रजे।ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे तां ते देवा ब्राह्मणा नाशयतु ॥"
मनसा, वाचा, कर्मणा,किये गये पापों (अनुचित कार्यों) को देव(इन्द्रियां), त्रित (मन,बुद्धि,अहंकार-तीन अंतःकरण)
में रखतीं है। ये त्रित इन्हें मनुष्यों की काया में (बोडी-शरीर) आरोपित करते है( मन से शारीरिक रोग उत्पत्ति--साइकोसोमेटिक ) । विद्वान लोग ( विशेषग्य) मन्त्रों (उचित परामर्श व रोग नाशक उपायों) से तुम्हारी पीढा दूर करें। गर्भोपनिषद के अनुसार--"व्याकुल मनसो अन्धा,खंज़ा,कुब्जा वामना भवति च ।"---मानसिक रूप से व्याकुल,पीडित मां की संतान अन्धी,कुबडी,अर्ध-विकसित एवम गर्भपात भी हो सकता है।
अथर्व वेद ५/११३/३ के अनुसार---
"द्वादशधा निहितं त्रितस्य पाप भ्रष्टं मनुष्येन सहि । ततो यदि त्वा ग्राहिरानशें तां ते देवा ब्राह्मणा नाशय्न्तु ॥"
त्रि त के पाप (अनुचित कर्म) बारह स्थानों ( १० इन्द्रियों,चिन्तन व स्वभाव-संस्कार-जेनेटिक करेक्टर) में आरोपित होता है, वही मनुष्य की काया में आरोपित होजाते हैं; इसप्रकार शारीरिक-रोग से >मानसिक रोगसे >शारीरिक रोग व अस्वस्थता का एक वर्तुल(साइकोसोमेटिक विसिअस सर्किल) स्थापित होजाता है।
निदान---
१. रोक-थाम(प्रीवेन्शन)--प्राण व मन के संयम (सेल्फ़ कन्ट्रोल) ही इन रोगों की रोक थाम का मुख्य बिन्दु हैं।रिग्वेद में प्राण के उत्थान पर ही जोर दिया गया है। प्राणायाम,हठ योग, योग, ध्यान, धारणा, समाधि, कुन्डलिनी जागरण,पूजा,अर्चना, भक्ति,परमार्थ, षट चक्र-जागरण,आत्मा-परमात्मा,प्रक्रति-पुरुष,ग्यान,दर्शन,मोक्ष की अवधारणा एवम आजकल प्रचलित भज़न,अज़ान,चर्च में स्वीकारोक्ति, गीत-संगीत आदि इसी के रूप हैं। अब आधुनिक विग्यान भी इन उपचारों पर कार्य कर रहा है।रिग्वेद १०/५७/६ में कथन है---
--"वयं सोम व्रते तव मनस्तनूष विभ्रतः। प्रज़ावंत सचेमहि ॥" हे सोम देव! हम आपके व्रतों(प्राक्रतिक अनुशासनों) व कर्मों (प्राक्रतिक नियमों) में संलग्न रहकर,शरीर को इस भ्रमणशील मन से संलग्न रखते हैं। आज भी चन्द्रमा (मून, लेटिन -ल्यूना) के मन व शरीर पर प्रभाव के कारण मानसिक रोगियों को ’ल्यूनेटिक’ कहा जाता है।--रिग्वेद के मंत्र-१०/५७/४ में कहा है--" आतु एतु मनः पुनःक्रत्वे दक्षाय जीवसे। ज्योक च सूर्यद्द्शे ।।"
अर्थात-श्रेष्ठ , सकर्म व दक्षता पूर्ण जीवन जीने के लिये हम श्रेष्ठ मन का आवाहन करते हैं।
२, उपचार--रिग्वेद-१०/५७/११ कहता है-" यत्ते परावतो मनो । तत्त आ वर्तयामसीह क्षयाम जीवसे॥"-आपका जो मन अति दूर चला गया है( शरीर के वश में नहीं है) उसे हम वापस लौटाते है। एवम रिग्वेद-१०/५७/१२ क कथन है-
"यत्ते भूतं च भवयंच मनो पराविता तत्त आ......।" , भूत काल की भूलों,आत्म-ग्लानि,भविष्य की अति चिन्ता आदि से जो आपका मन अनुशासन से भटक गया है, हम वापस बुलाते हैं । हिप्नोसिस,फ़ेथ हीलिन्ग,सजेशन-चिकित्सा,योग,संगीत-चिकित्सा आदि जो आधुनिक चिकित्सा के भाग बनते जारहे हैं, उस काल में भी प्रयोग होती थे।
३. औषधीय-उपचार--मानसिक रोग मुख्यतया दो वर्गों में जाना जाता था---(अ) मष्तिष्क जन्य रोग(ब्रेन --डिसीज़) -यथा,अपस्मार(एपीलेप्सी),व अन्य सभी दौरे(फ़िट्स) आदि--इसका उपचार था,यज़ुर्वेद के श्लोकानुसार--"अपस्मार विनाशः स्यादपामार्गस्य तण्डुलैः ॥"--अपामार्ग (चिडचिडा) के बीजों का हवन से अपस्मार का नाश होता है। ---(ब) उन्माद रोग ( मेनिया)--सभी प्रकार के मानसिक रोग( साइको-सोमेटिक)--
-अवसाद(डिप्प्रेसन),तनाव(टेन्शन),एल्जीमर्श( बुढापा का उन्माद),विभ्रम(साइज़ोफ़्रीनिया) आदि।इसके लिये यज़ुर्वेद का श्लोक है--"क्षौर समिद्धोमादुन्मादोदि विनश्यति ॥"-क्षौर व्रक्ष की समिधा के हवन से उन्माद रोग नष्ट होते है।
क्योंकि मानसिक रोगी औषधियों का सेवन नहीं कर पाते ,अतः हवन रूप में सूक्ष्म-भाव औषधि( होम्यो पेथिक डोज़ की भांति) दी जाती थी। आज कल आधुनिक चिकित्सा में भी दवाओं के प्रयोग न हो पाने की स्थिति में (जो बहुधा होता है) विद्युत-झटके दिये जाते हैं।
शनिवार, 8 अगस्त 2009
अवतार की अवधारणा----
वस्तुतः यह मनुष्य का स्वयं या सेल्फ़ ही है,जिसकी मानव मन की ,आत्म की उच्चतम विचार स्थिति में ’स्वयम्भू’ उत्पत्ति होती है। मानव का स्वयं( आत्म,आत्मा,जीवात्मा,सेल्फ़, अहं) उच्चतम स्थिति में परमात्म स्वरूप (ईश्वर-लय ) ही होजाता है। जैसा महर्षि अरविन्द अति-मानष की बात कहते हैं। वह अति-मानष ही ईश्वर रूप होकर अवतार बन जाता है। तभी तो विष्णु ( विश्व अणु, विश्वाणु, विश्व -स्थित परम अणु ) सदैवे मानवों में ही अवतार लेते हैं। परमार्थ-रत उच्चतम विचार युत मानव-आत्म (मानव) ही परमात्म-भाव -लय होकर अवतार -भाव होजाता है।
तभी तो भग्वान क्रष्ण कहते हैं--मैं मानव लीला इसलिये करता हूं कि मानव अपने को पहचाने,अपनी क्षमता को जानकर स्वयं को आत्मोन्नति के मार्ग पर लेजाये, समष्टि को सन्मार्ग दिखाये।
अतः मनुष्य का आत्म, स्वयं उन्नत होकर ईश लय भाव होकर स्वयं को(ईश्वरीय रूप में) स्रजित करता है,
इस प्रकार ईश्वर का अवतार होता है।
रविवार, 2 अगस्त 2009
परमा र्थ----
" भाइयो ! बहनो! भास्कर के समान तेजस्वी बनना चाहते हो तो उठो;
किसी से कुछ मत मांगो,अपना जो कुछ है वह प्राणी मात्र की सेवा मेंआज से ही उत्सर्ग करना प्रारंभ करदो । यादरखो,
गलने में ही उपलब्धि का मूल मंत्र है,जितना तुम औरों के लिये दोगे, उतना ही तुम्हें मिलेगा। मांगने से नहींमिलेगा।
-------अखंड ज्योति से साभार।
बुधवार, 29 जुलाई 2009
आत्म- कथा--’आत्म’ की कथा
जब न ब्रह्मांड था,न परम व्योम,न वायु,नकाल,न ग्यान,न सत-न असत ; कुछ भी नहीं था। चारों ओर सिर्फ़ अंधकार व्याप्त था; केवल मैं चेतन ही अकेला,स्वयं की शक्ति से ,गतिशून्य होकर स्थित था। कहां?, क्यों? कैसे? कोई नहीं जानता; क्योंकि मैं ही सत हूं,मैं ही असत हूं,मैं ही सर्वत्र व्याप्त स्वयंभू व परिभू हूं; सब कुछ मुझ में ही व्याप्त है। मैं आत्म हूं।
मैं अपने परम अव्यक्त रूप -असद रूप या नासद रूप में जब आकार रहित होता हूं, ’पर-ब्रह्म’ कहलाता हूं। इस रूप में, मैं -कारणों का कारण, कारण ब्रह्म हूं,जो अगुण,अक्रिय,अकर्मा,अविनाशी, सबसे परे-परात्पर एवं केवल द्रिष्टा -सब द्रष्टियों की द्रष्टि- हूं। मेरे रूप को सिर्फ़ मनीषी ,आत्मानुभूति से ही जान पाते हैं और "वेद" रूप में गान करते हैं। मैं अक्रिय,असद चेतन सत्ता,स्वयंभू,परिभू हूं’; मैं आत्म हूं।
जब श्रष्टि हित मेरा भाव सन्कल्प ’ओ३म’रूप में आदि-नाद बनकर उभरता है तो मैं, अक्रिय-असद सत्ता से; सक्रिय-सत-चेतन सत्ताके रूप में व्यक्त होकर ’सद-ब्रह्म’, परमात्मा,ईश्वर, सगुण-ब्रह्म या हिरण्यगर्भ कहलाता हूं;जिसमें सब कुछ अन्तर्निहित है। मैं आत्म हूं।
हिरण्यगर्भ रूप में ,जब मैं श्रष्टि को प्रकट करने की इच्छा करता हूं तो-" एकोहं बहुस्याम" की ईषत इच्छा,पुनः ’ओ३म’ रूप में प्रतिध्वनित होकर, मुझमें अन्तर्निहित अव्यक्त मूल-प्रक्रिति,आदि-ऊर्ज़ा को व्यक्त रूप में अवतरित करदेती है और वह ’माया’ या ’आदि-शक्ति’ के रूप में प्रकट व क्रियाशील होकर,जगत व प्रक्रति की रचना के लिये,ऊर्ज़ा तरंगों, विभिन्न कणों एवं भूतों की रचना करती है; और मैं प्रत्येक कण में उनका ’आत्म’ बनकर प्रवश करजाता हूं,जड,जन्गम,जीव ,सभी में।मैं आत्म हूं।
जड रूप श्रष्टि में -भौतिक विग्यानी,मुझे केवल ’एटम’ या परमाणु तक ही पहचानते हैं, यद्यपि मैं परमाणु का भी चेतन-आत्म हूं। चेतन-रूप स्रष्टि में-मैं,जीव,जीवात्मा,आत्मा या चेतना के रूप में प्रवेश करता हूं,जिसे जीवन या जीवित-सत्ता कहा जाता है;प्राण्धारी व प्राण भी।इस रूप में, मैं-माया के प्रभाव में बिभिन्न अच्छे-बुरे सान्सारिक कर्मों में लिप्त होता हूं और जन्म-मरण के असन्ख्य चक्रों में घूमता हूं, सुख-दुख भोगता हूं, जब तक अलिप्त-अकाम्य कर्मोंके कारण’मोक्ष’ अर्थात माया बन्धन से छुटकारा न मिले। मैं आत्म हूं।
मैं जीव,जीवात्मा या प्राणी के रूप मेंजब अपने बहुत से सत्कर्मों का संचय कर लेता हूं तो प्रक्रति की सर्वश्रेष्ठ क्रति--जिसे ग्यान,मन,बुद्धि व सन्स्कार उपहार में मिलते हैं--मानव, मेन या आदम,के रूप में जन्म धारण करता हूं। इस रूप में, मैं स्वयं को माया बंधन से मुक्त करके,"मोक्ष" प्राप्त करने का प्रयत्न करताहूं और स्वयं को सत-व्यक्त ब्रह्म,हिरण्यगर्भ में लीन करदेता हूं एवम ’परम-आत्म ’ कहलाता हूं। लय या प्रलय के समय मैंपुनः "अनेक से एक" होने की इच्छा करता हुआ,प्रक्रति व माया लीन हिरण्यगर्भ को स्वयं मेंलीन करके पुनः अक्रिय,असद,परमसत्ता-"पर-ब्रह्म" बनकर अव्यक्त बनजाता हूं। मैं आत्म हूं।
रविवार, 19 जुलाई 2009
वेद ,विद्या,अविद्या,,विज्ञान, दर्शन,धर्म---
""अन्धतमः प्रविशन्ति ये अविद्यामुपासते
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्याया रताः॥""
यहां विद्या , अर्थात ग्यान -ईश्वर,आत्म,ब्रह्म के वारे में ग्यान;( दर्शन,धर्म,सदाचरण आदि)
तथा अविद्या ,अर्थात अग्यान-समस्त सान्सारिक ग्यान,अर्थात कर्म। उपनिषद्कार का कथन है-जो लोग अविद्या ,अर्थात सान्सारिक ग्यान, कर्म में ही फ़ंसे रहते हैं,वास्तविक ग्यान को नहीं समझते वे घोर कठिनाई मे घिरॆ रहते हैं। तथा जो लोग सिर्फ़ आत्म विद्या में ही रत रहते हैं,सान्सारिक विद्या व कर्म से विमुख रहते हैं वे औए भी अधिक कष्टों में पडते हैं। पुनः कहागया है---
"
""विद्यांचाविद्यां च यस्तद वेदोभय सह। अविद्यया म्रित्युं तीर्त्वा विद्ययाम्रतमश्नुते॥""
अर्थात विद्या(ग्यान) एवम अविद्या( कर्म,सान्सारिक ग्यान) को जो साथ साथ जानता है,वह अविद्या से म्रत्यु को जीत कर ,विद्या से अमरता को प्राप्त करता है।
भारतीय विचार धारा सटीक व पूर्ण वैग्यानिक है, यदि कोई काम -धाम नहीं करेगा बस भजन ध्यान ,ग्यान,दर्शन सत्सन्ग में ही लगा रहेगा तो खायेगा क्या? और यदि वह सिर्फ़ कमाने खाने में लगा रहेगा उचित ग्यान,विग्यान, दर्शन, मानवता,ईश्वर,धर्म पर नहीं सोचेगा तो आत्माभिमानीं ,अहन्कारी होकर घोर कष्टों का सामना करेगा।
विग्यान अर्थात विशिष्ट ग्यान, यह भी अविद्या के अन्तर्गत है,प्रत्येक वस्तु ,पदार्थ,प्रक्रति(विभु-द्रश्य जगत) के वारे में व्याख्या करते करते अणु(लघु) तक पहुंचना( तत्पश्चात ईश्वर,जीव अद्रश्य- के बारे में विचार करने पर यह विद्या में समाहित होजाता है) साइन्स-लेटिन-scio-से बना है इसका अर्थ हैजानना।knowledge on specific subject.( letin scientia=knowledge) |वस्तुतः लेटिन में साइन्स शब्द , भारतीय "सांख्य" से गया है,जो एक प्रसिद्ध भारतीय दर्शन है तथा बस्तु के विश्लेषण से सम्बन्धित है।
दर्शन अर्थात द्र्ष्टि, लघु( आत्म,ब्रह्म,जीव,माया -अद्रश्य ,द्र्ष्टि की द्र्ष्टि, पर ब्रह्म) के बारे में व्याख्या करते करते विभु( मानव,प्रक्रति,व्यवहार ,सदाचरण द्वारा ईश्वरीय महत्ता को जानना, प्रत्येक अणु व विभु के लिये व्यापक द्रष्टि ग्यान।
वस्तुतः ईश्वर की खोज दोनों का ही मन्तव्य है,क्योंकि ईश्वर स्वयम----अणो अणीयान महतो महीयान है। अणु व विभु दोनो में समाहित।
धर्म- दर्शन व विग्यान दोनों में समन्वय करता है, ऊपर श्लोक "विद्या च अविद्या..." के अनुसार अति दर्शन, अति भौतिकता से मानव को रोकता है।
बुधवार, 15 जुलाई 2009
उद्देश्य---इस चिट्ठे का--
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फ़ॉलोअर
विग्यान ,दर्शन व धर्म के अन्तर्सम्बन्ध
- drshyam
- लखनऊ, उत्तर प्रदेश, India
- --एक चिकित्सक, शल्य-विशेषज्ञ जिसे धर्म, दर्शन, आस्था व सान्सारिक व्यवहारिक जीवन मूल्यों व मानवता को आधुनिक विज्ञान से तादाम्य करने में रुचि व आस्था है।