शनिवार, 8 अगस्त 2009

अवतार की अवधारणा----

गीता में श्री क्रष्ण कहते हैं---’तदात्मानाम स्रजाम्य्हम’ वह कौन -अहं या मैं, है ,जो स्वयं को स्रजित करता है,जब-जब अधर्म बढ्ता है??
वस्तुतः यह मनुष्य का स्वयं या सेल्फ़ ही है,जिसकी मानव मन की ,आत्म की उच्चतम विचार स्थिति में ’स्वयम्भू’ उत्पत्ति होती है। मानव का स्वयं( आत्म,आत्मा,जीवात्मा,सेल्फ़, अहं) उच्चतम स्थिति में परमात्म स्वरूप (ईश्वर-लय ) ही होजाता है। जैसा महर्षि अरविन्द अति-मानष की बात कहते हैं। वह अति-मानष ही ईश्वर रूप होकर अवतार बन जाता है। तभी तो विष्णु ( विश्व अणु, विश्वाणु, विश्व -स्थित परम अणु ) सदैवे मानवों में ही अवतार लेते हैं। परमार्थ-रत उच्चतम विचार युत मानव-आत्म (मानव) ही परमात्म-भाव -लय होकर अवतार -भाव होजाता है।
तभी तो भग्वान क्रष्ण कहते हैं--मैं मानव लीला इसलिये करता हूं कि मानव अपने को पहचाने,अपनी क्षमता को जानकर स्वयं को आत्मोन्नति के मार्ग पर लेजाये, समष्टि को सन्मार्ग दिखाये।
अतः मनुष्य का आत्म, स्वयं उन्नत होकर ईश लय भाव होकर स्वयं को(ईश्वरीय रूप में) स्रजित करता है,
इस प्रकार ईश्वर का अवतार होता है।

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लखनऊ, उत्तर प्रदेश, India
--एक चिकित्सक, शल्य-विशेषज्ञ जिसे धर्म, दर्शन, आस्था व सान्सारिक व्यवहारिक जीवन मूल्यों व मानवता को आधुनिक विज्ञान से तादाम्य करने में रुचि व आस्था है।