गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

वैदिक युग में दाम्पत्य बधन ----

वैदिक युग में दाम्पत्य बंधन

( डा श्याम गुप्त )

विशद रूप में दाम्पत्य भाव का अर्थ है,दो विभिन्न भाव के तत्वों द्वारा अपनी अपनी अपूर्णता सहित आपस में मिलकर पूर्णता व एकात्मकता प्राप्त करके विकास की ओर कदम बढाना। यह सृष्टि का विकास भाव है ।प्रथम सृष्टि का आविर्भाव ही प्रथम दाम्पत्य भाव होने पर हुआ । शक्ति-उपनिषद क श्लोक है—“ स वै नैव रेमे तस्मादेकाकी न रमते स द्वितीयमैच्छत। सहैता वाना स। यथा स्त्रीन्पुन्मासो संपरिस्वक्तौ स। इयमेवात्मानं द्वेधा पातपत्तनः पतिश्च पत्नी चा भवताम।“

अकेला ब्रह्म रमण न कर सका, उसने अपने संयुक्त भाव-रूप को विभाज़ित किया और दोनों पति-पत्नी भाव को प्राप्त हुए। यही प्रथम दम्पत्ति स्वयम्भू आदि शिव व अनादि माया या शक्ति रूप है जिनसे समस्त सृष्टि का आविर्भाव हुआ। मानवी भव में प्रथम दम्पत्ति मनु व शतरूपा हुए जो ब्रह्मा द्वारा स्वयम को स्त्री-पुरुष रूप में विभाज़ित करके उत्पन्न किये गये, जिनसे समस्त सृष्टि की उत्पत्ति हुई। सृष्टि का प्रत्येक कण धनात्मक या ऋणात्मक ऊर्ज़ा वाला है, दोनों मिलकर पूर्ण होने पर ही, तत्व एवम यौगिक एवम पदार्थ की उत्पत्ति व विकास होता है।

विवाह संस्था की उत्पत्ति से पूर्व दाम्पत्य-भाव तो थे परन्तु दाम्पत्य-बंधन नहीं थे;स्त्रियां अनावृत्त स्वतन्त्र आचरण वाली थीं, स्त्री-पुरुष स्वेच्छाचारी थे। मर्यादा न होने से आचरणों के बुरे व विपरीत परिणाम हुए। अतः श्वेतकेतु ने सर्वप्रथम विवाह संस्थारूपी मर्यादा स्थापित की। वैदिक साहित्य में दाम्पत्य बंधन की मर्यादा,सुखी दाम्पत्य व उसके उपलब्धियों का विशद वर्णन है। यद्यपि आदि युग में विवाह आवश्यक नही था, स्त्रियां चुनाव के लिये स्वतन्त्र थीं। विवाह करके गृहस्थ- संचालन करने वाले स्त्रियां-सद्योवधू- व अध्ययन-परमार्थ में संलग्न स्त्रियां –ब्रह्मवादिनी- कहलाती थी। यथा—शक्ति उपनिषद में कथन है—

“द्विविधा स्त्रिया ब्रह्मवादिनी सद्योवध्वाश्च। अग्नीन्धन स्वग्रहे भिक्षाकार्य च ब्रह्मवादिनी।

पुरुष भी स्वयं अकेला पुरुष नहीं बनता अपितु पत्नी व संतान मिलकर ही पूर्ण पुरुष बनता है। अतः दाम्पत्य भाव ही पुरुष को भी संपूर्ण करता है। यजु.१०/४५ में कथन है—

“एतावानेन पुरुषो यजात्मा प्रतीति। विप्राः प्राहुस्तथा चैतद्यो भर्ता सांस्म्रतांगना ॥“

दाम्पत्य जीवन में प्रवेश से पहले स्त्री पुरुष पूर्ण रूप से परिपक्व, मानसिक, शारीरिक व ग्यान रूप से , होने चाहिये। उन्हे एक दूसरे के गुणों को अच्छी प्रकार से जान लेना चाहिये। सफ़ल दाम्पत्य स्त्री-पुरुष दोनों पर निर्भर करता है, भाव विचार समन्वय व अनुकूलता सफ़लता का मार्ग है। ऋग्वेद ८/३१/६६७५ में कथन है—“या दमती समनस सुनूत अ च धावतः । देवासो नित्य यशिरा ॥“- जो दम्पत समान विचारों से युक्त होकर सोम अभुसुत ( जीवन व्यतीत) करते हैं, और प्रतिदिन देवों को दुग्ध मिश्रित सोम ( नियमानुकूल नित्यकर्म) अर्पित करते है, वे सुदम्पति हैं।

पति चयन का आधार भी गुण ही होना चाहिये। ऋग्वेद १०/२७/९०६ में कहा है—कियती योषां मर्यतो बधूनांपरिप्रीत मन्यका। भद्रा बधूर्भवति यत्सुपेशाः स्वयं सामित्रं वनुते जने चित ॥---कुछ स्त्रियां पुरुष के प्रसंशक बचनों व धनसंपदा को पति चयन का आधार मान लेती हैं, परन्तु सुशील, श्रेष्ठ, स्वस्थ भावनायुक्त स्त्रियांअपनी इच्छानुकूल मित्र पुरुष को पति रूप में चयन करती हैं। पुरुष भी पूर्ण रूप से सफ़ल व समर्थ होने पर ही दाम्पत्य जीवन में प्रवेश करें—अथर्व वेद-१०१/६१/१६०० मन्त्र देखिये-

“ आ वृ षायस्च सिहि बर्धस्व प्रथमस्व च । यथांग वर्धतां शेपस्तेन योहितां मिज्जहि ॥“

हे पुरुष! तुम सेचन में समर्थ वृषभ के समान प्राणवान हो, शरीर के अन्ग सुद्रढ व वर्धित हों। तभी स्त्री को प्राप्त करो।

पति-पत्नी में समानता ,एकरूपता, एकदूसरे को समझना व गुणो का सम्मान करना ही सफ़ल दाम्पत्य का लक्षण है। ऋग्वेद -१/१२६/१४३० में पति का कथन है—

“ अगाधिता परिगधिता या कशीकेव जन्घहे। ददामि मह्यंयादुरे वाशूनां भोजनं शताः॥“ मेरी सहधर्मिणी मेरे लिये अनेक एश्वर्य व भोग्य पधार्थ उपलब्ध कराती है, यह सदा साथ रहने वाली गुणों की धारक मेरी स्वामिनी है। तथा पत्नी का कथन है—

“ उपोप मे परा म्रश मे दभ्राणि मन्यथाः। सर्वाहस्मि रोमशाः गान्धारीणा मिवाविका ॥“-१/१२६/१६२५.

मेरे पतिदेव मेरा बार बार स्पर्श करें, परीक्षा लें, देखें; मेरे कार्यों को अन्यथा न लें । मैं गान्धार की भेडो के रोमों की तरह गुणों स युक्त हूं ।

नारी पुरुष समानता , अधिकारों के प्रति जागरूकता, कर्तव्यों के प्रति उचित भाव भी दाम्पत्य सफ़लता का मन्त्र है। पत्नी की तेजश्विता व पति द्वारा गुणों का मान देखिये—.ऋग्वेद १०/१५६/१०४२० का मन्त्र-

“अहं केतुरहं मूर्धामुग्रा विवाचनी। ममेदनु क्रतु पति: सेहनाया आचरेत॥“ ----मैं गृहस्वामिनी तीब्र बुद्धि वाली हूं, प्रत्येक विषय पर विवेचना( परामर्श)देने में समर्थ हूं; मेरे पति मेरे कार्यों का सदैव अनुमोदन करते हैं। तथा—“अहं बदामि नेत तवं, सभामानह त्वं बद:। मेयेदस्तंब केवलो नान्यांसि कीर्तियाशचन॥“---हे स्वामी!

सभा में भले ही आप बोलें परन्तु घर पर मैं ही बोलूंगी; उसे सुनकर आप अनुमोदन करें। आप सदा मेरे रहें अन्य का नाम भी न लें। पुरुषॊ द्वारा नारी का सम्मान व अनुगमन भी सफ़ल दाम्प्त्य का एक अनन्य भाव है, तेजस्वी नारी की प्रशन्सा व अनुगमन सूर्य जैसे तेजस्वी व्यक्ति भी करते हैं—रिग.१/११५ में देखें-“

“सूर्य देवीमुषसं रोचमाना मर्यो नयोषार्मध्येति पश्चात। यत्रा नरो देवयंतो युगानि वितन्वते प्रति भद्राय भद्रय॥

प्रथम दीप्तिमानेवम तेजश्विता युक्त उषा देवी के पीछे सूर्य उसी प्रकार अनुगमन करते हैं जैसे युगों से मनुष्य व देव नारी का अनुगमन करते हैं । समाज़ व परिवार में पत्नी को सम्मान व पत्नी द्वारा पति के कुटुम्बियों व रिश्तों क सम्मान दाम्पत्य सफ़लता की एक और कुन्जी है-रिग.१०/८५/९७१२ का मन्त्र देखें---

सम्राग्यी श्वसुरो भव सम्राग्यी श्रुश्रुवां भवं ।ननन्दारि सम्राग्यी भव, सम्राग्यी अधि देब्रषु ॥“ –हे वधू! आप सास, ससुर, ननद, देवर आदि सबके मन की स्वामिनी बनो।

ऋग्वेद के अन्तिम मन्त्र में, समानता का अप्रतिम मन्त्र देखिये जो विश्व की किसी भी क्रिति में नहीं है— ऋग्वेद -१०/१९१/१०५५२/४---

समानी व आकूति: समाना ह्रदयानि वा। समामस्तु वो मनो यथा वः सुसहामति॥----हे पति-पत्नी! तुम्हारे ह्रदय मन संकल्प( भाव विचार कार्य) एक जैसे हों ताकि तुम एक होकर सभी कार्य- गृहस्थ जीवन- पूर्ण कर सको।

इस प्रकार सफ़ल दाम्पत्य का प्रभाव व उपलब्धियां अपार हैं जो मानव को जीवन के लक्ष्य तक ले जाती है। ऋषि कहता है—पुत्रिणा तद कुमारिणाविश्वमाव्यर्श्नुतः। उभा हिरण्यपेशक्षा ॥. ऋग्वेद ८/३१/६६७९ –इस प्रकार वे दोनों( सफ़ल दम्पति ) स्वर्णाभूषणों व गुणों ( धन पुत्रादि बैभव) से युक्त होकर र्संतानों के साथ पूर्ण एश्वर्य व आयुष्य को प्राप्त करते हैं। एवम—८/३१/६६७९—वीतिहोत्रा क्रत्द्वया यशस्यान्ताम्रतण्यकम”—देवों की उपासना करके अन्त में अमृतत्व प्राप्त करते हैं।

------- डा श्याम गुप्ता, सुश्यानिदी, के-३४८, आशियाना, लखनऊ-२२६०१२. मो-०९४१५१५६४६४.

विजानाति-विजानाति-----मनन...

छान्दोग्य उपनिषद में कथन है---
""यदा वै मनुत, अथ विजानाति। नामत्वा विजानाति। मत्वैव विजानाति । मतिस त्येव विजिग्यासितव्येति ।मतिं भगवो विजिग्यासे इति॥""
---व्यक्ति जब मनन करता है तभी ( किसी वस्तु-भाव का) ग्यान होता है ; मनन किये विनानहीं जान सकता। अत: मनन को जानने की इच्छा करें कि भगवन, मैं मनन को जानाना चाहता हूं ।
---किसी वस्तु की वास्तविकता व गहराई जानने हेतु उसमें डुबकी लगाना आवश्यक होता है।मनन क्या है यह भी ठीक प्रकार से जानना चाहिये।
----मनन -मानव का विशिष्ट गुण है इसीलिये वह मानव कहलाता है




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मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

भविष्य का महा-मानव (जीवन, जीव व मानव:भाग-३)

भविष्य का महा-मानव (जीवन, जीव व मानव: भाग-३)

यदि जीव-सृष्टि का क्रमिक विकास ही सत्य है तो प्रश्न उठता है कि मानव के बाद क्या? व कौन? यद्यपि अध्यात्म व वैदिक विज्ञान जब यह कहता है कि मानव, सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ तत्व है, जो धर्म अर्थ काम व मोक्ष –चारों पुरुषार्थ में सक्षम है, तो संकेत मिलता है कि मानव अन्तिम सोपान है; हां इससे आगे युगों--सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग व कल्प, मन्वन्तर आदि—के वर्णन से स्वयम मानव के ही पुनः पुनः सदगुणों, विचारों, भावनाओं, संवेदनाओं आदि में अधिकाधिक श्रेष्ठ होते जाने के विकास-क्रम का भी संकेत प्राप्त होता है, अविकसित मानव से मानव से महामानव तक।

विज्ञान के अनुसार विकास की बात करें तो आज आधुनिक विज्ञान व तकनीक शास्त्र के महाविकास ने मानव के हाथ में असीम सत्ता सौंप दी है। वह चांद पर अपने पदचिन्ह छोडकर,अपने कदम मंगल, शुक्र आदि अन्य ग्रहों की ओर बढा चुका है।

उसने हाल ही में जल से युक्त अन्य ग्रह भी खोज निकाला है और अब शायद जीवन युक्त ग्रह की खोज भी दूर नहीं है। यह एक अहम विजय है। वह शरीर में गुर्दे, फ़ेंफ़डे, यकृत, ह्रदय आदि बदलने में सफ़ल हुआ है व महान संहारक रोगों पर भी विजय पाई है। हां, इन सफ़लताओं के साथ उसने अणु-शस्त्र , रासायनिक व विषाणु बम भी बनाये हैं जो सारी मानव जातिव दुनिया को नष्ट करने में सक्षम हैं।

इस प्रकार वह मानव जिसने मध्य युग में विश्व भर में अपने भाइयों के खून से हाथ रंगे थे, आज विज्ञान के सहयोग से प्रकृति विजय का भागीरथ प्रयत्न कर रहा है। साथ ही आज विज्ञान कथाओं, सीरिअल्स, सिनेमा आदि में, रोबोट, मानव-पशुओं, विचित्र प्राणियों की कथाओं की कल्पना की जा रही है जो मानव+पशु आदि की सृष्टि का सत्य भी बन सकती है।

प्राणी क्लोन की सफ़लता मानव क्लोन में बदलकर शायद भविष्य की मानवेतर-सृष्टि का, विकास-क्रम हो सकती है। यद्यपि यह सभी मानवेतर सृष्टि वैदिक विज्ञान /भारतीय साहित्य में पहले से ही वर्णित है। सृष्टा, ब्रह्मा का ही एक पुत्र--त्वष्टा ऋषि - यज्ञ द्वारा इस प्रकार की प्राणी-सृष्टि की रचना करने लगा था—मानव का सिर+पशु का धड आदि। इससे सामान्य सृष्टि के नियम व संचालन, संचरण में बाधा आने लगी थी। वे न प्राणी थे न मानव न देव अपितु दैत्य श्रेणी के थे। त्रिशिरा नामक तीन सिर वाला प्राणी (देव=दैत्य=मानव ) उसी त्वष्टा का पुत्र था जिसका इन्द्र ने बध किया, तदुपरान्त ब्रह्माने शाप द्वारा त्वष्टा का ऋषित्व ( विद्या, ज्ञान) छीन लिया गया। शायद प्रकृति माता को यह असंयमित विकास मन्जूर नहीं था, और आज भी नहीं होगा।

प्रश्न उठता है कि इस असीम सत्ता की विज्ञान रूपी कुन्जी को मानव के हाथ में सौंपने वाला कौन है? क्या ईश्वर?-जैसा अध्यात्म कहता है कि, सब का श्रोत वही है, पूर्ण, संपूर्ण,सत्य, सनातन, ऋत सत्य– उसी से सब उत्पन्न होता है, उसी से आता है, उसी में जाता है, वह सदैव पूर्ण रहता है। यथा --

" पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्ण्मुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥"

या अध्यात्म, या ज्ञान या आधुनिक विज्ञान या मानव-मन जो महाकाश है, अनंत शक्ति का भन्डार? वस्तुतः वह है स्वयम मनुष्य का सर्वोत्तम विकसित मस्तिष्क—प्रमस्तिष्क (सेरीब्रम—cerebram-उच्चमस्तिष्क), जिसने मानव को समस्त प्राणियों से सर्वोपरि बनाया है।

प्रमस्तिष्क ही मानव मस्तिष्क में उच्च क्षमताओं, विद्वता, उच्च संवेदनाओं ,प्रेरणाओं का केन्द्र है। परन्तु यह विद्वता व क्षमता जिसने मानव के हाथ में असीम शक्ति दी है, उसके स्वयम के लिये अभिशाप भी हो सकती है, डिक्टेटरों व परमाणु-बम की भांति विनाश का कारण भी। अतः मानव जाति को विनाश से बचाने हेतु, प्रकृति - माता (जो अपने पुत्र, मानव, की भांति क्रूर नहीं हो सकती एवम उसे अपनी आज्ञा पर अपने अनुकूलन में सम्यग व्यवहार से चलाने का यत्न करती आई है) ने कदम बढाया है। यह कदम मानव मस्तिष्क में एक एसे केन्द्र को विकसित करना है जो मानव को आज से भी अधिक विवेकशील सामाज़िक,सच्चरित्र, संयमित, विचारवान, संस्कारशील,व्यवहारशील व सही अर्थों में महामानव बनायेगा। वह केन्द्र है—प्रमस्तिष्क में विकसित भाग –बेसल नीओ कार्टेक्स (basal neo cortex)।

मानव के जटिल मस्तिष्क के तुलनात्मक अध्ययन व शोधों से ज्ञात हुआ है कि मछली में प्रमस्तिष्क केवल घ्राणेन्द्रिय तक सीमित है; रेंगने वाले ( रेप्टाइल्स) जन्तुओं में बडा व विकसित; स्तनपायी जन्तुओं( चौपाये आदि मेमल्स) में वह पूर्ण विकसित है। इनमे प्रमस्तिष्क एक विशेष प्रकार की कोशिकाओं की पर्तों से बना होता है जिसे कोर्टेक्स (cortex) कहा जाता है। उच्चतम स्तनपायी मानव मस्तिष्क में ये पर्तें वहुत ही अधिक फ़ैली हुई व अधिकाधिक जटिलतम होती जातीं हैं; एवम बहुत ही अधिक वर्तुलित( folded) होकर बहुत ही अधिक स्थान घेरने लगती हैं।(चित्र-१. व २.) बुद्धि, ज्ञान, उच्च भावनाएं आदि प्रमस्तिष्क( सेरीब्रम या cerebral cortex) की इन्ही पर्तों की मात्रा पर आधारित होता है। मानव में यह भाग अपने प्रमस्तिष्क का २/३( सर्वाधिक) होता है और मनुष्य में सर्वाधिक ज्ञान व विवेक का कारण।

प्रो.ह्यूगो स्पेत्ज़ व मस्तिष्क -विज्ञानी वान इलिओनाओ के अध्ययनो के अनुसार प्रमस्तिष्क के विकासमान भाग कंकाल बक्स के आधार पर होते हैं, वे कंकाल के सतह पर अपने विकास के अनुसार छाप छोडते हैं इन्ही के अध्ययन से मस्तिष्क के विकासमान भागों का पता चलता है।

इन वैज्ञानिकों के अध्ययनो से से पता चलता है कि मानव मस्तिष्क अभी अपूर्ण है तथा मानव के प्रमस्तिष्क के आधार भाग में एक नवीन भाग (केन्द्र) विकसित होरहा है जो मानव द्वारा प्राप्त उच्च मानसिक अनुभवों, संवेगों, विचारों व कार्यों का आधार होगा।

यह नवीन विकासमान भाग प्रमस्तिष्क के अग्र व टेम्पोरल भागों के नीचे कंकाल बक्स (क्रेनियम-cranium) के आधार पर स्थित है। इसी को बेसल नीओ कार्टेक्स (basal neo cortex) कहते हैं। प्राइमरी होमो सेपियन्स (प्रीमिटिव मानव) में यह भाग विकास की कडी के अन्तिम सोपान पर ही दिखाई देता है व भ्रूण के विकास की अन्तिम अवस्था में बनता है।

पूर्ण मानव कंकाल में यह गहरी छाप छोडता है। बेसल नीओ कार्टेक्स के दोनों भागों को निकाल देने या छेड देने पर केवल मनुष्य के चरित्र व मानसिक विकास पर प्रभाव पडता है, अन्य किसी अंग व इन्द्रिय पर नहीं । अतः यह चरित्र व भावना का केन्द्र है।

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि भविष्य में इस नवीन केन्द्र के और अधिकाधिक विकसित होने से एक महामानव (यदि हम स्वयम मानव बने रहें तो) का विकास होगा (इसे महर्षि अरविन्द के अति-मानस की विचार धारा से तादाम्य किया जा सकता है); जो चरित्र व व्यक्तित्व मे मानवीय कमज़ोरियों से ऊपर होगा, आत्म संयम व मानवीयता को समझेगा, मानवीय व सामाज़िक संबंधों मे कुशल होगा और भविष्य में मानवीय भावनाओं के विकास के महत्व को समझेगा।

अतः मानव मस्तिष्क के इस नव-विकसित भाग का ज्ञान अत्यन्त महत्वपूर्ण है क्योकि यह निम्न स्तर के व्यक्तियों के हाथों मे असीम शक्ति पड जाने से उत्पन्न, मानव जाति के अंधकारमय भविष्य के लिये एक आशा की किरण है। इस अंतरिक्ष विकास, अणु शस्त्रों के युग, पर्यावरण- प्रकृति विनाश व विनाशकारी अन्धी दौड व होड के युग में भी मानव जाति के जीवित रहने का संदेश है। विज्ञान की यह देन भी वस्तुतः प्रकृति मां का जुगाड है, अपने पुत्र मानव को स्वयं-विनाश से बचाने हेतु; एवम त्वष्टाओं को शक्ति हीन करने हेतु।

(चित्र: डा श्याम गुप्त)

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लखनऊ, उत्तर प्रदेश, India
--एक चिकित्सक, शल्य-विशेषज्ञ जिसे धर्म, दर्शन, आस्था व सान्सारिक व्यवहारिक जीवन मूल्यों व मानवता को आधुनिक विज्ञान से तादाम्य करने में रुचि व आस्था है।