ये मेरी संस्कृति जो है
जी हाँ, बात हो रही है मेरी संस्कृति
की, भारतीय संस्कृति की ...जो अद्भुत
है, अनन्यतम है, विविधाओं से युक्त है, जिसकी कोई एक
किताब, एक नियम, एक अकेली राह नहीं है | जिसके सारे भगवान-भगवती, देवी-देवता ...विवाहित
हैं, बाल बच्चेदार हैं. एक पत्नी व्रत भी...बहु पत्नी वाले भी ..कर में शस्त्र,
शास्त्र, पुष्प, वीणा, माला, शंख अदि लिए हुए हैं ...कोई मृगछाला लपेटे...कोई
गहनों से लदे हुए हैं| भोग में लिप्त हैं, परम वैरागी भी हैं...मर्यादा पुरुषोत्तम
हैं...मर्यादा तोड़ने वाले प्रेम-क्रीडा युत लीलाधर भी | योगेश्वर भी हैं ...विभिन्न
युद्ध करते हुए, महान योद्धा भी...रणछोड़ भी | अव्यक्त परब्रह्म भी है..व्यक्त
ब्रह्म-ईश्वर भी ...सत भी असत भी ..जो सृष्टि सृजन हेतु वीर्य-निषेचन...गर्भ का
आधान भी करता है ... .मायापति भी है, माया बंधन में बंधा माया का दास भी ...नीति-नियम
बंधनों से युक्त भी, स्वच्छंदता-अनियमितताओं से भरपूर भी..जिसे विरोधी अज्ञानी जन
विकृतियाँ भी कहते हैं.... फिर भी वह सदा
सर्वदा पूर्ण है ....
“पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते |
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते
||”
यह विश्ववारा संस्कृति है..क्योंकि
इस के जन्मदाता प्रथम मानव इसी भारत भूमि से
उद्भूत व सम्बंधित हैं...प्रथम मानव यहीं जन्मे, पले, इस उन्नत संस्कृति को
जन्म दिया एवं यहीं से समस्त विश्व में फैले...प्रगति का गीत सजाते हुए | अतः यह बहुआयामी संस्कृति है जो मानव
जीवन के वैविध्य, आचरण व चरित्र के तात्विक ज्ञान को प्रस्तुत करती है | जहाँ अन्य संस्कृतियाँ व धर्म एकांगी हैं अपूर्ण
हैं..जीवन के ज्ञान को अत्यंत सतही रूप में प्रस्तुत करती हैं अतः नष्ट व नष्ट
प्रायः होती रहती हैं वहीं भारतीय संस्कृति बहुआयामी जीवन की समस्त तत्वों की गहन
तात्विक व्याख्या व उच्चतम ज्ञान को प्रस्तुत करती है ...अतः वह शाश्वत है, सनातन
है ...यही सनातन धर्म भी है ...तभी कहा जाता है ..धर्म की जड़ सदा हरी...|
वेदों..उपनिषदों व पुराणो आदि में जो
विभिन्न आख्यानों, कथाओं, उदाहरणों का वर्णन है जिन्हें अज्ञान वश आलोचनाओं का
शिकार बनाया जाता है वे वास्तव में जीवन व व्यवहार के उच्चतम ज्ञान से परिपूर्ण
तथ्यों की सांकेतिक भाषा में प्रस्तुतियां हैं | उदाहरण स्वरुप हम यहाँ दो
दृष्टान्तों का मूल तात्विक व्याख्या स्वरुप प्रस्तुत करेंगे|
१.ब्रह्मा का
अरस्वती पर आसक्त होना....कथा है की
सृष्टिकर्ता ब्रह्मा सरस्वती ( ज्ञान की देवी...कहीं कहीं शतरूपा भी कहा गया है )
के आविर्भाव पर उस पर आसक्त होगये | वे जिधर जातीं उधर ही देखने लगते ..जब वे
आसमान की और जाने लगीं तो ऊपर के पंचम मुख से दृष्टिपात करने लगे | सभी के द्वारा
भर्त्सना पर शिवजी ने त्रिशूल से उनका पंचम सिर काट दिया ...वे चतुर्मुख रह गए |
दुहिता समान नारी पर कुदृष्टि के कारण उन्हें पृथ्वी पर पूजा से भी वंचित कर दिया
गया |
------ तात्विक अर्थ
है कि कर्ता को अपने कृतित्व के अतिरेक में इतना अहं में लिप्त नहीं होजाना चाहिए
की वह ज्ञानातिरेक में ही इतना लिप्त होजाय एवं चारों और ज्ञान ही ज्ञान दिखाए दे
एवं संसार व कर्म से विरत हो जाय, इससे उसके व प्रकृति के कृतित्व में व्यवधान आता
है | ब्रह्मा जब अति ज्ञान में लिप्त होगये तो उनसे सृष्टि सृजन में लापरवाही होने
लगी | शिव अर्थात प्रकृति के कल्याणकारी रूप द्वारा सत, तम, रज के सम्यग ज्ञान रूपी त्रिशूल से
उनका ज्ञानातिरेक नष्ट किया गया तब वे अपनी मूल कार्य सृष्टि सृजन की और उन्मुख
हुए | अपने ही कृति, कृतित्व व कार्य के दर्प व अहंकार में लिप्त स्वार्थी व्यक्ति
पूजा के योग्य कहाँ होता है |
२. ब्रहस्पति का
वैराग्य एवं पत्नी जुहू की व्यथा .... देव गुरु ब्र्ह्पति की पत्नी जुहू ने देवों से शिकायत की कि
ब्रहस्पति अत्यंत वैराग्य की और उन्मुख होगये हैं ,,,वे अपने पति धर्म व सांसारिक
धर्म एवं अपने ब्रह्म धर्म का भी निर्वाह नहीं कर रहे हैं | देवताओं ने ब्रहस्पति
की महावैराग्य की अवस्था को देखा | सभी ने मिलकर पुनः ब्रहस्पति को अपने कर्म का
ध्यान दिलाया एवं जुहू को उन्हें पुनः सौंप कर अपने नियमित धर्म का पालन करने में
नियत किया|
------- तात्विक
अर्थ है .. शास्त्रों की व्यवस्था है कि प्राणी मात्र को ज्ञान एवं अज्ञान (
संसार, माया, कर्म) को साथ साथ निर्वाह करना चाहिए | केवल ज्ञान भी अन्धकार में
लेजाता है, केवल सांसारिक कर्म में स्थित रहना भी | जैसा ईशोपनिषद ( यजुर्वेद
अध्याय ४० ) का श्लोक है...
विध्यांचाविध्या यस्तद
वेदोभय सह |
अविध्यायां मृत्युं
तीर्त्वा विद्ययाम्रितंनुश्ते ||
..........अर्थात प्राणी को
विद्या व अविद्या दोनों को साथ साथ अपनाना चाहिए| अविद्या ( संसार, कर्म) से संसार
रूपी सागर को तैरकर, विद्या (ज्ञान) से अमरता , मोक्ष प्राप्त करना चाहिए |
---अतः वैराग्य की कर्म
अक्रिय अवस्था में अपने दोनों धर्म ...सांसारिक एवं ब्राह्मण धर्म से दूर होजाने
पर ..सांसारिक तत्व जुहू ने देवताओं...प्रकृति द्वारा उन्हें अपने कर्त्तव्य का
भान कराया |
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