
्त्रितीय--सद -नासद खन्ड---










आधुनिक-विज्ञान व पुरा वैदिक-विज्ञान, धर्म, दर्शन, ईश्वर, ज्ञान के बारे में फ़ैली भ्रान्तियां, उद्भ्रान्त धारणायें व विचार एवम अनर्थमूलक प्रचार को उचित व सम्यग आलेखों, विचारों व उदाहरणों, कथा, काव्य से जन-जन के सम्मुख लाना---ध्येय है, इस चिठ्ठे का ...
युग बदला दुनिया बदली कम्प्युटर आया।
सबल सूचना तंत्र लिए घर-घर में छाया।
सभी तरह के खेल तमाशे भी है लाया।
इन्टरनेट की माया ने सबको भरमाया ।
दुनिया भर में इन्फोटेक का जाल बिछाया।
सभी समस्याओं का हल लेकर आया।
युग बदला जीवन बदला कम्प्युटर आया।
माउस और की पर रियाज़ हम पेल रहे हैं।
जावा और कोबोल के पापड बेल रहे हैं।
हार्ड डिस्क के नखरे भी हम झेल रहे हैं।
विंडो टू थाउजेंड थ्री ने दिल धड़काया।
डव्लू डव्लू डाट कोम बन सब पर छाया।
....युग ...
भैया को है इन्टरनेट -चेट पर जाना।
पापा को है शतरंज में उसे हराना।
मुझको भी हैं सुनने जम कर नए तराने।
चाचाजी ने लैटर लिख प्रिंटर खडकाया।
मम्मी को भी ई-कामर्स का शौक लगाया।
....युग ...
दादी ने छोटी बुआ को ई मेल लिखवाया।
ताऊजी ने पेक-मेन का गेम लगाया।
चाची जी ने सुन्दर ग्रीटिंग कार्ड बनाया।
दादाजी ने रामायण का डिस्क चलाया।
गुडिया ने भी पिक्चर-पिक्चर शोर मचाया।
....युग ...
टी वी, वीडियो गेम सभी हो गए पुराने।
पुस्तक पेपर लाइब्रेरी के गए ज़माने।
जन-जन की आँखों में लाया सपन सुहाने।
टाइपिस्ट-स्टेनो का भी दिल धड़काया।
पर बिट्टू की आँखों में चश्मा चढ़वाया।
युग बदला दुनिया बदली कम्प्युटर आया।
-- डा श्याम गुप्त
(सृष्टि व ब्रह्माण्ड भाग २ में हमने वैदिक विज्ञान के अनुसार सृष्टि रचना प्रारम्भ क्रम, से विश्वौदन अज (कोस्मिक सूप) बनने व उसमें भाव तत्व का प्रवेश तक व्याख्यायित किया था, आगे इस भाग में हम समय की उत्पत्ति, जड़ व जीव सृष्टि की मूल भाव संरचना, मूल तत्व-महत्तत्व, व्यक्त पुरुष, व्यक्त मूल ऊर्जा -आदिशक्ति, त्रिदेव, अनंत ब्रह्माण्ड की रचना एवं निर्माण कार्य में व्यवधान का वर्णन करेंगे)
१. सृष्टि की भाव संरचना ---वह चेतन ब्रह्म, परात्पर ब्रह्म, पर ब्रह्म (जैसा कि भाग २ में कहा ही कि चेतन प्रत्येक कण में प्रवेश करता है) ; जड़ व जीव दोनों में ही निवास करता है। उस ब्रह्म का भू : रूप (सावित्री रूप), जड़ सृष्टि का निर्माण करता है एवं भुव: (गायत्री रूप) जीव सृष्टि की रचना करता है। इस प्रकार --
---परात्पर अव्यक्त से --->परा शक्ति (आदि शम्भू -अव्यक्त) एवं अपरा शक्ति (आदि माया -अव्यक्त) - दोनों के संयोग से ==आदि व्यक्त तत्व --महत्त्तत्व प्राप्त होता है।
----महत्तत्व के विभाजन से ---> व्यक्त पुरुष (आदि विष्णु) व आदि-माया (व्यक्त आदि शक्ति अपरा)
----आदि विष्णु (आदि-पुरुष) से --->महा विष्णु, महा शिव, महा ब्रह्मा ---क्रमश: पालक, संहारक, धारक तत्व बने (विज्ञान के इलेक्ट्रोन, प्रोटोन व न्यूत्रों कण कहा जा सकता है)
----आदि माया (आदि शक्ति) से --> रमा, उमा व सावित्री --सर्जक,संहारक व स्फुरण प्रति तत्व बने। (विज्ञान के एंटी-इलेक्ट्रोन-प्रोटोन-न्यूत्रों कहा जासकता है) ---आधुनिक विज्ञान में पुरुष तत्व की कल्पना नहीं है, ऊर्जा ही सब कुछ है, कण व प्रति कण सभी ऊर्जा हे हैं, जो देवी भागवत के विचार, देवी -आदि-शक्ति ही समस्त सृष्टि की रचयिता है -के समकक्ष है)
----महाविष्णु व रमा के संयोग (सक्रिय तत्व व सृजक ऊर्जा) से अनंत चिद-बीज या हेमांड (जिसमें स्वर्ण अर्थात सब कुछ निहित है) या ब्रह्माण्ड (जिसमें ब्रह्म अर्थात सब कुछ निहित है) या अंडाणु, ग्रीक दर्शन का प्रईमोरडियल - एग, की उत्पत्ति हुई जो असंख्य व अनंत संख्या में थे व महाविष्णु (अनंत अंतरिक्ष) के रोम-रोम में (सब ओर बिखरे हुए) व्याप्त थे। प्रत्येक हेमांड की स्वतंत्र सत्ता थी।
----महा विष्णु से उत्पन्न ---> विष्णु चतुर्भुज (स्वयं भाव से), लिंग महेश्वर शिव व ब्रह्मा (विभिन्नांश से) ---इन तीनों देवों ने (त्रि-आयामी जीव सत्ता) प्रत्येक हेमांड में प्रवेश किया।
----इस प्रकार इन हेमांडों में में --त्रिदेव,माया, परा-अपरा ऊर्जा, दृव्य, प्रकृति,व उपस्थित विश्वौदन अज उपस्थित थे, सृष्टि रूप में उद्भूत होने हेतु। (अब आधुनिक विज्ञान भी यह मानने लगा है कि अनंत अंतरिक्ष (चिदाकाश) में अनंत-अनंत आकाश गंगाएं हैं अपने-अपने अनंत सौरी मंडलों व सूर्यों के साथ, जिनकी प्रत्येक की अपनी स्वतंत्र सत्ताएं हैं।)
२. निर्माण में रुकावट --निर्माण ज्ञान भूला हुआ ब्रह्मा --लगभग एक वर्ष तक(ब्रह्मा का एक वर्ष == मानव के करोड़ों वर्ष) ब्रह्मा, जिसे सृष्टि निर्माण
करना था,उस हेमांड में घूमता रहा,वह निर्माण प्रक्रिया समझ नहीं पा रहा था, भूला हुआ था। (आधुनिक विज्ञान के अनुसार हाइड्रोजन, हीलियम पूरी निर्माण में कंज्यूम होजाने के कारण निर्माण क्रम युगों तक रुका रहा, फिर अत्यधिक शीत होने पर पुन: ऊर्जा बनने पर सृष्टि क्रम प्रारम्भ हुआ)
----जब ब्रह्मा नेआदि -विष्णु की प्रार्थना की, क्षीर सागर (अंतरिक्ष,महाकाश, ईथर) में उपस्थित, शेष-शय्या (बची हुई मूल संरक्षित ऊर्जा) पर लेटे हुए नारायण (नार=जल,अंतरिक्ष ;;अयन=निवास, स्थित विष्णु) की नाभि (नाभिक ऊर्जा) से स्वर्ण कमल (सत्, तप,श्रृद्धा रूपी आसन) पर वह ब्रह्मा,-चतुर्मुख रूप (कार्य रूप) में अवतरित हुआ। आदि माया सरस्वती (ऊर्जा का सरस -भाव रूप) का रूप धर कर वीणा बजाती हुई (ज्ञान के आख्यानों सहित) प्रकट हुई एवं ब्रह्मा के ह्रदय में प्रविष्ट हुईं। इस प्रकार उसे सृष्टि निर्माण प्रक्रिया कापुन; ज्ञान हुआ, और वे सृष्टि रचना में रत हुए।
३. समय (काल)---अंतरिक्ष में बहुत से भारी कणों ने, मूल स्थितिक ऊर्जा,नाभीय व विकिरित ऊर्जा, प्रकाश कणों आदि को अत्यधिक मात्रा में मिला कर कठोर रासायनिक बंधनों वाले कण-प्रति कण बनालिए थे (जिन्हें राक्षस कहागया है) वे ऊर्जा का उपयोग रोक कर सृष्टि की आगे प्रगति रोके हुए थे,पर्याप्त समय बाद (ब्रह्मा को ज्ञान के उपरांत) उदित, इंद्र (रासायनिक प्रक्रिया-यग्य) द्वारा बज्र (विभिन्न उत्प्रेरकों) के प्रयोग से उन को तोड़ा। वे बिखरे हुए कण --काल-कांज या समय के अणु कहलाये। इन सभी कणों से--
अ. - विभिन्न ऊर्जाएं, हलके कण व प्रकाश कण मिलकर--विरल पिंड (अंतरिक्ष के शुन) कहलाये, जिनमें नाभिकीय ऊर्जा के कारण संयोजन व विखंडन (फिसन व फ्यूज़न) के गुण थे, उनसे सारे नक्षत्र,( सूर्य, तारे आदि),आकाश गंगाएं (गेलेक्सी) व नीहारिकाएं (नेब्यूला) आदि बने।
ब. - मूल स्थितिक ऊर्जा,भारी व कठोर कण मिलाकर जिनमें उच्च ताप भी था, अंतरिक्ष के कठोर पिंड ---गृह,उप गृह, पृथ्वी आदि बने।
----क्योंकि ये सर्व प्रथम दृश्य ज्ञान के रचना पिंड थे, एक दूसरे के सापेक्ष घूम रहे थे, इसके बाद ही एनी दृश्य रचनाएँ हुईं, तथा ब्रह्मा को ज्ञान का भी यहीं से प्रारम्भ हुआ ; अत; ब्रह्मा कादीन व समय की नियमन गणना यहीं से प्रारम्भ मानी गयी।
-- डा श्याम गुप्ता
वैदिक विज्ञान के अनुसार समस्त सृष्टि का रचयिता - 'परब्रह्म ' है; जिसे ईश्वर, परमात्मा, वेन, विराट, ऋत, ज्येष्ठ ब्रह्म, सृष्टा व चेतन आदि नाम से भी पुकारा जाता है।
१. सृष्टि पूर्व -ऋग्वेद के नासदीय सूक्त के अनुसार (१०/१२९/१ व २ ) - "न सदासीन्नो सदासीत्तादानी। न सीद्र्जो नो व्योमा परोयत। एवं --"आनंदी सूत स्वधया तदेकं। तस्माद्वायन्न पर किन्चनासि।"
अर्थात प्रारंभ में न सत् था, न असत, न परम व्योम व व्योम से परे लोकादि; सिर्फ वह एक अकेला ही स्वयं की शक्ति से, गति शून्य होकर स्थित था इस के अतिरिक्त कुछ नहीं था। कौन, कहाँ था कोइ नहीं जानता क्योंकि -- "अंग वेद यदि वा न वेद " वेद भी नहीं जानता क्योंकि तब ज्ञान भी नहीं था। तथा --""अशब्दम स्पर्शमरूपंव्ययम् ,तथा रसं नित्यं गन्धवच्च यत ""-(कठोपनिषद १/३/१५ )--अर्थात वह परब्रह्म अशब्द, अस्पर्श, अरूप, अव्यय, नित्य व अनादि है । भार रहित, स्वयम्भू, कारणों का कारण, कारण ब्रह्म है। उसे ऋषियों ने आत्मानुभूति से जाना व वेदों में गाया।( यह विज्ञान के एकात्मकता पिंड के समकक्ष है जो प्रयोगात्मक अनुमान प्रमाण सेजाना गया है।)
२. परब्रह्म का भाव संकल्प - उसने अहेतुकी सृष्टि -प्रवृत्ति से, सृष्टि हित भाव संकल्प किया तब 'ॐ' के रूप में ' मूल अनाहत नाद स्वर 'अवतरित होकर, भाव संकल्प से अवतरित "व्यक्त साम्य अर्णव"( महाकाश, मनो आकाश, गगन, परम व्योम या ईथर ) में उच्चारित होकर गुंजायमान हुआ, जिससे -अक्रिय, असत, निर्गुण व अव्यक्त असद परब्रह्म से - सक्रिय, सत्, सगुण, व सद- व्यक्त परब्रह्म : हिरण्यगर्भ (जिसके गर्भ में स्वर्ण अर्थात सबकुछ है) के रूप में प्रकट हुआ। जो स्वयम्भू (जिसमे -जीव, जड़, प्रकृति, चेतन, सद-असद, सत्-तम्-रज, कार्य-कारण-मूल अपः - आदि मूल तत्व - , मूल आदि ऊर्जा, सब कुछ अन्तर्निहित थे। एवं परिभू (जो स्वयं इन सब में निहित था) है।
३. एकोहम बहुस्याम - वैदिक सूक्त -"स एकाकी नैव रेमे ...." व "कुम्भे रेत मनसो ...." के अनुसार व्यक्त ब्रह्म हिरण्य गर्भ के सृष्टि हित ईक्षण - तप व ईषत - इच्छा - एकोअहम बहुस्याम - (अब में एक से बहुत हो जाऊं -जो प्रथम सृष्टि हित काम संकल्प, मनो रेत: संकल्प था) उस साम्य अर्णव में 'ॐ' के अनाहत नाद रूप में स्पंदित हुई। प्रतिद्ध्नित स्पंदन से (= बिग्बेंग - विज्ञान) महाकाश की साम्यावस्था भंग होने से अक्रिय अप: (अर्णव में उपस्थित व्यक्त मूल इच्छा तत्व) सक्रिय होकर व्यक्त हुआ व उसके कणों में हलचल से आदि मूल अक्रिय ऊर्जा, सक्रिय ऊर्जा में प्रकट हुई व उसके कणों में भी स्पंदन होने लगा। कणों के इस द्वंद्व भाव व टकराहट से महाकाश (ईथर) में एक असाम्यावस्था व अशांति की स्थिति उत्पन्न होगई।
४. अशांत अर्णव (परम व्योम ) - आकाश में मूल अप: तत्व के कणों की टक्कर से ऊर्जा की अधिकाधिक मात्रा उत्पन्न होने लगी, साथ ही ऊर्जा व आदि अप: कणों से परमाणु पूर्व कण बनने लगे, परन्तु कोइ निश्चित सतत: प्रक्रिया नहीं थी।
५. नाभिकीय ऊर्जा न्यूक्लियर इनर्जी ) - ऊर्जा व कणों की अधिक उपलब्धता से - प्रति 1000 इकाई ऊर्जा से एक इकाई नाभिकीय ऊर्जा के अनुपात से नाभिकीय ऊर्जा की उत्पत्ति होने लगी (नाभानेदिष्ट ऋषि एक गाय दे सहस चाहते तभी इन्द्र से -- सृष्टि महाकाव्य से व ऋग्वेद आख्यान), जिससे ऋणात्मक, धनात्मक, अनावेषित व अति सूक्ष्म केन्द्रक कण आदि परमाणु पूर्व कण बनने लगे। पुन: विभिन्न प्रक्रियाओं (रासायनिक,भौतिक संयोग या विश्व-यग्य) द्वारा असमान धर्मा कणों से विभिन्न नए-नए कण, व सामान धर्मा कण स्वतंत्र रूप से (क्योंकि सामान धर्मा कण आपस में संयोग नहीं करते -यम्-यमी आख्यान -ऋग्वेद) महाकाश में उत्पन्न होते जारहे थे।
६. रूप सृष्टि कण - उपस्थित ऊर्जा एवं परमाणु पूर्व कणों से विभिन्न अद्रश्य व अश्रव्य रूप कण (भूत कण-पदार्थ कण) बने जो अर्यमा (सप्त वर्ण प्रकाश व ध्वनि कण), सप्त होत्र (सात इलेक्ट्रोन वाले असन्त्रप्त) व अष्ट वसु (आठ इलेक्ट्रोन वाले संतृप्त) जैविक (ओरगेनिक) कण थे।
७. त्रिआयामी रूप सृष्टि कण -उपरोक्त रूप कण व आधिक ऊर्जा के संयोग से विभिन्न त्रिआयामी कणों का आविर्भाव हुआ, जो वस्तुतः दृश्य रूप कण, अणु, परमाणु थे, जिनसे विभिन्न रासायनिक, भौतिक, नाभिकीय आदि प्रक्रियाओं से समस्त भूत कण, ऊर्जा व पदार्थ बने।
८. चेतन तत्व का प्रवेश - आधुनिक विज्ञान मेंचेतन तत्व नामक कोइ परिकल्पना या व्याख्या नहीं है । वैदिक विज्ञान के अनुसार वह चेतन परब्रह्म ही सचेतन भाव व प्रत्येक कण का क्रियात्मक भाव तत्व बनकर उनमें प्रवेश करता है ताकि आगे जीव-सृष्टि तक का विस्तार हो पाये। इसी को दर्शन में प्रत्येक वास्तु का अभिमानी देव कहा जाता है, यह ब्रह्म चेतन प्राण तत्व है जो सदैव ही उपस्थित रहता है, प्रत्येक रूप उसी का रूप है (ट्रांस फार्मेसन)--"अणो अणीयान, महतो महीयान "। इसीलिये कण-कण में भगवान् कहा जाता है।
इस प्रकार ये सभी कण महाकाश में प्रवाहित होरहे थे, ऊर्जा के सहित। इसी कण-प्रवाह को वायु नाम से सर्व-प्रथम उत्पन्न तत्व माना गया। कणों के मध्य स्थित विद्युत विभव अग्नि (क्रियात्मक ऊर्जा ) हुआ। भारी कणों से जल-तत्व की उत्पत्ति हुई।जिनसे आगे- जल से सारे जड़ पदार्थ, अग्नि से सारी ऊर्जाएं व वायु से मन, भाव, बुद्धि, अहं, शब्द आदि बने।
९. विश्वौदन अजः (पंचौदन अज )-- अज = अजन्मा तत्व, जन्म मरण से परे। ये सभी तत्व, ऊर्जाएं, सभी में सत्, तम् रज रूपी गुण, चेतन देव,- संयुक्त सृष्टि निर्माण का मूल पदार्थ, विश्वौदन अजः -सृष्टि कुम्भकार की गूंथी हुई माटी, (आधुनिक विज्ञान का कॉस्मिक सूप ), स्सरे अन्तरिक्ष में तैयार था, सृष्टि रचना हेतु।
१०. मूल चेतन आत्म-भाव (३३ देव)-चेतन जो प्रत्येक कण का मूल क्रिया भाव बनकर उनमें बसा, वे ३३ भाव रूप थे जो ३३ देव कहलाये।
ये भाव देव हैं --११ रुद्र -विभिन्न प्रक्रियाओं के नियामक; १२ आदित्य -प्रकृति चलाने वाले नीति-निर्देशक; ८ बसु- मूल सैद्धांतिक रूप, बल, वर्ण, नीति नियामक; इन्द्र -संयोजक व व्घतक नियामक व प्रजापति -सब का आपस में संयोजक व समायोजक भाव -- ये सभी भाव तत्व पदार्थ,-- सिन्धु (महाकाश, अन्तरिक्ष) में पड़े थे। विश्वोदन अज के साथ। (ये सभी भाव आत्म पदार्थ, चेतन, जो ऊर्जा, कण, पदार्थ सभी के मूल गुण हैं, विज्ञान नहीं जानता, ये रासायनिक, भौतिक आदि सभी बलों, क्रियाओं के भी कारण हैं।)
-- डा। श्याम गुप्त