रविवार, 19 जुलाई 2009

वेद ,विद्या,अविद्या,,विज्ञान, दर्शन,धर्म---

विद धातु( क्रिया) का अर्थ है ,जानना। वेद =जिससे सब कुछ जाना जासके, इसीसे-विद्या बना है। विश्व प्रसिद्ध कथन है--विश्व में कहीं भी जो कुछ भी है वह वेदो में है, जो वेदों में नहीं है वह कहीं नहीं है। वेद विश्व के प्राचीनतम साहित्य हैं। यजुर्वेद के ४०वे अध्याय,जो ईशोपनिषद के नाम से है में ----विद्या व अविद्या का वर्णन है, --
""अन्धतमः प्रविशन्ति ये अविद्यामुपासते
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्याया रताः॥"
"
यहां विद्या , अर्थात ग्यान -ईश्वर,आत्म,ब्रह्म के वारे में ग्यान;( दर्शन,धर्म,सदाचरण आदि)
तथा अविद्या ,अर्थात अग्यान-समस्त सान्सारिक ग्यान,अर्थात कर्म। उपनिषद्कार का कथन है-जो लोग अविद्या ,अर्थात सान्सारिक ग्यान, कर्म में ही फ़ंसे रहते हैं,वास्तविक ग्यान को नहीं समझते वे घोर कठिनाई मे घिरॆ रहते हैं। तथा जो लोग सिर्फ़ आत्म विद्या में ही रत रहते हैं,सान्सारिक विद्या व कर्म से विमुख रहते हैं वे औए भी अधिक कष्टों में पडते हैं। पुनः कहागया है---
"
""विद्यांचाविद्यां च यस्तद वेदोभय सह। अविद्यया म्रित्युं तीर्त्वा विद्ययाम्रतमश्नुते॥""
अर्थात विद्या(ग्यान) एवम अविद्या( कर्म,सान्सारिक ग्यान) को जो साथ साथ जानता है,वह अविद्या से म्रत्यु को जीत कर ,विद्या से अमरता को प्राप्त करता है।
भारतीय विचार धारा सटीक व पूर्ण वैग्यानिक है, यदि कोई काम -धाम नहीं करेगा बस भजन ध्यान ,ग्यान,दर्शन सत्सन्ग में ही लगा रहेगा तो खायेगा क्या? और यदि वह सिर्फ़ कमाने खाने में लगा रहेगा उचित ग्यान,विग्यान, दर्शन, मानवता,ईश्वर,धर्म पर नहीं सोचेगा तो आत्माभिमानीं ,अहन्कारी होकर घोर कष्टों का सामना करेगा।
विग्यान अर्थात विशिष्ट ग्यान, यह भी अविद्या के अन्तर्गत है,प्रत्येक वस्तु ,पदार्थ,प्रक्रति(विभु-द्रश्य जगत) के वारे में व्याख्या करते करते अणु(लघु) तक पहुंचना( तत्पश्चात ईश्वर,जीव अद्रश्य- के बारे में विचार करने पर यह विद्या में समाहित होजाता है) साइन्स-लेटिन-scio-से बना है इसका अर्थ हैजानना।knowledge on specific subject.( letin scientia=knowledge) |वस्तुतः लेटिन में साइन्स शब्द , भारतीय "सांख्य" से गया है,जो एक प्रसिद्ध भारतीय दर्शन है तथा बस्तु के विश्लेषण से सम्बन्धित है।
दर्शन अर्थात द्र्ष्टि, लघु( आत्म,ब्रह्म,जीव,माया -अद्रश्य ,द्र्ष्टि की द्र्ष्टि, पर ब्रह्म) के बारे में व्याख्या करते करते विभु( मानव,प्रक्रति,व्यवहार ,सदाचरण द्वारा ईश्वरीय महत्ता को जानना, प्रत्येक अणु व विभु के लिये व्यापक द्रष्टि ग्यान।
वस्तुतः ईश्वर की खोज दोनों का ही मन्तव्य है,क्योंकि ईश्वर स्वयम----अणो अणीयान महतो महीयान है। अणु व विभु दोनो में समाहित।
धर्म- दर्शन व विग्यान दोनों में समन्वय करता है, ऊपर श्लोक "विद्या च अविद्या..." के अनुसार अति दर्शन, अति भौतिकता से मानव को रोकता है।

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विग्यान ,दर्शन व धर्म के अन्तर्सम्बन्ध

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लखनऊ, उत्तर प्रदेश, India
--एक चिकित्सक, शल्य-विशेषज्ञ जिसे धर्म, दर्शन, आस्था व सान्सारिक व्यवहारिक जीवन मूल्यों व मानवता को आधुनिक विज्ञान से तादाम्य करने में रुचि व आस्था है।