( अन्य भारतीय ज्ञान व विद्याओं की भाँति भारतीय चिकित्सा विज्ञान भी अत्यंत विकसित था । गुलामी के काल में अन्य ज्ञान व विध्याओं की भाँति सुनियोजित षडयंत्र व क्रमिक प्रकार से इसका भी प्रसार व विकास भी रोका गया ताकि एलोपेथिक आदि पाश्चात्य चिकित्सा को प्रश्रय दिया जा सके । अतः भारत के इतिहास के अन्धकार काल में आयुर्वेद का कोई उत्थान नहीं हुआ अपितु निरंतर गिरावट होती रही । हर्ष का विषय है की आज भारत के नए भोर के साथ आयुर्वेद भी नए नए आयाम छू रहा है। आयुर्वेद के नाम से जाना जाने वाला यह आदि चिकित्सा विज्ञान है, जिसके सारभूत सिद्धांतों से विश्व के सभी चिकित्सा-विज्ञान प्रादुर्भूत हुए हैं । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के लगभग सभी अंग-उपांग आयुर्वेद में पहले ही निहित हैं। यद्यपि आजकल आयुर्वेद "प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति' के संकुचित अर्थ में प्रयुक्त होता । इस क्रमिक पोस्ट द्वारा हम आयुर्वेद के इस विशद ज्ञान को संक्षिप्त में वर्णन करेंगे । ) प्रस्तुत है भाग तीन----
आयुर्वेद में रोग और स्वास्थ्य---- भाग-३
आयुर्वेद के अनुसार स्वास्थ्य की परिभाषा ( अर्थात रोग और आरोग्य का लक्षण )---
आचार्य चरक के अनुसार ---मूल आयुर्वेदीय तकनीकी भाषा में----"वात, पित्त और कफ इन तीनों दोषों का सम मात्रा (उचित प्रमाण) में होना ही आरोग्य ( निरोगी होना) और इनमें विषमता होना ही रोग है।"
महर्षि सुश्रुत के अनुसार---"जिसके सभी दोष (त्रिदोष-वात, पित्त, कफ़) सम मात्रा में हों, अग्नि सम हो, धातु, मल और उनकी क्रियाएं भी सम (उचित रूप में) हों तथा जिसकी आत्मा, इंद्रिय और मन प्रसन्न (शुद्ध) हों उसे स्वस्थ, इसके विपरीत लक्षण हों तो अस्वस्थ समझना चाहिए। अत: शरीर, इंद्रिय और मन के प्राकृतिक (स्वाभाविक) रूप या क्रिया में विकृति होना ही रोग है। (आधुनिक चिकित्सा विग्यान के अनुसार—Health is not only absence of disease but complete physical, social & mental well-being )
रोगों के हेतु या कारण -इटियॉलोजी-Aetiology- (कारण व फ़ेक्टर्स)—
---- संक्षेप में इन्हें पांच वर्गों में बांटा जा सकता है :
(१) प्रज्ञापराध ( सोशिओ-साइकोलोजीकल-मेन्टल अनियमिततायें)- अविवेक ,अधीरता तथा पूर्व अनुभव और वास्तविकता की उपेक्षा के कारण लाभ हानि का विचार किए बिना ही किसी विषय का सेवन या जानते हुए भी अनुचित वस्तु का सेवन करना। इसी को दूसरे और स्पष्ट शब्दों में कर्म (शारीरिक, वाचिक और मानसिक चेष्टाएं) का हीन, मिथ्या और अति योग भी कहते हैं।
(2)--इंद्रियों का विषयों के साथ असात्म्य –(अर्थात शरीर के साथ प्रत्येक प्रकार की अति व अत्याचार –ओवर स्ट्रेनिन्ग ).. चक्षु आदि इंद्रियों का अपने-अपने रूप आदि विषयों के साथ असंगत व्यवहार (प्रतिकूल, हीन, मिथ्या और अति) इंद्रियों, शरीर और मन के विकार का कारण होता है- यथा आँख से बिलकुल न देखना (अयोग), अति तेज अथवा कम प्रकाश में देखना और बहुत अधिक देखना (अतियोग) तथा अतिसूक्ष्म, संकीर्ण, अति दूर में स्थित तथा भयानक, बीभत्स, एवं विकृतरूप वस्तुओं को देखना (मिथ्यायोग)। ये इन्द्रियां अपने आश्रय-अन्ग के साथ मन और शरीर में भी विकार उत्पन्न करते हैं। ग्रीष्म, वर्षा, शीत आदि ऋतुओं तथा बाल्य, युवा और वृद्धावस्थाओं का भी शरीर आदि पर प्रभाव पड़ता ही है, किंतु इनके हीन, मिथ्या और अतियोग का प्रभाव विशेष रूप से हानिकर होता है।
(३)-अन्य हेतु---( फ़ेक्टर्स )—
(१) विप्रकृष्ट कारण (रिमोट कॉज़), जो शरीर में दोषों का संचय करता रहता है और अनुकूल समय पर रोग को उत्पन्न करता है-यथा-टीबी का प्राइमरी कम्प्लेक्स
(२) संनिकृष्ट कारण (इम्मीडिएट कॉज़), जो रोग का तात्कालिक कारण होता है… यथा— टीबी के बेकटीरिया का इन्फ़ेक्शन…..
(३) व्यभिचारी कारण (अबॉर्टिव कॉज़) जो परिस्थितिवश रोग को उत्पन्न करता है और नहीं भी करता --यथा टीबी रोगी के साथ कुछ समय तक सम्पर्क में रहने पर ..
(४) प्राधानिक कारण (स्पेसिफ़िक कॉज़), जो तत्काल किसी धातु या अवयव विशेष पर प्रभाव डालकर निश्चित लक्षणोंवाले विकार को उत्पन्न करता है, जैसे विभिन्न जन्तुओं के विष।
अन्य फ़ेक्टर्स---
(१) उत्पादक (प्रीडिस्पोज़िंग फ़ेक्टर्स), जो शरीर में रोगविशेष की उत्पत्ति के अनुकूल परिवर्तन कर देता है—कमजोरी, कुपोषण, रक्ताल्पता- से ग्रसित शरीर में टीबी का इन्फ़ेक्शन….या एड्स का..
(२) व्यंजक (एक्साइटिंग), जो पहले से रोगानुकूल शरीर में तत्काल विकारों को व्यक्त करता है
(३) निज (इडियोपैथिक)- जब पूर्वोक्त कारणों से क्रमश: शरीरगत वातादि दोष में, और उनके द्वारा धातुओं में, विकार उत्पन्न होते हैं तो उनको निज हेतु या निज रोग कहते हैं।
(४) आगंतुक (ऐक्सिडेंटल)- चोट लगना, आग से जलना, विद्युत्प्रभाव, सांप आदि विषैले जीवों के काटने या विषप्रयोग से जब एकाएक विकार उत्पन्न होते हैं तो उनमें भी वातादि दोषों का विकार होते हुए भी, कारण की भिन्नता और प्रबलता से, वे कारण और उनसे उत्पन्न रोग आगंतुक कहलाते
(५-)आदि- कारण --जिन पदार्थों के प्रभाव से वात आदि दोषों में विकृतियां होती हैं तथा वे वातादि दोष, जो शारीरिक धातुओं को विकृत करते हैं, दोनों ही हेतु (कारण) या निदान (आदिकारण) कहलाते हैं।
हेतुओं का शरीर पर प्रभाव-(पेथोफ़िज़िओलोजी-) शरीर पर इन सभी कारणों के तीन प्रकार के प्रभाव होते हैं ---
(१) दोषप्रकोप- अनेक कारणों से शरीर के पन्च तत्वों में से किसी एक या अनेक में परिवर्तन होकर उनके स्वाभाविक अनुपात में अंतर आ जाना । इसी के आधार पर आयुर्वेदाचार्यों ने इन विकारों को वात, पित्त और कफ इन वर्गों में विभक्त किया है। । शरीर की धातुओं में या उनके संघटकों में जिस तत्व की बहुलता रहती है वे उसी श्रेणी के गिने जाते हैं। इन पांचों में आकाश तो निर्विकार- है अप्रभावी तथा पृथ्वी सबसे स्थूल जिसपर सभी प्रभाव पडता है। शेष तीन (वायु, तेज और जल) सब प्रकार के परिवर्तन या विकार उत्पन्न करने में समर्थ होते हैं। अत: तीनों की प्रचुरता के आधार पर, विभिन्न धातुओं एवं उनके संघटकों को वात, पित्त और कफ की संज्ञा दी गई है। सामान्य रूप से ये तीनों धातुएं शरीर की पोषक होने के कारण विकृत होने पर अन्य धातुओं को भी दूषित करती हैं। अत: दोष तथा मल रूप होने से मल कहलाती हैं। रोग में किसी भी कारण से इन्हीं तीनों की न्यूनता या अधिकता होती है, जिसे दोषप्रकोप कहते हैं।
(२) धातुदूषण- कुछ पदार्थ या कारण ऐसे होते हैं जो किसी विशिष्ट धातु या अवयव में ही विकार करते हैं। इनका प्रभाव सारे शरीर पर नहीं होता। इन्हें धातुप्रदूषक कहते हैं।
(३) उभयहेतु- वे पदार्थ जो सारे शरीर में वात आदि दोषों को कुपित करते हुए भी किसी धातु या अंग विशेष में भी विशेष विकार उत्पन्न करते हैं, उभयहेतु कहलाते हैं।
इन तीनों में जो परिवर्तन होते हैं वे वात, पित्त या कफ इन तीनों में से किसी एक, दो या तीनों में ही विकार उत्पन्न करते हैं। अत: ये ही तीनों दोष प्रधान शरीरगत कारण होते हैं, क्योंकि इनके स्वाभाविक अनुपात में परिवर्तन होने से शरीर की धातुओं आदि में भी विकृति होती है। रचना में विकार होने से क्रिया में भी विकार होना स्वाभाविक है। इस अस्वाभाविक रचना और क्रिया के परिणामस्वरूप अतिसार, कास आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं और इन लक्षणों के समूह को ही रोग कहते हैं।
रोग की जानकारी के साधन( लिन्ग, पहचान - डायग्नोसिस)…
चार विधियां है-- ---पूर्वरूप, रूप, संप्राप्ति और उपशय।
१-पूर्वरूप-( प्री मोनिटेरी सिम्प्टम्स) किसी रोग के व्यक्त होने के पूर्व शरीर के भीतर हुई अत्यल्प या आरंभिक विकृति के कारण जो लक्षण उत्पन्न होकर किसी रोगविशेष की उत्पत्ति की संभावना प्रकट करते हैं उन्हें पूर्वरूप (प्रोडामेटा) कहते हैं। यथा—यक्ष्मा में प्रारम्भिक बार बार ज्वर आना, खांसी, भार कम होना…
२-रूप (साइन्स एंड सिंप्टम्स) - जिन लक्षणों से रोग या विकृति का स्पष्ट परिचय मिलता है उन्हें रूप कहते हैं--- खांसी, ज्वर, बल्गम आना व एक्स रे में टीबी के प्रभाव..
३-संप्राप्ति (पैथोजेनेसिस) : किस कारण से कौन सा दोष स्वतंत्र रूप में या परतंत्र रूप में, अकेले या दूसरे के साथ, कितने अंश में और कितनी मात्रा में प्रकुपित होकर, किस धातु या किस अंग में, किस-किस स्वरूपश् का विकार उत्पन्न करता है, इसके निर्धारण को संप्राप्ति कहते हैं। चिकित्सा में इसी की महत्वपूर्ण उपयोगिता है। वस्तुत: इन परिवर्तनों से ही ज्वरादि रूप में रोग उत्पन्न होते हैं, अत: इन्हें ही वास्तव में रोग भी कहा जा सकता है और इन्हीं परिवर्तनों को ध्यान में रखकर की गई चिकित्सा भी सफल होती है।
४-उपशय और अनुपशय (थेराप्यूटिक टेस्ट) - जब अल्पता या संकीर्णता आदि के कारण रोगों के वास्तविक कारणों या स्वरूपों का निर्णय करने में संदेह होता है, तब उस संदेह के निराकरण के लिए संभावित दोषों या विकारों में से किसी एक के विकार से उपयुक्त आहार-विहार और औषध का प्रयोग करने पर जिससे लाभ होता है आयुर्वेदाचार्यो ने छह प्रकार से आहार-विहार और औषध के प्रयोगों का सूत्र बतलाए हैं। आयुर्वेद के ये सूत्र इतने महत्व के हैं कि इनमें से एक-एक के आधार पर ---- अन्य चिकित्सा-पद्धतियों का उदय हो गया है; जैसा कि पहले बताया जा चुका है। ये इस प्रकार हैं—
(१) हेतु के विपरीत आहार विहार या औषध का प्रयोग करना।
(२) व्याधि, वेदना या लक्षणों के विपरीत आहार विहार या औषध का प्रयोग करना। स्वयं ऐलोपैथी की स्थापना इसी पद्धति पर हुई थी --ऐलोज़ (विपरीत) पेथी ( व्यवहार या तरीका )= ऐलोपैथी ।
(३) हेतु और व्याधि, दोनों के विपरीत आहार विहार और औषध का प्रयोग करना।
(४) हेतु-विपरीतार्थकारी, अर्थात् रोग के कारण के समान होते हुए भी उस कारण के विपरीत कार्य करनेवाले आहार आदि का प्रयोग; जैसे, आग से जलने पर सेंकने या गरम वस्तुओं का लेप करने से उस स्थान पर रक्तसंचार बढ़कर दोषों का स्थानांतरण होता है ।
(५) व्याधि-विपरीतार्थकारी, अर्थात् रोग या वेदना को बढ़ानेवाला प्रतीत होते हुए भी व्याधि के विपरीत कार्य करनेवाले आहार आदि का प्रयोग ( होमियापैथी इसी सिद्धान्त पर है--- होमियो (समान) पेथी( व्यवहार-तरीका) ।
(६) उभयविरीतार्थकारी, अर्थात् कारण और वेदना दोनों के समान प्रतीत होते हुए भी दोनों के विपरीत कार्य करनेवाले आहार विहार और औषध का प्रयोग।
-------हेतु और लिंगों से रोग की परीक्षा होती है, किंतु इनके समुचित ज्ञान के लिए रोगी की परीक्षा अनिवार्य है।
---- क्रमश:
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