भाग पांच
आयुर्वेद में चिकित्सा ( ट्रीटमेंट )--- चिकित्सक, परिचारक, औषध और रोगी, ये चारों मिलकर शारीरिक धातुओं की समन्वयता व समता प्राप्ति के उद्देश्य से, जिसका अभिप्राय: रोग से निव्रत्ति एवं रोगी को रोग के लक्षणों से मुक्ति हेतु, जो कुछ भी उपाय या कार्य करते हैं उसे चिकित्सा कहते हैं।
अ---चिकित्सा उद्देश्य के अनुसार यह दो प्रकार की होती है : --
(१) निरोधक (प्रिवेंटिव) तथा
(२) प्रतिषेधक (क्योरेटिव); जैसे
शरीर के प्रकृतिस्थ दोषों और धातुओं में वैषम्य (विकार) न हो तथा साम्य की परंपरा निरंतर बनी रहे, इस उद्देश्य से की गई चिकित्सा निरोधक है तथा जिन क्रियाओं या उपचारों से विषम हुई शरीरिक धातुओं में समता उत्पन्न की जाती है उन्हें प्रतिषेधक चिकित्सा कहते हैं।
ब---चिकित्सा विधि के अनुसार चिकित्सा तीन प्रकार की होती है :
१-सत्वावजय (साइकोलॉजिकल)---इसमें मन को अहित विषयों से रोकना तथा हर्षण, आश्वासन आदि उपाय हैं।
२-दैवव्यपाश्रय (डिवाइन)---इसमें ग्रह आदि दोषों के शमनार्थ तथा पूर्वकृत अशुभ कर्म के प्रायश्चित्तस्वरूप देवाराधन, जप, हवन, पूजा, पाठ, व्रात, तथा मणि, मंत्र, यंत्र, रत्न और औषधि आदि का धारण, ये उपाय होते हैं।
३-युक्तिव्यपाश्रय (मेडिसिनल अर्थात् सिस्टमिक ट्रीटमेंट)--रोग और रोगी के बल, स्वरूप, अवस्था, स्वास्थ्य, सत्व, प्रकृति आदि के अनुसार उपयुक्त औषध की उचित मात्रा, अनुकूल कल्पना (बनाने की रीति) आदि का विचार कर प्रयुक्त करना। इसके भी मुख्यत: तीन प्रकार हैं :
क-अंत:परिमार्जन, ख-बहि:परिमार्जन और ग--शस्त्रकर्म (सर्जरी )
क--अंत:परिमार्जन (औषधियों का आभ्यंतर प्रयोग)--- इसके भी दो मुख्य प्रकार हैं :----
(१) अपतर्पण या शोधन या लंघन; (२) संतर्पण या शमन या बृंहण (खिलाना)।
शोधन--- शारीरिक दोषों को बाहर निकालने के उपायों को शोधन कहते हैं, उसके वमन, विरेचन (पर्गेटिव), वस्ति (निरूहण), अनुवासन और उत्तरवस्ति (एनिमैटा तथा कैथेटर्स का प्रयोग), शिरोविरेचन (स्नफ़्स आदि) तथा रक्तामोक्षणश् (वेनिसेक्शन या ब्लड लेटिंग), ये पांच उपाय हैं।
शमन—औषध खिलाना आदि.--दोषों और विकारों के शमनार्थ विशेष गुणवाली औषधि का प्रयोग ……लाक्षणिक चिकित्सा (सिंप्टोमैटिक ट्रीटमेंट) : विभिन्न लक्षणों के अनुसार दोषों और विकारों के शमनार्थ विशेष गुणवाली औषधि का प्रयोग, जैसे ज्वरनाशक, छर्दिघ्न (वमन रोकनेवाला--- आदि द्रव्यों का आवश्यकतानुसार उचित कल्पना और मात्रा में प्रयोग करना।
इन औषधियों का प्रयोग करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए ( मैटीरिया मेडिका) ""यह औषधि इस स्वभाव की होने के कारण तथा अमुक तत्वों की प्रधानता के कारण, अमुक गुणवाली होने से, अमुक प्रकार के देश में उत्पन्न और अमुक ऋतु में संग्रह कर, अमुक प्रकार सुरक्षित रहकर, अमुक कल्पना से, अमुक मात्रा से, इस रोग की, इस-इस अवस्था में तथा अमुक प्रकार के रोगी को इतनी मात्रा में देने पर अमुक दोष को निकालेगी या शांत करेगी। इसके प्रभाव में इसी के समान गुणवाली अमुक औषधि का प्रयोग किया जा सकता है। इसमें यह यह उपद्रव हो सकते हैं और उसके शमनार्थ ये उपाय करने चाहिए।
ख--बहि:परिमार्जन (एक्स्टर्नल मेडिकेशन)----जैसे अभ्यंग, स्नान, लेप, धूपन, स्वेदन आदि।
ग--शस्त्रकर्म (सर्जरी)…--विभिन्न अवस्थाओं में निम्नलिखित आठ प्रकार के शस्त्रकर्मों में से कोई एक या अनेक करने पड़ते हैं :
१. छेदन-काटकर दो फांक करना या शरीर से अलग करना (एक्सिज़न),
२. भेदन-चीरना (इंसिज़न),
३. लेखन-खुरचना (स्क्रेपिंग या स्कैरिफ़िकेशन),
४. वेधन-नुकीले शस्त्र से छेदना (पंक्चरिंग),
५. एषण (प्रोबिंग),
६. आहरण-खींचकर बाहर निकालना (एक्स्ट्रैक्शन),
७. विस्रावण-रक्त, पूय आदि को चुवाना (ड्रेनेज),
८. सीवन-सीना (स्यूचरिंग या स्टिचिंग)।
इनके अतिरिक्त उत्पाटन (उखाड़ना), कुट्टन (कुचकुचाना, प्रिकिंग), मंथन (मथना, ड्रिलिंग), दहन (जलाना, कॉटराइज़ेशन) आदि उपशस्त्रकर्म भी होते हैं। शस्त्रकर्म (ऑपरेशन) के पूर्व की तैयारी को पूर्वकर्म कहते हैं, जैसे रोगी का शोधन, यंत्र (ब्लंट इंस्ट्रुमेंट्स), शस्त्र (शार्प इंस्ट्रुमेंट्स) तथा शस्त्रकर्म के समय एवं बाद में आवश्यक रुई, वस्त्र, पट्टी, घृत, तेल, क्वाथ, लेप आदि की तैयारी और शुद्धि। वास्तविक शस्त्रकर्म को प्रधान कर्म कहते हैं। शस्त्रकर्म के बाद शोधन, रोहण, रोपण, त्वक्स्थापन, सवर्णीकरण, रोमजनन आदि उपाय पश्चात्कर्म हैं।
शस्त्रसाध्य तथा अन्य अनेक रोगों में क्षार या अग्निप्रयोग के द्वारा भी चिकित्सा की जा सकती है। रक्त निकालने के लिए जोंक, सींगी, तुंबी, प्रच्छान तथा शिरावेध का प्रयोग होता है।
आयुर्वेद व मानस रोग (मेंटल डिज़ीज़ेज़)-
मन भी आयु का उपादान है। मन के --रज और तम इन दो दोषों से दूषित होने पर मानसिक संतुलन बिगड़ने का इंद्रियों और शरीर पर भी प्रभाव पड़ता है। शरीर और इंद्रियों के स्वस्थ होने पर भी मनोदोष से मनुष्य के जीवन में अस्तव्यस्तता आने से आयु का ह्रास होता है। उसकी चिकित्सा के लिए मन के शरीराश्रित होने से शारीरिक शुद्धि आदि के साथ ज्ञान, विज्ञान, संयम, मन:समाधि, हर्षण, आश्वासन आदि मानस उपचार करना चाहिए, मन को क्षोभक आहार विहार आदि से बचना चाहिए तथा मानस-रोग-विशेषज्ञों से उपचार कराना चाहिए।
इंद्रियां - ये आयुर्वेद में भौतिक मानी गई हैं। ये शरीराश्रित तथा मनोनियंत्रित होती हैं। अत: शरीर और मन के आधार पर ही इनके रोगों की चिकित्सा की जाती है।
आत्मा को पहले ही निर्विकार बताया गया है। उसके साधनों (मन और इंद्रियों) तथा आधार (शरीर) में विकार होने पर इन सबकी संचालक आत्मा में विकार का हमें आभास मात्र होता है। किंतु पूर्वकृत अशुभ कर्मों परिणामस्वरूप आत्मा को भी विविध योनियों में जन्मग्रहण आदि भवबंधनरूपी रोग से बचाने के लिए, इसके प्रधान उपकरण मन को शुद्ध करने के लिए, ...सत्संगति, ज्ञान, वैराग्य, धर्मशास्त्रचिंतन, व्रत-उपवास आदि करना चाहिए। इनसे तथा यम नियम आदि योगाभ्यास द्वारा स्मृति (तत्वज्ञान) की उत्पत्ति होने से कर्म-संन्यास द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसे नैष्ठिकी चिकित्सा कहते हैं। क्योंकि संसार द्वंद्वमय है, जहाँ सुख है वहाँ दु:ख भी है, अत: आत्यंतिक (सतत) सुख तो द्वंद्वमुक्त होने पर ही मिलता है और उसी को कहते हैं मोक्ष।
अष्टांग वैद्यक : आयुर्वेद के आठ विभाग----
विस्तृत विवेचन, विशेष चिकित्सा तथा सुगमता आदि के लिए आयुर्वेद को आठ भागों (अष्टांग वैद्यक) में विभक्त किया गया है :
१-कायचिकित्सा (General Medicine)----इसमें सामान्य रूप से औषधिप्रयोग द्वारा चिकित्सा की जाती है। प्रधानत: ज्वर, रक्तपित्त, शोष, उन्माद, अपस्मार, कुष्ठ, प्रमेह, अतिसार आदि रोगों की चिकित्सा इसके अंतर्गत आती है। शास्त्रकार ने इसकी परिभाषा इस प्रकार की है-
२-शाल्यतंत्र (Surgery and Midwifery)----विविध प्रकार के शल्यों को निकालने की विधि एवं अग्नि, क्षार, यंत्र, शस्त्र आदि के प्रयोग द्वारा संपादित चिकित्सा को शल्य चिकित्सा कहते हैं। किसी व्रण में से तृण के हिस्से, लकड़ी के टुकड़े, पत्थर के टुकड़े, धूल, लोहे के खंड, हड्डी, बाल, नाखून, शल्य, अशुद्ध रक्त, पूय, मृतभ्रूण आदि को निकालना तथा यंत्रों एवं शस्त्रों के प्रयोग एवं व्रणों के निदान, तथा उसकी चिकित्सा आदि का समावेश शल्ययंत्र के अंतर्गत किया गया है।
३-शालाक्यतंत्र (Opthamology including ENT and Dentistry)---गले के ऊपर के अंगों की चिकित्सा में बहुधा शलाका सदृश यंत्रों एवं शस्त्रों का प्रयोग होने से इसे शालाक्ययंत्र कहते हैं। इसके अंतर्गत प्रधानत: मुख, नासिका, नेत्र, कर्ण आदि अंगों में उत्पन्न व्याधियों की चिकित्सा आती है।
४-कौमारभृत्य (Pediatrics , obstetrics & gynaecology)----बच्चों, स्त्रियों विशेषत: गर्भिणी स्त्रियों और विशेष स्त्रीरोग के साथ गर्भविज्ञान का वर्णन इस तंत्र में है।
५-अगदतंत्र ( विष-विग्यान---टोक्सीकोलोजी )..--इसमें विभिन्न स्थावर, जंगम और कृत्रिम विषों एवं उनके लक्षणों तथा चिकित्सा का वर्णन है।
६-भूतविद्या (Psycho-therapy)----इसमें देवाधि ग्रहों द्वारा उत्पन्न हुए विकारों और उसकी चिकित्सा का वर्णन है।
७-रसायनतंत्र (Rejuvenation and Geriatrics)---चिरकाल तक वृद्धावस्था के लक्षणों से बचते हुए उत्तम स्वास्थ्य, बल, पौरुष एवं दीर्घायु की प्राप्ति एवं वृद्धावस्था के कारण उत्पन्न हुए विकारों को दूर करने के उपाय इस तंत्र में वर्णित हैं।
८-वाजीकरण (Virilification, Science of Aphrodisiac and Sexology)---शुक्रधातु की उत्पत्ति, पुष्टता एवं उसमें उत्पन्न दोषों एवं उसके क्षय, वृद्धि आदि कारणों से उत्पन्न लक्षणों की चिकित्सा आदि विषयों के साथ उत्तम स्वस्थ संतोनोत्पत्ति संबंधी ज्ञान का वर्णन इसके अंतर्गत आते हैं। ----- वाजीकरणतंत्रं
सन्दर्भ—
१-चरक संहिता..
२-सुश्रुत संहिता..
३- रिग्वेद व अथर्ववेद…
लेबल:
(सर्जरी,
अष्टांग वैद्यक,
मानस रोग
आयुर्वेद में चिकित्सा ( ट्रीटमेंट )--- चिकित्सक, परिचारक, औषध और रोगी, ये चारों मिलकर शारीरिक धातुओं की समन्वयता व समता प्राप्ति के उद्देश्य से, जिसका अभिप्राय: रोग से निव्रत्ति एवं रोगी को रोग के लक्षणों से मुक्ति हेतु, जो कुछ भी उपाय या कार्य करते हैं उसे चिकित्सा कहते हैं।
अ---चिकित्सा उद्देश्य के अनुसार यह दो प्रकार की होती है : --
(१) निरोधक (प्रिवेंटिव) तथा
(२) प्रतिषेधक (क्योरेटिव); जैसे
शरीर के प्रकृतिस्थ दोषों और धातुओं में वैषम्य (विकार) न हो तथा साम्य की परंपरा निरंतर बनी रहे, इस उद्देश्य से की गई चिकित्सा निरोधक है तथा जिन क्रियाओं या उपचारों से विषम हुई शरीरिक धातुओं में समता उत्पन्न की जाती है उन्हें प्रतिषेधक चिकित्सा कहते हैं।
ब---चिकित्सा विधि के अनुसार चिकित्सा तीन प्रकार की होती है :
१-सत्वावजय (साइकोलॉजिकल)---इसमें मन को अहित विषयों से रोकना तथा हर्षण, आश्वासन आदि उपाय हैं।
२-दैवव्यपाश्रय (डिवाइन)---इसमें ग्रह आदि दोषों के शमनार्थ तथा पूर्वकृत अशुभ कर्म के प्रायश्चित्तस्वरूप देवाराधन, जप, हवन, पूजा, पाठ, व्रात, तथा मणि, मंत्र, यंत्र, रत्न और औषधि आदि का धारण, ये उपाय होते हैं।
३-युक्तिव्यपाश्रय (मेडिसिनल अर्थात् सिस्टमिक ट्रीटमेंट)--रोग और रोगी के बल, स्वरूप, अवस्था, स्वास्थ्य, सत्व, प्रकृति आदि के अनुसार उपयुक्त औषध की उचित मात्रा, अनुकूल कल्पना (बनाने की रीति) आदि का विचार कर प्रयुक्त करना। इसके भी मुख्यत: तीन प्रकार हैं :
क-अंत:परिमार्जन, ख-बहि:परिमार्जन और ग--शस्त्रकर्म (सर्जरी )
क--अंत:परिमार्जन (औषधियों का आभ्यंतर प्रयोग)--- इसके भी दो मुख्य प्रकार हैं :----
(१) अपतर्पण या शोधन या लंघन; (२) संतर्पण या शमन या बृंहण (खिलाना)।
शोधन--- शारीरिक दोषों को बाहर निकालने के उपायों को शोधन कहते हैं, उसके वमन, विरेचन (पर्गेटिव), वस्ति (निरूहण), अनुवासन और उत्तरवस्ति (एनिमैटा तथा कैथेटर्स का प्रयोग), शिरोविरेचन (स्नफ़्स आदि) तथा रक्तामोक्षणश् (वेनिसेक्शन या ब्लड लेटिंग), ये पांच उपाय हैं।
शमन—औषध खिलाना आदि.--दोषों और विकारों के शमनार्थ विशेष गुणवाली औषधि का प्रयोग ……लाक्षणिक चिकित्सा (सिंप्टोमैटिक ट्रीटमेंट) : विभिन्न लक्षणों के अनुसार दोषों और विकारों के शमनार्थ विशेष गुणवाली औषधि का प्रयोग, जैसे ज्वरनाशक, छर्दिघ्न (वमन रोकनेवाला--- आदि द्रव्यों का आवश्यकतानुसार उचित कल्पना और मात्रा में प्रयोग करना।
इन औषधियों का प्रयोग करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए ( मैटीरिया मेडिका) ""यह औषधि इस स्वभाव की होने के कारण तथा अमुक तत्वों की प्रधानता के कारण, अमुक गुणवाली होने से, अमुक प्रकार के देश में उत्पन्न और अमुक ऋतु में संग्रह कर, अमुक प्रकार सुरक्षित रहकर, अमुक कल्पना से, अमुक मात्रा से, इस रोग की, इस-इस अवस्था में तथा अमुक प्रकार के रोगी को इतनी मात्रा में देने पर अमुक दोष को निकालेगी या शांत करेगी। इसके प्रभाव में इसी के समान गुणवाली अमुक औषधि का प्रयोग किया जा सकता है। इसमें यह यह उपद्रव हो सकते हैं और उसके शमनार्थ ये उपाय करने चाहिए।
ख--बहि:परिमार्जन (एक्स्टर्नल मेडिकेशन)----जैसे अभ्यंग, स्नान, लेप, धूपन, स्वेदन आदि।
ग--शस्त्रकर्म (सर्जरी)…--विभिन्न अवस्थाओं में निम्नलिखित आठ प्रकार के शस्त्रकर्मों में से कोई एक या अनेक करने पड़ते हैं :
१. छेदन-काटकर दो फांक करना या शरीर से अलग करना (एक्सिज़न),
२. भेदन-चीरना (इंसिज़न),
३. लेखन-खुरचना (स्क्रेपिंग या स्कैरिफ़िकेशन),
४. वेधन-नुकीले शस्त्र से छेदना (पंक्चरिंग),
५. एषण (प्रोबिंग),
६. आहरण-खींचकर बाहर निकालना (एक्स्ट्रैक्शन),
७. विस्रावण-रक्त, पूय आदि को चुवाना (ड्रेनेज),
८. सीवन-सीना (स्यूचरिंग या स्टिचिंग)।
इनके अतिरिक्त उत्पाटन (उखाड़ना), कुट्टन (कुचकुचाना, प्रिकिंग), मंथन (मथना, ड्रिलिंग), दहन (जलाना, कॉटराइज़ेशन) आदि उपशस्त्रकर्म भी होते हैं। शस्त्रकर्म (ऑपरेशन) के पूर्व की तैयारी को पूर्वकर्म कहते हैं, जैसे रोगी का शोधन, यंत्र (ब्लंट इंस्ट्रुमेंट्स), शस्त्र (शार्प इंस्ट्रुमेंट्स) तथा शस्त्रकर्म के समय एवं बाद में आवश्यक रुई, वस्त्र, पट्टी, घृत, तेल, क्वाथ, लेप आदि की तैयारी और शुद्धि। वास्तविक शस्त्रकर्म को प्रधान कर्म कहते हैं। शस्त्रकर्म के बाद शोधन, रोहण, रोपण, त्वक्स्थापन, सवर्णीकरण, रोमजनन आदि उपाय पश्चात्कर्म हैं।
शस्त्रसाध्य तथा अन्य अनेक रोगों में क्षार या अग्निप्रयोग के द्वारा भी चिकित्सा की जा सकती है। रक्त निकालने के लिए जोंक, सींगी, तुंबी, प्रच्छान तथा शिरावेध का प्रयोग होता है।
सर्जरी-प्राचीन भारत--महर्षि शुश्रुत शल्य कर्म करते हुए |
सर्जरी प्राचीन भारत---शल्य कर्म के अश्त्र-शस्त्र ( इन्सट्रूमेन्ट्स) |
आयुर्वेद व मानस रोग (मेंटल डिज़ीज़ेज़)-
मन भी आयु का उपादान है। मन के --रज और तम इन दो दोषों से दूषित होने पर मानसिक संतुलन बिगड़ने का इंद्रियों और शरीर पर भी प्रभाव पड़ता है। शरीर और इंद्रियों के स्वस्थ होने पर भी मनोदोष से मनुष्य के जीवन में अस्तव्यस्तता आने से आयु का ह्रास होता है। उसकी चिकित्सा के लिए मन के शरीराश्रित होने से शारीरिक शुद्धि आदि के साथ ज्ञान, विज्ञान, संयम, मन:समाधि, हर्षण, आश्वासन आदि मानस उपचार करना चाहिए, मन को क्षोभक आहार विहार आदि से बचना चाहिए तथा मानस-रोग-विशेषज्ञों से उपचार कराना चाहिए।
इंद्रियां - ये आयुर्वेद में भौतिक मानी गई हैं। ये शरीराश्रित तथा मनोनियंत्रित होती हैं। अत: शरीर और मन के आधार पर ही इनके रोगों की चिकित्सा की जाती है।
आत्मा को पहले ही निर्विकार बताया गया है। उसके साधनों (मन और इंद्रियों) तथा आधार (शरीर) में विकार होने पर इन सबकी संचालक आत्मा में विकार का हमें आभास मात्र होता है। किंतु पूर्वकृत अशुभ कर्मों परिणामस्वरूप आत्मा को भी विविध योनियों में जन्मग्रहण आदि भवबंधनरूपी रोग से बचाने के लिए, इसके प्रधान उपकरण मन को शुद्ध करने के लिए, ...सत्संगति, ज्ञान, वैराग्य, धर्मशास्त्रचिंतन, व्रत-उपवास आदि करना चाहिए। इनसे तथा यम नियम आदि योगाभ्यास द्वारा स्मृति (तत्वज्ञान) की उत्पत्ति होने से कर्म-संन्यास द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसे नैष्ठिकी चिकित्सा कहते हैं। क्योंकि संसार द्वंद्वमय है, जहाँ सुख है वहाँ दु:ख भी है, अत: आत्यंतिक (सतत) सुख तो द्वंद्वमुक्त होने पर ही मिलता है और उसी को कहते हैं मोक्ष।
अष्टांग वैद्यक : आयुर्वेद के आठ विभाग----
विस्तृत विवेचन, विशेष चिकित्सा तथा सुगमता आदि के लिए आयुर्वेद को आठ भागों (अष्टांग वैद्यक) में विभक्त किया गया है :
१-कायचिकित्सा (General Medicine)----इसमें सामान्य रूप से औषधिप्रयोग द्वारा चिकित्सा की जाती है। प्रधानत: ज्वर, रक्तपित्त, शोष, उन्माद, अपस्मार, कुष्ठ, प्रमेह, अतिसार आदि रोगों की चिकित्सा इसके अंतर्गत आती है। शास्त्रकार ने इसकी परिभाषा इस प्रकार की है-
२-शाल्यतंत्र (Surgery and Midwifery)----विविध प्रकार के शल्यों को निकालने की विधि एवं अग्नि, क्षार, यंत्र, शस्त्र आदि के प्रयोग द्वारा संपादित चिकित्सा को शल्य चिकित्सा कहते हैं। किसी व्रण में से तृण के हिस्से, लकड़ी के टुकड़े, पत्थर के टुकड़े, धूल, लोहे के खंड, हड्डी, बाल, नाखून, शल्य, अशुद्ध रक्त, पूय, मृतभ्रूण आदि को निकालना तथा यंत्रों एवं शस्त्रों के प्रयोग एवं व्रणों के निदान, तथा उसकी चिकित्सा आदि का समावेश शल्ययंत्र के अंतर्गत किया गया है।
३-शालाक्यतंत्र (Opthamology including ENT and Dentistry)---गले के ऊपर के अंगों की चिकित्सा में बहुधा शलाका सदृश यंत्रों एवं शस्त्रों का प्रयोग होने से इसे शालाक्ययंत्र कहते हैं। इसके अंतर्गत प्रधानत: मुख, नासिका, नेत्र, कर्ण आदि अंगों में उत्पन्न व्याधियों की चिकित्सा आती है।
४-कौमारभृत्य (Pediatrics , obstetrics & gynaecology)----बच्चों, स्त्रियों विशेषत: गर्भिणी स्त्रियों और विशेष स्त्रीरोग के साथ गर्भविज्ञान का वर्णन इस तंत्र में है।
५-अगदतंत्र ( विष-विग्यान---टोक्सीकोलोजी )..--इसमें विभिन्न स्थावर, जंगम और कृत्रिम विषों एवं उनके लक्षणों तथा चिकित्सा का वर्णन है।
६-भूतविद्या (Psycho-therapy)----इसमें देवाधि ग्रहों द्वारा उत्पन्न हुए विकारों और उसकी चिकित्सा का वर्णन है।
७-रसायनतंत्र (Rejuvenation and Geriatrics)---चिरकाल तक वृद्धावस्था के लक्षणों से बचते हुए उत्तम स्वास्थ्य, बल, पौरुष एवं दीर्घायु की प्राप्ति एवं वृद्धावस्था के कारण उत्पन्न हुए विकारों को दूर करने के उपाय इस तंत्र में वर्णित हैं।
८-वाजीकरण (Virilification, Science of Aphrodisiac and Sexology)---शुक्रधातु की उत्पत्ति, पुष्टता एवं उसमें उत्पन्न दोषों एवं उसके क्षय, वृद्धि आदि कारणों से उत्पन्न लक्षणों की चिकित्सा आदि विषयों के साथ उत्तम स्वस्थ संतोनोत्पत्ति संबंधी ज्ञान का वर्णन इसके अंतर्गत आते हैं। ----- वाजीकरणतंत्रं
सन्दर्भ—
१-चरक संहिता..
२-सुश्रुत संहिता..
३- रिग्वेद व अथर्ववेद…
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें