शनिवार, 9 नवंबर 2013

श्रुतियों व पुराण-कथाओं वैज्ञानिक तथ्य--अंक-4....कृष्ण और गोपिकाएं तथा सीरध्वज जनक का हल जोतना और जमीन से सीता की उत्पत्ति-


श्रुतियों व पुराण-कथाओं वैज्ञानिक तथ्य--अंक-4....कृष्ण और गोपिकाएं तथा सीरध्वज जनक का हल जोतना और जमीन से सीता की उत्पत्ति-



    श्रुतियों व पुराण-कथाओं में भक्ति-पक्ष के साथ व्यवहारिक-वैज्ञानिक तथ्य
       (  श्रुतियों व पुराणों एवं अन्य भारतीय शास्त्रों में जो कथाएं भक्ति भाव से परिपूर्ण व अतिरंजित लगती हैं उनके मूल में वस्तुतः वैज्ञानिक एवं व्यवहारिक पक्ष निहित है परन्तु वे भारतीय जीवन-दर्शन के मूल वैदिक सूत्र ...’ईशावास्यम इदं सर्वं.....’ के आधार पर सब कुछ ईश्वर को याद करते हुए, उसी को समर्पित करते हुए, उसी के आप न्यासी हैं यह समझते हुए ही करना चाहिए .....की भाव-भूमि पर सांकेतिक व उदाहरण रूप में काव्यात्मकता के साथ वर्णित हैं, ताकि विज्ञजन,सर्वजन व सामान्य जन सभी उन्हें जीवन–व्यवस्था का अंग मानकर उन्हें व्यवहार में लायें |...... स्पष्ट करने हेतु..... कुछ उदाहरण एवं उनका वैज्ञानिक पक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है ------ )


 कृष्ण और गोपिकाएं-- वैदिक अलंकारिक भाषा  में सविता (महा-सूर्य) व उनकी की किरणों  व अन्य अंतरिक्ष-पिंडों के... अन्तरिक्षीय ( कोस्मिक ) गतिक-सम्बन्ध के नृत्य का मूर्त व सांसारिक रूपक हैं | जो समकालीन तांत्रिक प्रभावों की नकारात्मकता के अप्रभावीकरण हेतु इस पौराणिक मानवीकृत कथा रूप में स्वीकृत की गयी |  वैदिक ज्ञान को भक्तिमय रूप में देखें.....

          इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते पिवा त्वस्य गिर्वण :(ऋग्वेद ३. ५ १. १ ० )
        ---अर्थात यह ओज प्रदायक सोम विभिन्न आराधनाओं अर्थात विधियों से प्राप्त किया गया है  हे महान ! आप इसका पान करें , हम आपका आवाहन/ भजन करते हैं |

......जिसका भक्ति भाव पूर्ण अर्थ कर दिया गया...------ओ राधापति श्रीकृष्ण ! जैसे गोपियाँ तुम्हें भजती हैं वेद मन्त्र भी तुम्हें जपते हैं। उनके द्वारा सोमरस पान करो।

           विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य  राधस : सवितारं नृचक्षसं (ऋग्वेद १ .  २ २.  ७).
 

          ------अर्थात वह परमात्मा सब के हृदय में विराजमान सर्वज्ञाता दृष्टा, किसी से भी विभेद\भेदभाव न करने वाला है जो विविध प्रकार व उपायों से पृथ्वी को संपन्न करता है एवं सविता-तारामंडल आदि उसके नेत्र आदि हैं |

-----जिसका भक्ति भाव में अर्थ किया गया है.-------ओ सब के हृदय में विराजमान सर्वज्ञाता दृष्टा जो राधा को गोपियों में से ले गए हमारी रक्षा करो।

          त्वं नृचक्सम वृषभानुपूर्वी : कृष्नास्वग्ने अरुषोविभाही (ऋग्वेद )
 

      ----अर्थात आप ही आकाशी नक्षत्र मंडल हैं जो बलवान सूर्य, वृषभानु, के अवतरित होने से पूर्व रात्रिमें कृष्ण-अग्नि के रूप में प्रकाशित (विद्यमान) रहते हैं...
 

--------जिसको राधा के पिता वृषभानु से जोड़ दिया गया है (-----यह कह कर ...इस मन्त्र में श्री राधा के पिता वृषभानु का उल्लेख किया गया है जो अन्य किसी भी प्रकार के संदेह को मिटा देता है ,क्योंकि वही तो राधा के पिता हैं। )
 राधा---
 सर्व प्रथम ऋग्वेद के --भाग /मंडल१- में----राधस शब्द का प्रयोग हुआ है,जिसको बैभवके अर्थ में प्रयोग कियागया है।
ऋग्वेद-/--में-’  सुराधा’ शब्द श्रेष्ठ धनों से युक्त के  अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है। सभी देवों से उनकीसंरक्षक शक्ति काउपयोग कर धनों की प्रार्थना , प्राक्रतिक सानों का उचित  उपयोग की प्रार्थना की गई है।
 ऋग्वेद -/५२/४०९४ में ’--- राधो’ आराधना’ शब्द शोधकार्यों के लिये भी प्रयोग किये गये हैं,     वस्तुतः रिग्वेदिक  यजुर्वेद  अथर्व वेदिक साहित्य में ’ राधाशब्द की व्युत्पत्ति =रयि(संसारऐश्वर्य,श्री,वैभव) +धा(धारक,धारण करने वालीशक्ति) ,से हुई हैअतः जब उपनिषद व संहिताओं के ग्यान मार्गीकाल में सृष्टि के कर्ता का ब्रह्म वपुरुष,परमात्मा,(कृष्ण) रूप वर्णन हुआ तो समस्त संसार की धारक चित-शक्ति,ह्लादिनी शक्ति,परमेश्वरी(राधाका आविर्भाव हुआ;


सोलह हज़ार रानियाँ -------संगीत विशेषज्ञ मानते हैं कि ब्रज में सोलह हज़ार राग रागनिंयों का निर्माण हुआ था। जिन्हें कृष्ण की रानियाँ भी कहा जाता है|
त्रिगुणात्मक प्रकृति से प्रकट होती चेतना सत्ता!
            श्रीकृष्ण आत्मतत्व के मूर्तिमान रूप हैं। मनुष्य में इस चेतन तत्व का पूर्ण विकास ही आत्म तत्व की जागृति है। जीवन प्रकृति से उद्भुत और विकसित होता है अतः त्रिगुणात्मक प्रकृति के रूप में श्रीकृष्ण की भी तीन माताएँ हैं। 1- रजोगुणी प्रकृतिरूप देवकी जन्मदात्री माँ हैं, जो सांसारिक माया गृह में कैद हैं। 2- सतगुणी प्रकृति रूपा माँ यशोदा हैं, जिनके वात्सल्य प्रेम रस को पीकर श्रीकृष्ण बड़े होते हैं। 3- इनके विपरीत एक घोर तमस रूपा प्रकृति भी शिशु-भक्षक सर्पिणी के समान पूतना माँ है, जिसे आत्म तत्व का प्रस्फुटित अंकुरण नहीं सुहाता और वह वात्सल्य का अमृत पिलाने के स्थान पर विषपान कराती है। यहाँ यह संदेश प्रेषित किया गया है कि-------- प्रकृति का तमस-तत्व चेतन-तत्व के विकास को रोकने में असमर्थ है।
गोवर्धन धारण कथा --इस कथा का आध्यात्मिक संकेत यह है कि गो अर्थात इंद्रियों का वर्धन (पालन-पोषण) ) अर्थात इंद्रियों में क्रियाशील प्राण-शक्ति के स्रोत परमेश्वर पर हमारी दृष्टि होना चाहिए।  
     "यमुनामयादि श्रुतमुद्राधो गव्यं म्रजे निराधो अश्व्यं म्रजे॥" -------- अर्थात यमुना के किनारे गाय,घोडों आदि धनों कावर्धन(व्रद्धि वउत्पादनआराधना सहित करें।
    गवामप व्रजं वृधि कृणुष्व राधो अद्रिवः
    नहि त्वा रोदसी उभे ऋघायमाणमिन्वतः
------कृष्ण= = क्र =कार्य=कर्म
-----राधो = = अराधना, राधन , शोध , नियमितता , साधना .....
---अर्थात ब्रज में ज्ञान व कर्म की साधना पूर्ण शोधों से गौ आदि कृषि कर्म की उन्नति हुई .....   

गोपियों के साथ रासलीला के वर्णन में मन की वृत्तियां ही गोपिकाओं के रूप में मूर्तिमान हुई हैं और प्रत्येक वृत्ति के आत्म-रस से सराबोर होने को रासलीला या रसनृत्य के रूप में चित्रित किया गया है। इससे भी उच्च अवस्था का- प्रेम और विरह के बाह्य द्वैत का एक आंतरिक आनंद में समाहित हो जाने की अवस्था का वर्णन 'महारास' में हुआ है।
--------नंद के घर में कृष्ण को खिलाने के लिए, उनकी सेवा करने के लिए, जिस प्रकार ग्राम भर की गोपियाँ जमघट लगाए बैठी रहती हैं, वह कृष्ण के प्रति उनका वात्सल्य है। गोपी से तात्पर्य केवल युवती बाला ही नहीं है, जो किसी युवा से प्रेम करती है।
     वृन्दावन के गोपाल इतने धनी नहीं हैं कि इतनी सी बात से उन्हें कोई अंतर न पड़ता हो। गोपियों को नगर में जा कर दूध, दही, मक्खन बेच कर अपनी आजीविका भी अर्जित करनी है। कंस का शासकीय कर भी चुकाना है। अत: वे दूध दही बहाने में उदार नहीं हो सकते। ... दूसरी ओर कंस की रानियाँ दुग्ध सरोवर में स्नान करती हैं। वृन्दावन के गोपाल अपने बच्चों के मुख से दूध बचा कर कंस की रानियों के स्नान के लिए भेजने को बाध्य हैं। ... कृष्ण इस अत्याचार को कैसे स्वीकार कर लें। शासन के अत्याचार के प्रति उनका प्रतिरोध मटकियाँ फोड़ कर दूध बहा देने में है। दूध गोपालों का है। उनके बच्चे दूध को तरसें और कंस की रानियाँ दुग्ध सरोवर में स्नान करें, यह असहनीय है। इसीलिए कृष्ण को मक्खन चुराने, मटकियाँ फोड़ने और दूध बहाने की लीला भी करनी पड़ती है।
          ऋग्वेद में विष्णु के लिए प्रयुक्त 'गोप','गोपति', और 'गोपा' शब्द -----गोप-गोपी-परम्परा के प्राचीनतम लिखित प्रमाण हें। इन त्रिपाद-क्षेपी विष्णु के तृतीय पाद-क्षेप परमपद में मधु के उत्स और भूरिश्रृंगा-अनेक सींगोंवाली गउएँ हैं ।कदाचित इन गउओं के नाते ही विष्णु को गोप कहा गया है। इस आलंकारिक वर्णन में अनेक विद्वानों ने विष्णु को सूर्य माना है, जो पूर्व दिशा से उठकर अन्तरिक्ष को नापते हुए तीसरे पाद-क्षेप में आकाश में फैल जाता है। कुछ लोगों ने ग्रह-नक्षत्रों को ही गोपी कहा है, जो सूर्य मण्डल के चारों ओर घूमते हैं|




.सीरध्वज जनक का हल जोतना और जमीन से सीता की उत्पत्ति---जनक जो एक कृषिप्रधान देश का सिरमौर राजा था एवं स्वयं भी हल चलाता था, सीरध्वज..अर्थात हल जोतने में ध्वज रूप... अन्न, धन-धान्य प्रधान, कृषि प्रधान देशों में सिरमौर  | राजा के स्वयम श्रम में भाग लेने से, श्रम के महत्त्व का उदाहरण बनने से  ....खेत जोतने से... लक्ष्मी अर्थात धन, संपत्ति  सम्पन्नता की प्राप्ति हुई... जो तत्पश्चात ..कन्या प्राप्ति के रूपक द्वारा राम की पत्नी सीता ( सीता अर्थात हल के फाल से उत्पन्न, पालक -विष्णु पत्नी लक्ष्मी के अवतार ) के रूप में लोक में प्रतिष्ठित हुई |


श्रुतियों व पुराण-कथाओं में वैज्ञानिक तथ्य .-- अंक-३ ..वायुयान का निर्माण ------ ...डा श्याम गुप्त ...



         श्रुतियों व पुराण-कथाओं में भक्ति-पक्ष के साथ व्यवहारिक-वैज्ञानिक तथ्य --
                

         श्रुतियों व पुराणों एवं अन्य भारतीय शास्त्रों में जो कथाएं भक्ति भाव से परिपूर्ण व अतिरंजित लगती हैं उनके मूल में वस्तुतः वैज्ञानिक एवं व्यवहारिक पक्ष निहित है परन्तु वे भारतीय जीवन-दर्शन के मूल वैदिक सूत्र ...’ईशावास्यम इदं सर्वं.....’ के आधार पर सब कुछ ईश्वर को याद करते हुए, उसी को समर्पित करते हुए, उसी के आप न्यासी हैं यह समझते हुए ही करना चाहिए .....की भाव-भूमि पर सांकेतिक व उदाहरण रूप में काव्यात्मकता के साथ वर्णित हैं, ताकि विज्ञजन,सर्वजन व सामान्य जन सभी उन्हें जीवन–व्यवस्था का अंग मानकर उन्हें व्यवहार में लायें |...... स्पष्ट करने हेतु..... कुछ उदाहरण एवं उनका वैज्ञानिक पक्ष यहाँ क्रमिक रूप में प्रस्तुत किया जायगा.... अंक ३.... वायुयान का निर्माण ------


                         वायुयान का निर्माण ------

         मन्त्र  “ क्रडिं व शर्धो मारुतमनर्वाणं रथे शुभम।..... कण्वा अभिप्रगात।।
         ---- अर्थात क्रीडायें व विभिन्न साधन रूप मरुतो ! तुम कण्व हो, अर्थात शब्द करने वाले हो, तुम्हारे बल से रथ (विमान) चलते हैं इनका कोइ प्रतिरोध नहीं कर सकता | तुम्हारे शब्द से (मन की शक्ति से) चालित विमान अत्यंत प्रभावी हैं उनका कोइ मुकाबला नहीं कर सकता |

         जल, थल व वायु में गतिमान अश्विनी द्वय का विमान ----  
   युवमेत चक्रथु: सिन्धुव प्लव आत्मन्ते दक्षिण तौरमाय
    यन देव मासा निरुहथुसुवप्तनी पेनथकम क्षोद: कं...”.  (ऋग्वेद 1, 182, 5)
  
 -----(हे  आश्विन कुमारो !) आपके द्वारा निर्मित आसमान में पक्षी की भाँति उड़नेवाली, उसी प्रकार स्थल व सागर में समान रूप से स्वचालित रूप से गमनीय नौका पर आरूढ़ होकर आपने आकाशमार्ग से आकर दक्षिण महासागर में डूबते हुए (तुग्र पुत्र भुज्यु ) को बचाया |
  ----- ऋग्वेद मे अश्विनी कुमारों के सूक्तों मे स्थान -स्थान पर विमानों का वर्णन आया है। वस्तुतः देववैद्य व विश्व-चिकित्सक अश्विनी द्वय का यह विमान एक वायु, जल, थल में चालित रोगी व चिकित्सक -वाहन (एम्बुलेंस ) था |

       पुष्पक-विमान----
         ‘तत् पुष्पकं कामगमं विमान मयस्थितं भूधर संनिकाशम्।
         दृष्टा तथा विस्मयमाजगाम राम’ सौमित्ररूदए सत्त
                                       -वाल्मीकि रामायण,
          विश्वकर्मा द्वारा यह रचित विमान मन के समान वेग वाला था। वह सर्वत्र जा सकता था, उसकी गति कहीं रुकती नहीं थी। इस विमान को देखकर भगवान श्रीराम व लक्ष्मण को बड़ा विस्मय हुआ।
      नानोपाकरणैर्युक्तं भास्वतं पुष्पक विदु:।
      पुष्पंक तु समारुह्म परिचकाम मेदिनीम।
      शिल्पा संहिता मे विश्वकर्मा द्वारा निर्मित विभिन्न यन्त्रों से सज्जित भाप के योग से चलने वाला यह पुष्पक विमान पृथ्वी के चक्कर लगाने मे समर्थ था।


        शाल्व का विमान ...सौभ ...
       महाभारत के एक प्रसंग में...शाल्व ने भगवान शिव से कहा.... "हे प्रभो! आप मुझे एक ऐसा विमान दीजिये जो देवता, असुर, मनुष्य, नाग, गंधर्व और राक्षसों द्वारा तोड़ा न जा सके, जहां मेरे मन में जाने की इच्छा हो वह चला जाय और यदुवंशियों के लिए अति भयंकर हो।" 
     शिवजी ने मय दानव को सौभ नामक लोहे का विमान बनाने का आदेश दिया और उसे शाल्व को दे दिया। वह विमान क्या एक नगर ही था। वह इतना अंधकारमय था कि उसे देखना अथवा पकड़ना कठिन था ( अदृश्य होने की क्षमता थी )। चलाने वाला उसे जहां ले जाना चाहता, वहीं वह उसके इच्छा करते ही चला जाता।
     शाल्व ने यह विमान प्राप्त करके द्वारका पर चढ़ाई कर दी, शाल्व ने विमान में बैठ कर अस्त्रों की वर्षा शुरू कर दी। द्वारिकावासी उसके इस आक्रमण से घबरा उठे। श्री कृष्ण की अनुपस्थिति में कृष्ण पुत्र प्रद्युम्न ने सत्ताइस दिनों के इस युद्ध में शाल्व की सेना को नष्ट कर दिया था। युद्ध की सूचना प्राप्ति पर श्रीकृष्ण ने बलराम के साथ  स्वयं द्वारिका आकर सौभ विमान सहित शाल्व का विनाश किया |

----- भारद्वाज संहिता में विविध प्रकार के विमानों के निर्माणकी अभियांत्रिक विधियां वर्णित हैं|
     सोमयान :- भागवत के स्कन्ध 10 मे वर्णन मिलता है। प्राचीन साहित्य मे अनेक प्रकार के विमानों के वर्णन है। विमान को रथ भी कहा जाता है। वस्तुत: स्थल,जल,तथा नभ तीनों स्थानों पर चलने वाले यानों को रथ कहा गया है।
भारद्वाज रचित यन्त्र सर्वस्व के वैमानिक प्रकरण मे विमान के ३२ रहस्यों का वर्णन मिलता है उनसे विमान से मारक ध्रूम्र फेंक कर शत्रु विमान को नष्ट करना विमान अदृश्य कर देना ,शत्रु की स्मृति नष्ट कर देना दूसरे विमान में बैठे शत्रु की वार्ता सुन लेना जैसे रहस्यों का वर्णन है।
विधुत रथ पनडुब्बी तथा अन्तरिक्ष यान का वर्णन भी मिलता है।
शकत्युद्रमो भूतवाहो धूमयानश्श्सिखोदगम:।
अंशुवाहहस्तारामुखो मणिवाहो मरुत्सख: इत्यष्टकाधिकरणे वर्गाण्युक्तानि शास्त्रत॥
        अर्थात बिजली से चलने वाला अग्रि जल,वायु आदि भूतों से चलने वाला वाष्प से चलने वाला पंचशिखी के तेल से चलने वाला सूर्य की किरणों से चुम्बक मणिवाह (सूर्यकान्त चन्द्रकान्त मणि से ) केवल वायु से चलने वाला इस प्रकार आठ प्रकार की शक्तियोंसे विमान चलते थे।         अतिसूक्ष्म विज्ञानयुक्त यन्त्र को मणि कहा जाता है। मणिवाह शक्ति सूर्यकान्त तथा चन्द्रकान्त मणियों द्वारा संचालित होती थी। वह इन दोनों की किरण शक्तियों को आबद्ध कर तैयार की जाती थी। इसी प्रकार उल्कारस भी एक अद्द्रुत शक्ति थी। शक्तियां आकाश स्थित इन्द्र मरुत.सूर्य,चन्द्र, किरणों से सम्बन्धितथी।
        
गरुड विमान:- विष्णु के वाहन गरुड है। परन्तु यह गरुड कोई पक्षी नही था। बल्कि श्येन की आकृति का विशिष्ट प्रकार का विमान था।
आ वां अशिवना श्येनपत्व: सुमृलीक: स्ववां यात्वर्वाड।
 ------अर्थात श्येन (गरुड) पक्षी के तुल्य वह आकाश मे उडे॥

      यह विमान विष्णु के पास था विष्णु तथा विश्वकर्मा समकालीन थे। इसके निर्माता विश्वकर्मा जी थे।
    मयूर विमान:- चिन्तामणि नाम के ग्रन्थ मे मयूर की आकृति के विमान का वर्णन मिलता  है। संस्कृत मे वि का अर्थ पक्षी तथा मान अर्थ अनुरुप है अत: विमान का अर्थ पक्षी के सदृश होता है।
     
     कामगं विमान:- भागवत पुराण मे इसकी आश्व्चर्य्जनक विशेषता इन शब्दों में बताई है-     
       क्कचिद भूमौ क्क्चिदव्योम्नि गिरिश्रृअगे जले क्क्चित।
-----अर्थात यह विमान कभी भूमि पर कभी आकाश मे कभी जल मे तथा कभी पर्वतों की चोटी पर चल सकता है।

      शातकुम्भ विमान:- ब्रह्मवैवर्त पुराण मे सौचक्रो से युक्त शातकुम्भ नामक रथ का वर्णन मिलता है।
      वैहायस विमान:- भागवत मे मय निर्मित सामरिक विमान का वर्णन मिलता है। इसमे सब प्रकार की युद्ध सामग्री भरी हुई होती थी। तथा यह अदृश्य हो सकता था। इस पर चढ कर बलि युद्ध करने को गये ।

     मरुतों के विमान ---अंतरिक्ष से संचार करनेवाले आकाशयान उनके पास थे।
     हे मरुतो! तुम अंतरिक्ष से हमारे पास आओ। (ऋ. 5538)
      आप मनुष्य हैं पर आपकी स्तुति करनेवाला अमर होता है। आप रुद्र के मनुष्य रूपी पुत्र हैं। (ऋ. 1384, 1642)
        इस तरह वेद में मरुतों का वर्णन "सैनिकीय गण" के रूप में किया गया है। ये मरुत मानव थे। मरुतों का रथ बिना घोड़ों के भी चलनेवाला था। किसी पशु पक्षी के जोतने के बिना वह चलता था।
  मन्त्र  “ क्रडिं व शर्धो मारुतमनर्वाणं रथे शुभम।..... कण्वा अभिप्रगात।।
         ---- अर्थात क्रीडायें व विभिन्न साधन रूप मरुतो ! तुम कण्व हो, अर्थात शब्द करने वाले हो, तुम्हारे बल से रथ (विमान) चलते हैं इनका कोइ प्रतिरोध नहीं कर सकता | तुम्हारे शब्द से (मन की शक्ति से) चालित विमान अत्यंत प्रभावी हैं उनका कोइ मुकाबला नहीं कर सकता |

ऋग्वेद में वर्णन है -----हे मरुतो! तुम्हारा रथ (अन्:-एन:) निर्दोष है, (अन्-अश्व:) इसमें घोड़े नहीं जोते जाते, तथापि वह (अजति) चलता है। वह रथ (अ-रथी:) रथी बिना भी चलता है। (अन्-अवस:) रक्षक की जिसको जरूरत नहीं है, (अन् अभीशु:) लगाम भी नहीं है, ऐसा तुम्हारा रथ (रजस्तू:) धूलि उड़ाता हुआ (रोदसी पथ्या) आकाश मार्ग से (साधन् याति) अपना अभीष्ट सिद्ध करता हुआ जाता है।"
मरुतों के चार प्रकार के रथ थे--
(1) अश्व रथ,
(2) हरिणियों से चलनेवाला रथ,
(3) अनश्व रथ अर्थात् घोड़े के बिना वेग से चलनेवाला रथ,
(4) आसमान में (रोदसी) उड़नेवाला रथ अर्थात् वायुयान (ऋ. 6667)



लोकप्रिय पोस्ट

फ़ॉलोअर

ब्लॉग आर्काइव

विग्यान ,दर्शन व धर्म के अन्तर्सम्बन्ध

मेरी फ़ोटो
लखनऊ, उत्तर प्रदेश, India
--एक चिकित्सक, शल्य-विशेषज्ञ जिसे धर्म, दर्शन, आस्था व सान्सारिक व्यवहारिक जीवन मूल्यों व मानवता को आधुनिक विज्ञान से तादाम्य करने में रुचि व आस्था है।