रविवार, 4 अगस्त 2024

कस्मै देवाय हविषा विधेम -- डॉ.श्याम गुप्त ..

 कस्मै देवाय हविषा विधेम -- डॉ.श्याम गुप्त ..

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भारतीय संस्कृति की एक महत्वपूर्ण विशिष्टता है, देवोपासना, जो संशयात्मक जिज्ञासा के सहित आस्तिकता के साथ कर्म के महत्व को प्रतिपादित करती है ।
वैदिक समाज में आधुनिक काल की तरह सभी लोग देवोपासक नहीं थे | मूल वैदिक भाव सदा से ही यही रहा है कि सतत् कर्म का कोई विकल्प नहीं है। प्रकृति की सभी शक्तियां कर्मरत व गतिशील हैं। पृथ्वी माता सतत् गतिशील है। वह सूर्य की परिक्रमा करते हुए अपनी धुरी पर नृत्य मगन रहती है। माता पृथ्वी के अंतस् में अपनी संतति को सुखी बनाए रखने की अभिलाषा है। इसलिए वह सतत कर्मरत है ।
मनुष्य के चित्त में भी सुखी जीवन की अभिलाषा है और सुख, स्वस्ति और आनंद, परिश्रम के पुरस्कार होते हैं।
मनुष्य आदिम काल से जिज्ञासु है। तमाम प्रश्न उससे मथते रहे हैं। भारत के वैदिक काल में ऐसी शिखर जिज्ञासा थी कि---
---- क्या परिश्रम का फल अपने आप मिलता है? अथवा कोई अज्ञात चेतन शक्ति कर्मफल की दाता विधाता है?
---क्या देव शक्तियां हम सबको प्रसन्नता देती हैं?
---क्या सृष्टि का संचालक आराधना उपासना से प्रसन्न होता है? या अनेक देवशक्तियां कर्मफल का आवंटन करती हैं?
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ऋग्वेद(1.10.121) में प्रजापति की स्तुति हैं उन्हें जगत का पालक संचालक कहा गया है-
हि॒र॒ण्य॒ग॒र्भः सम॑वर्त॒ताग्रे॑ भू॒तस्य॑ जा॒तः पति॒रेक॑ आसीत् ।
स दा॑धार पृथि॒वीं द्यामु॒तेमां कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥
------परमात्मा जगत् से पूर्व वर्त्तमान था और है, सूर्यादि प्रकाशमान पिण्डों को अपने अन्दर रखता हुआ सारे जगत् का स्वामी पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्युलोक को धारण करता है, उस परमात्मा की आत्मभाव से उपासना करनी चाहिये ॥१॥
इन मंत्रों में एक सतत जिज्ञासा भी है- ’’कस्मै देवाय हविषा विधेम। कि- ‘‘हम किस देवता को हवि दें? प्रश्न बना रहता है। देवता ढेर सारे हैं। हम सबका मन भी प्रश्न करता है कि किसकी उपासना करें हम?
****श्रद्धा और जिज्ञासा का दुर्लभ भाव, श्रद्धा और जिज्ञासा का ऐसा दुर्लभ साथ, भारतीय वांग्मय में ही पाया जाता है ।***** उदाहरण स्वरूप --
इन्द्र -
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भारतीय देवतंत्र के बड़े देवता हैं। ऋग्वेद में उन्हीं की स्तुति के मंत्र सर्वाधिक हैं। वे ऋग्वेद से लेकर पुराणों तक छाए हुए हैं।
----पुराणों वाले इन्द्र-- तप से प्रसन्न नहीं होते। वे अपनी सत्ता के प्रति सतर्क जान पड़ते हैं। तपस्वी उनकी पदवी छीन सकते हैं। वे तप भ्रष्ट करने के लिए रूपवती अप्सराएं भेजते थे। अप्सराए तपस्वी को पथच्युत करती थी। प्रश्न उठ सकता है कि क्या बहुत सारे लोग अप्सराओं के लिए भी तपस्या करते रहे होंगे।
----ऋग्वेद वाले इन्द्र- जल अवरोध हटाते हैं। नदी प्रवाह उन्हीं की देन है। वे वृत्तासुर हंता हैँ, तो फिर हम किस इन्द्र की उपासना करें? क्या वैदिक देव इन्द्र की या पौराणिक इन्द्र की।
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*** जिज्ञासा व संशय शोध का प्रेरक होता है।**** ऋग्वेद में इंद्र को लेकर भी प्रश्न उठाए गए हैं। इन्द्र की स्तुति ठीक है लेकिन ऋषि के मन में प्रश्न है कि ‘‘वे किससे याचना करते हैं? वे कहां हैं? उनके विषय में यह भी शंका है कि वे नहीं हैं।’’
एक मंत्र में कहा गया है ‘‘बहुतों का कथन है कि कोई इंद्र नहीं है। क्या किसी ने उसे कभी देखा है? हम किसके लिए स्तुति करें?’’ बड़ी बात है कि वैदिक पूर्वजों के मन में अपने देवों के अस्तित्व के बारे में भी संशय और जिज्ञासा बनी रहती है।
------ देवता उपास्य हैं। उनके सम्बन्ध में जिज्ञासु बने रहना भारतीय चिंतन की विशेषता है।**** श्रद्धा और जिज्ञासा का ऐसा साथ दुर्लभ है। ****यह भारतीय मनीषा का विशिष्ट पक्ष है ।
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भारत में अनेक देवों की जन्मतिथि के उत्सव बनाए जाते हैं। श्री राम और श्री कृष्ण भारतीय लोकमन के ईश्वर हैं। दोनों ऋग्वेद के प्रतिष्ठित देव विष्णु के अवतार हैं। दोनों की जन्मतिथि पर महोत्सव होते हैं। वे कालखण्ड विशेष में जन्मे, इसके पहले वे इस रूप में नहीं रहे होंगे।
------ ऋग्वेद (10.72) में कहते हैं ‘‘एक समय देवताओं से पहले का भी है जब असत् से सत् उत्पन्न हुआ।’’
---- देवों पर ऐसी टिप्पणी साहसपूर्ण है और वैज्ञानिक भी है। कहते हैं कि हम देवों के प्रादुर्भाव का वर्णन उत्तम वाणी से करते हैं
‘‘असत् से सत् आने के बाद चेतना फैल गई।
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अदिति से दक्ष आए और दक्ष से अदिति।’’ अदिति, ऋग्वेद में निराले देवता हैं। यहां अदिति सम्पूर्णता की पर्याय हैं। असत् अव्यक्त के प्रकट होते ही अदिति।
---- अदिति से विस्तार और फिर लगातार अदिति।
----- दक्ष का अर्थ है निपुणता, अदिति का अर्थ है पूर्णता। पूर्णता की धारणा से सही कौशल आता है; सही कौशल की धारणा से पूर्णता आती है।
ऋग्वेद में सम्पूर्ण व्यक्त जगत का एक नाम है अदिति।
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अदिति द्युलोक है, अंतरिक्ष है, माता-पिता और पुत्र है, पांचों जन है, जो उत्पन्न हो चुका है और होगा, वह सब अदिति है।(1.89.10)
ऋषि कहते हैं असत् से सत् आया। सम्पूर्णता से दक्ष आए। दक्ष से अदिति आई। (यहां सृष्टि के सतत् प्रवाह का वर्णन है। ब्राह्मणस्पति(अदिति ने लोहार की तरह इन्हें पकाया,गढ़ा)
******अदिति- क्षमता से अमृत बंधु देवों का जन्म हुआ— तां देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृत बन्धव:।ऋग्वेद 2—5......
अमृत बंधु का अर्थ है न मरने वाला। देव अमृत बंधु है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अर्थ है कि देवों का उद्भव सृष्टि जन्म के प्रथम चरण के बाद हुआ।
------ऋषि देवों को सम्बोधित करते हैं, 'हे देवो! जब आप इस विस्तृत सलिल(मूल तत्व जल)में प्रतिष्ठित हुए तब आपके नृत्य से तीव्र रेणु प्रकट हुए अत्रा वो नृत्यतामिव तीव्रो रेणुरपायत'(ऋग. 6) , इसी कौं नटराज शिव का सृष्टि सृजक कोस्मिक नृत्य रूप में प्राकट्य प्रदर्शित किया जाता है ।
ऋग्वेद के ऋषि तत्वबोध से युक्त हैं। ****दुनिया की अन्य देव-आस्थाओं की तरह वे देवताओं को सृष्टि का रचनाकार नहीं मानते।**** यथार्थवादी हैं, वे पूर्वकाल को भी कई खण्डों में बांटते हैं। एक समय देवताओं से भी पहले का है, जब असत् से सत् उत्पन्न हुआ (ऋ. 10.72.3)।...
देवोँ के ज्ञान की भी सीमा है, व भारतीय प्रज्ञा का साहस---
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भारतीय देवतंत्र विशिष्ट व वैचित्र्य पूर्ण है। प्रत्येक समाज में विद्वानों और ज्ञानियों का एक वर्ग होता है। देवों की तुलना में मनुष्य का ज्ञान सीमित होना चाहिए--
परंतु पुनर्जन्म प्राचीन भारतीय चिन्तन की चुनौती है। कठोपनिषद् में पुनर्जन्म की प्रीतिपूर्ण चर्चा है। यम मृत्यु के देवता है। युवा नचिकेता उनसे पुनर्जन्म पर प्रश्न करता है कि क्या मृत्यु के बाद जीवन का संपूर्ण नाश हो जाता है? या जीवन की गति किसी न किसी रूप में चला करती है?
----- यम स्वयं देवता है। वे कहते हैं कि ‘‘नचिकेता इस प्रश्न पर देवताओं में भी संशय है। यह प्रश्न न पूछो।’’ इसका अर्थ ---
---- एक अर्थ है कि देवों के ज्ञान की भी सीमा है।
---- दूसरा अर्थ यह भी है कि देवता भी संशयी और जिज्ञासु होते हैं। वे गंभीर विषयों पर जल्दबाजी में निर्णय नहीं लेते।
----- तीसरा अर्थ यह भी संभव है कि कठोपनिषद् के रचनाकाल में पुनर्जन्म पर विद्वानों में बहस थी। तब निर्णायक मत नहीं रहा होगा।
देवों में बहस का अर्थ विद्वानों में बहस लिया जाना चाहिए। तो भी कठोपनिषद् के रचनाकार का साहस अनूठा है। उसने ‘‘देवों में भी संशय’’ लिखकर भारतीय प्रज्ञा के साहस का परिचय दिया है।
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देवता कितने हैं ? यह प्रश्न वृहदारण्यक उपनिषद् में है। ऋग्वेद में एक सूक्त में विश्वामित्र ने अग्निदेव से कहा ‘‘हमारे यज्ञ में आप 33 देवों को पत्नी सहित लाएं।’’
यही ऋषि विश्वामित्र अन्यत्र कहते हैं कि ‘‘तीन हजार तीन सौ उन्तालीस देवों ने अग्नि की उपासना की।’’
अग्नि प्रकृति की विराट शक्ति है। वे सूर्य में हैं, जल में हैं। हम मनुष्यों की काया में हैं। तीन हजार से ज्यादा देव उनकी उपासना करते है तो कोई बड़ी बात नहीं।
भारतीय मन प्रश्न करता है कि विश्वामित्र ने यज्ञ में 33 देव ही क्यों बुलाए? विश्वामित्र के ही अनुसार देव 3 हजार से ज्यादा हैं। संभवतः 33 देव ज्यादा महत्वपूर्ण रहे होंगे। शतपथ व्राह्यण में 33 देवों की सूची हैं, 8 वसु हैं, 11 रूद्र हैं। 12 आदित्य हैं। इन्द्र और प्रजापति मिलाकर कुल 33 देव। अग्नि, पृथ्वी, वायु, आदित्य, अंतरिक्ष, धुलोक, चन्द्र और नक्षत्र वसु हैं। इसी तरह 10 प्राण इन्द्रिय व 11वां मन रूद्र हैं।
देवों की संख्या बढ़ती रही।
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भारत का मन दिव्यता में रमता है। जहां दिव्यता देखी, वहां-वहां देव अनुभूति। देवों की संख्या बढ़ती रही। वैदिक देवतंत्र में पौराणिक देव जुड़े। आधुनिक काल में बहुत सारे लोग देवों को अंधविश्वास बताते हैं तो भी देव उपासकों की संख्या बढ़ी है।
----देवी उपासना का क्षेत्र पं0 बंगाल और असम सहित उत्तर भारत के बड़े भू-भाग तक विस्तृत है।
---- श्री राम भक्त हनुमान की उपासना का क्षेत्र व्यापक हुआ हैं
---- शिव का क्या कहना? पूरा पश्चिम एशिया शिव भक्ति से ओतप्रोत रहा है, अपितु समस्त विश्व , जम्बू द्वीप में शिव की उपासना होती रही है ।
आस्तिकता, जिज्ञासा व शृद्धायुत कर्म – जीवन का आनन्द –
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वैदिक समाज में भी आधुनिक काल की तरह सभी लोग देवोपासक नहीं थे।
-- नास्तिक देव कृपा नहीं मानते। देवोपासक देवोपासना न करने वालों से असहमत थे। वे देवोपासना के तमाम लाभ बताते थे। यथा
----ऋग्वेद के एक मंत्र के अनुसार ‘‘देव विश्वासी का रथ तेज चलता है।’’ अत: प्रतीत होता है कि यज्ञ या देवोपासना न करने वाले भी समृद्ध और सुखी तो रहे ही होंगे। हाँ देव कृपा वाले अधिक संतुष्ट व पूर्ण होँगे ।अर्थात ****जो प्रकृति व प्रकृति के अन्य तत्वोँ के साथ श्रद्धा, विश्वास व सहभागिता के साथ रहेगा वह अधिक सुखी व समृद्ध होगा।**** यथा विश्वेदेवा सूक्त , ऋग्वेद --
ओमश्चर्षणीधृतो विश्वे देवस आ गत।
दाश्वांसो दाशुः सुतम् ॥ऋक 1.3.7॥
---- जब हम प्रकृति के प्रति श्रद्धा के साथ साधना की उपरोक्त प्रक्रिया में जानबूझकर भाग लेते हैं, तो यह एक यज्ञ बन जाता है, जहाँ हम देवताओं के साथ ऋत या ब्रह्मांडीय व्यवस्था को कायम रखते यह बाहरी रूप से प्राकृतिक प्रचुरता और आंतरिक रूप से पूर्णता लाता है।
विश्वे देवासो अस्रिध एहिमायासो अद्रुहः ।
मेधं जुषन्त वह्नयः ॥१.३.९॥
---- वैदिक प्रकृति दर्शन के अनुसार ऋत या ब्रह्मांडीय व्यवस्था सत्य और न्याय पर आधारित है। यदि मनुष्य सत्यनिष्ठ और धर्म की ओर उन्मुख हो जाए तो प्रकृति उसका जवाब देगी। हमारे अंदर की प्रकृति का बाहरी प्रकृति से यह संबंध वैदिक प्रकृति दर्शन की एक अनूठी अवधारणा है।
विश्वे देवासो अप्तुरः सुतमा गन्त तूर्णयः ।
उस्रा इव स्वसराणि ॥१.३.८॥
---- प्रकृति के वैदिक दर्शन के अनुसार, यज्ञ चक्र ऋत या ब्रह्मांडीय व्यवस्था के चारों ओर परिक्रमा करता है यह एक मंदिर में देवता के चारों ओर परिक्रमा करने जैसा है। जितना अधिक हम परिक्रमा करते हैं और देवता पर चिंतन करते हैं, उतनी ही हमारी आंतरिक भक्ति बढ़ती है। यह हमारे जीवन में ईश्वरीय कृपा के रूप में परिलक्षित होता है।
ऋषि कहते हैं ‘‘यज्ञ न करने वाले के स्वर्ग पहुंच जाने पर इन्द्र का सखा पर्वत उसे नीचे ढकेल देता है।’’
------ ऐसा होता था या नहीं? पार इस तरह के प्रश्न संदेह और संशय के रास्ते वास्तविक ज्ञान की ओर ले जाते हैं।
----- 33 देवों की सूची में पृथ्वी, सूर्य, वायु, अग्नि आदि में प्रत्यक्ष हैं।
---- देवता प्रसन्न होकर प्रत्यक्ष धन, यश, समृद्धि भले ही न देते हों लेकिन वैज्ञानिक तत्व दृष्टि में ----
पृथ्वी देव की प्रसन्नता का सम्बन्ध पर्यावरण और जैव विविधता से है। पर्यावरण ठीक तो मानवता स्वस्थ। वायु देव स्वस्थ प्रसन्न तो सभी जीव दीर्घ जीवी। ऐसे प्रत्यक्ष देवों के अलावा तमाम अनुभूतिपूरक दिव्यताएं हैं।
---वे हमारी उपासना से प्रसन्न होते हैं या नहीं? यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है।
****** हम उपासना के समय अपनी विशेष चित्त दशा में जाते हैं। आस्तिक चित्त दशा हमको अवसाद, विषाद से दूर रखते हुए प्रसादपूर्ण बनाती है। इसलिए सतत् जिज्ञासा, श्रद्धा और आस्तिकता के साथ कर्मरत रहने में ही आनंद है।******
चित्र---देवता व यज्ञ --
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लखनऊ, उत्तर प्रदेश, India
--एक चिकित्सक, शल्य-विशेषज्ञ जिसे धर्म, दर्शन, आस्था व सान्सारिक व्यवहारिक जीवन मूल्यों व मानवता को आधुनिक विज्ञान से तादाम्य करने में रुचि व आस्था है।