रविवार, 13 फ़रवरी 2011

सृष्टि महाकाव्य -सर्ग अष्टम- सृष्टि खंड ..भाग दो...


सृष्टि महाकाव्य---अष्टम सर्ग--सृष्टि खंड--भाग दो....डा श्याम गुप्त ....




मानव व-(,,,ईषत- इच्छा या बिगबेंग--एक अनुत्तरित उत्तर )-- -------वस्तुत सृष्टि हर पल, हर कण कण में होती रहती है,यह एक सतत प्रक्रिया है , जो ब्रह्म संकल्प-(ज्ञान--ब्रह्मा को ब्रह्म द्वारा ज्ञान) ,ब्रह्म इच्छा-(एकोहं बहुस्याम ... इच्छा) सृष्टि (क्रिया- ब्रह्मा रचयिता ) की क्रमिक प्रक्रिया है --किसी भी पल प्रत्येक कण कण में चलती रहती है, जिससे स्रिष्टि व प्रत्येक पदार्थ की उत्पत्ति होती हैप्रत्येक पदार्थ नाश(लय-प्रलय- शिव ) की और प्रतिपल उन्मुख है
(यह महाकाव्य अगीत विधामें आधुनिक विज्ञान ,दर्शन व वैदिक-विज्ञान के समन्वयात्मक विषय पर सर्वप्रथम रचितमहाकाव्य है , इसमेंसृष्टि की उत्पत्ति, ब्रह्माण्ड व जीवन और मानव की उत्पत्ति के गूढ़तम विषयको सरल भाषा मेंव्याख्यायित कियागया है | इस .महाकाव्यको हिन्दी साहित्य की अतुकांत कविता की 'अगीत-विधा' के छंद - 'लयबद्धषटपदी अगीत छंद' -में -
निवद्ध किया गया है जो एकादश सर्गों में वर्णित है).... ...... रचयिता --डा श्याम गुप्त ...


इससे पहले सप्तम सर्ग में ब्रह्मा को भूली हुई पुरा सृष्टि का ज्ञान हुआ एवं वे समस्त बिखरे तत्वों को समेट कर बने हुए आदि तत्व , पंचौदन अजः से सृष्टि रचना हेतु तत्पर हुए....प्रस्तुत अष्टम सर्ग -सृष्टि-खंड में --सृष्टि निर्माण के विभिन्न चरणों ,चेतन व अचेतन - जड़, जीव , जंगम,ऊर्जाओं की उत्पत्ति व ब्रह्मा द्वारा अपने विभिन्न भावों -रूपों द्वारा मानव व मानवेतर सृष्टि विभिन्न गुणों , भावों की सृष्टि व उनके विकास का विशद वर्णन किया गया है; एवं आधुनिक विज्ञान के जीव उत्पत्ति मत से तादाम्य भी प्रस्तुत किया गया है| कुल ३२ छंद ---द्वितीय भाग --छंद १६ से ३२ तक.....

१६-
प्रारम्भिक क्रम में ही सृष्टि के,
असावधानी वश ब्रह्मा की ;
सृष्टि तमोगुणी व्यक्त होगई |
अज्ञान भोग इच्छा आग्रह और,
क्रोध सहित जो सदा सर्वदा;
थी योग्य पुरुषार्थ भाव के ||
१७-
तिर्यक सृष्टि रची ब्रह्मा ने,
जो थे पशु-पक्षी अज्ञानी ;
अहंकारमय शून्य-विवेकी ,
भ्रष्ट आचरित, कुमार्ग गामी |
सभी सृष्टि ,यह भी निष्फल थी ,
अति योग्य पुरुषार्थ भाव के ||
१८-
सात्विक-सृष्टि की उत्पत्ति से,
भी ब्रह्मा को मिला नहीं सुख;
ज्ञानवान अति दिव्य विषय के-
प्रेमी थे, वे सभी दिव्य जन |
अनुपयोगी थे वे सब भी ,
थे योग्य पुरुषार्थ भाव के ||
१९-
तप साधना युक्त भाव में ,
ब्रह्मा ने मानव रच डाला |
क्रियाशील अतिविकसित था जो -
तीन गुणों युत,ज्ञान कर्म युत,
साधनशील सदा लक्ष्योंन्मुख,
अतः हुआ दुःख का सागर भी ||
२०-
सुख-दुःख,द्वंद्व-भाव युत मानव,
उत्तम साधक रूप ब्रह्म का |
सब साधन सब ज्ञान-गुणों युत ,
श्रेय-प्रेय के सभी योग्य था |
धर्म, अर्थ और काम मोक्ष के,
पुरुषार्थ के सदा योग्य था ||
२१ -
विविध भाव और रूप प्रकृतिसे ,
विधिना ने की विविध सर्जना |
तमो-भाव में असुर,जानु से-
वैश्य,चरण से शूद्र बन गए |
त्याग किया जब तम शरीर का ,
रात्रि, रात्रि के भाव बने सब ||
२२-
भाव, सत्व-गुण से ब्रह्मा के,
बने देव और मुख से ब्राह्मण ;
पार्श्व भाग से बने पितृगण,
वे संध्या के भाव बन गए |
देह त्याग से सत्व भाव की,
दिन और दिन के भाव बने सब ||
२३-
भाव रजोगुण से सब मानव ,
काया से वे काम-क्षुधा सब |
बक्षस्थल से उस ब्रह्मा के,
क्षत्रिय,क्षत्रिय-भाव बने सब |
रज: भाव की देह त्यागकर ,
ब्रह्मा उषा -भाव होगये ||
२४-
अन्धकार में भूखी-सृष्टि,
राक्षस,यक्ष आदि हुए निर्मित;
भक्षण रक्षण भाव बनाया |
केश गिरे सिर के, तनाव में -
ब्रह्मा के, अहिवर्ग बन गया ;
और गायन क्षण में गन्धर्व ||
२५-
क्रोध में क्रोधी,मांसाहारी ,
पीतवर्ण मुख बने पिशाच |
पूर्व मुख से गायत्री-ऋक,
दक्षिण मुख से बृहत्साम-यजु;
सामवेद-जगती,पश्चिम मुख,
उत्तर से, अथर्व-वैराग्य ||
२६-
ब्रहमचर्य, गृह, वानप्रस्थ और-
सन्यासादिक् चार आश्रम |
मानव जीवन की उन्नति के,
क्रमिक विकास के भाव बनाए |
धर्म-विमुख, प्रभु-विमुख जनों को,
किया नरक का दंड विधान ||
२७-
क्रमिक विकास है यह सृष्टि का,
अथवा ब्रह्म का क्रमिक-विधान |
अथवा प्रभु की क्रमिक सर्ज़ना ,
ब्रह्मा की स्मृत-स्फुरणा |
किन्तु यही क्रम है विकास का,
जो विज्ञान ने अब ज़ाना है ||
२८-
नव-विज्ञान यही कहता है,
पहले जड़-प्रकृति बनी सब |
अंतरिक्ष का, ब्रह्माण्ड का,
फैलते जाना सृष्टि-क्रम है |
और सिकुड़ना लय का क्रम है,
कारण ज्ञात नहीं हो पाया ||
२९-
जड़ प्रकृति-कण में संयोग से,
रासायनिक प्रक्रिया हो गयी |
अथवा उल्का के निपात से,
जड़ जल-अणु में जीवन पनपा |
एक कोष चेतन प्राणी से,
क्रमिक विकास हुआ मानव का ||
३०-
मानव का जो आज रूप है,
क्रमिक विकास हुआ वानर से|
थलचर नभचर अन्य सभी हैं,
विक्सित रूप मत्स्य-जलचर से |
जल में प्रथम जीव आया था,
धूम्रकेतु संग अंतरिक्ष से ||
३१-
श्रुति दर्शन अध्यात्म बताता-
चेतन रहता सदा उपस्थित ,
इच्छा रूप में पर:ब्रह्म की ;
मूल चेतना सभी कणों की-
जो गति बन कर , करे सर्जना ,
स्वयं उपस्थित हो कण कण में ||
३२-
चेतन भाव कणों से सारे,
जड़ और जंगम रूप उभरते;
पूर्व-नियोजित, निश्चित क्रम से,
जीव और जड़ सृष्टि बनाते |
लय में जड़,चेतन में लय हो,
चेतन , ब्रह्म में लय होजाता || ----अष्टम सर्ग समाप्त ....क्रमश: ---नवम सर्ग.....


( कुंजिका- १= पशु, पक्षी सृष्टि जो विवेक रहित होते हैं ; २= देव, मुनि आदि सात्विक सृष्टि जो कर्म नहीं करते ; ३=संसार व मोक्ष , ज्ञान व अज्ञान जीवन के दोनों पक्षों का संयोजन ; ४= कर्म कर सकने की योग्यता , श्रेय-प्रेय दोनों के समन्वय से जीवन के व्यवहारिक पक्ष की योग्यता सिर्फ मानव में ही होती है ; ५= ब्रह्मा के विविध रूपों व भावों के शरीरों से विविध सृष्टि हुई ; ६= रेंगने वाले सभी जीव ; ७= आधुनिक विज्ञान के अनुसार पहले जड़ प्रकृति बनी फिर संयोग से या अंतरिक्ष से , धूम्रकेतु द्वारा पृथ्वी के जड़ कणों में परिवर्तन से (चेतन) जीवन की उत्पत्ति हुई ; ८= वैदिक विग्यान के अनुसार चेतन सदा ही उपस्थित रहता है( बस व्यक्त -अव्यक्त होता रहता है ) उसी से पहले समस्त जड़ जगत की उत्पत्ति होती है फिर चेतन तत्व (ब्रह्म-तत्व) प्रत्येक तत्व( जड़ व जीव ) में प्रवेश करके उसका मूल कार्यकारी भाव बनता है तभी कोई भी कण या तत्व --जड़ या जीव क्रिया करने लायक होता है |)

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लखनऊ, उत्तर प्रदेश, India
--एक चिकित्सक, शल्य-विशेषज्ञ जिसे धर्म, दर्शन, आस्था व सान्सारिक व्यवहारिक जीवन मूल्यों व मानवता को आधुनिक विज्ञान से तादाम्य करने में रुचि व आस्था है।