क्या विज्ञान ही ईश्वर है?विज्ञान कथा डा श्याम गुप्तआज रविवार है, रेस्ट हाउस की खिड़की से के सामने फैले हुए इस पर्वतीय प्रदेश के छोटे से कस्बे में आस पास के सभी गाँवों के लिए एकमात्र यही बाज़ार है। यूं तो प्रतिदिन ही यहाँ भीड़-भाड़ रहती है परन्तु आज शायद कोई मेला लगा हुआ है,कोई पर्व हो सकता है।यहाँ दिन भर रोगियों के मध्य व सरकारी फ़ाइल रत रहते समय कब बीत जाता है पता ही नहीं चलता। तीज, त्यौहार पर्वों की बात ही क्या। आज न जाने क्यों मन उचाट सा होरहा है। मैं अचानक कमरे से निकलकर, पैदल ही रेस्ट हाउस से बाहर ऊपर बाज़ार की ओर चल देता हूँ, अकेला ही, बिना चपरासी, सहायक, ड्राइवर या वाहन के, मेले में।शायद भीड़ में खोजाना चाहता हूँ, अदृश्य रहकर, सब कुछ भूलकर, स्वतंत्र, निर्वाध, मुक्त गगन में उड़ते पंछी की भांति। क्या मैं भीड़ में एकांत खोज रहा हूँ?शायद हाँ। या स्वयं की व्यक्तिगतता (प्राइवेसी) या स्वयं से भी दूर... स्वयं को। एक पान की एक दूकान पर गाना आ रहा है ..'ए दिल मुझे इसी जगह ले चल ...' सर्कस में किसी ग्रामीण गीत की ध्वनि बज रही है। [Photo]ग्रामीण महिला -पुरुषों की भीड़ दूकानों पर लगी हुई है। महिलायें श्रृंगार की दुकानों से चूड़ियाँ खरीद-पहन रहीं हैं, पुरुष -साफा, पगड़ी, छाता, जूता आदि। नव यौवना घूंघट डाले पतियों के पीछे पीचे चली जारहीं हैं, तो कहीं कपडे, चूड़े, बिंदी, झुमके की फरमाइश पूरी की जा रही है। तरह तरह के खिलोने--गड़-गड़ करती मिट्टी की गाड़ी, कागज़ का चक्र, जो हवा में तानने से चक्र या पंखे की भांति घूमने लगता है। कितने खुश हैं बच्चे ...।मैं अचानक ही सोचने लगता हूँ....किसने बनाई होगी प्रथम बार गाड़ी, कैसे हुआ होगा पहिये का आविष्कार...! ये चक्र क्या है, तिर्यक पत्रों के मध्य वायु तेजी से गुजराती है और चक्र घूमने लगता है....वाह ! क्या ये विज्ञान का सिद्धांत नहीं है? क्या ये वैज्ञानिक आविष्कार का प्रयोग-उपयोग नहीं है...?आखिर विज्ञान कहाँ नहीं है...? मैं प्रागैतिहासिक युग में चला जाता हूँ, जब मानव ने पत्थर रगड़कर आग जलाना सीखा व यज्ञ रूप में उसे लगातार जलाए रखना, जाना।क्या ये वैज्ञानिक खोज नहीं थी। हड्डी व पत्थर के औज़ार व हथियार बनाना, उनसे शिकार व चमडा कमाने का कार्यं लेना, लकड़ी काटना-फाड़ना सीखना, बृक्ष के तने को 'तरणि' की भांति उपयोग में लाना, क्या ये सब वैज्ञानिक खोजें नहीं थीं?पुरा युग में जब मानव ने घोड़े, बैल, गाय आदि को पालतू बना कर दुहा, प्रयोग किया, क्या ये विज्ञान नहीं था। मध्य युग में लोहा, ताम्बा, चांदी, सोना की खोज व कीमिया गीरी क्या विज्ञान नहीं थी? कौन सा युग विज्ञान का नहीं था? चक्र का हथियार की भांति प्रयोग , बांसुरी का आविष्कार। विज्ञान आखिर कब नहीं था, कब नहीं है, कहाँ नहीं है..? सृष्टि का, मानव का प्रत्येक व्यवहार, क्रिया, कृतित्व , विज्ञान से ही संचालित, नियमित व नियंत्रित है। तो हम आज क्यों चिल्लाते हैं..विज्ञान-विज्ञान..वैज्ञानिकता, वैज्ञानिक सोच...; आज का युग विज्ञान का युग है, आदि ? विश्व के कण कण में विज्ञान है, सब कुछ विज्ञान से ही नियमित है..।विचार अचानक ही दर्शन की ओर मुड़ जाते हैं। वैदिक विज्ञान, वेदान्त दर्शन कहता है- 'कण कण में ईश्वर है, वही सब कुछ करता है, वही कर्ता है, सृष्टा है, नियंता है।' तो क्या विज्ञान ही ईश्वर है? विज्ञान क्या है? भारतीय षड दर्शन -सांख्य, मीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, वेदान्त का निचोड़ है कि -प्रत्येक कृतित्व तीन स्तरों में होता है- ज्ञान, इच्छा, क्रिया --पहले ब्रह्म रूपी ज्ञान का मन में प्रस्फुटन होता है; फिर विचार करने पर उसे उपयोग में लाने की इच्छा; पुनः ज्ञान को क्रिया रूप में परिवर्तित करके उसे दैनिक व्यवहार -उपयोग हेतु नई नई खोजें व उपकरण बनाये जाते हैं। ज्ञान को संकल्प शक्ति द्वारा क्रिया रूप में परिवर्तित करके उपयोग में लाना ही विज्ञान है, ज्ञान का उपयोगी रूप ही विज्ञान है , उसका सान्कल्पिक भाव --तप है, व तात्विक रूप--दर्शन है।ज्ञान, ब्रह्म रूप है; ब्रह्म जब इच्छा करता है तो सृष्टि होती है, अर्थात विज्ञान प्रकट होता है। विज्ञान की खोजों से पुनः नवीन ज्ञान की उत्पत्ति, फिर नवीन इच्छा, पुनः नवीन खोज--यह एक वर्तुल है, एक चक्रीय व्यवस्था है... यही संसार है... संसार चक्र ...विश्व पालक विष्णु का चक्र...जो कण कण को संचालित करता है। ....'अणो अणीयान, महतो महीयान'.... जो अखिल (विभु, पदार्थ, विश्व ) को भेदते भेदते अणु तक पहुंचे, भेद डाले, ...वह -- विज्ञान; जो अभेद (अणु, तत्व, दर्शन, ईश्वर) का अभ्यास करते करते अखिल (विभु, परमात्म स्थित, आत्म स्थित ) हो जाए वह दर्शन है...।अरे ! देखो डाक्टर जी ...। अरे डाक्टर जी.... आप ! अचानक सुरीली आश्चर्य मिश्रित आवाजों से मेरा ध्यान टूटा....मैंने अचकचाकर आवाज़ की ओर देखा, तो एक युवती को बच्चे की उंगली थामे हुए एकटक अपनी ओर देखते हुए पाया ...। "आपने हमें पहचाना नहीं डाक्टर जी, मैं कुसमा, कल ही तो इसकी दबाई लेकर आई हूँ, कुछ ठीक हुआ तो जिद करके मेले में ले आया।""ओह ! हाँ,...हाँ, अच्छा ..अच्छा ..."मैंने यंत्रवत पूछा। "अब ठीक है?""जी हाँ,"वह हंसकर बोली।"अरे सर , आप!" अचानक स्टेशन मास्टर वर्मा जी समीप आते हुए बोले। "अकेले.., आप ने बताया होता , मैं साथ चला आता।""कोई बात नहीं वर्मा जी," मैंने मुस्कुराते हुए कहा। "चलिए स्टेशन चलते हैं।"--डा श्याम गुप्त
आधुनिक-विज्ञान व पुरा वैदिक-विज्ञान, धर्म, दर्शन, ईश्वर, ज्ञान के बारे में फ़ैली भ्रान्तियां, उद्भ्रान्त धारणायें व विचार एवम अनर्थमूलक प्रचार को उचित व सम्यग आलेखों, विचारों व उदाहरणों, कथा, काव्य से जन-जन के सम्मुख लाना---ध्येय है, इस चिठ्ठे का ...
मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010
क्या विज्ञान ही ईश्वर है--लघुकथा--
शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010
इसे कहते हैं -जीवन ,जीवन लक्ष्य,परमात्मा , आनंद व मुक्ति....

जीवन क्या है, इसे कैसे जीना चाहिए, -प्रायः विद्वान् अपने अपने ढंग से कहते रहते हैं जो-प्रायः एकांगी दृष्टि होतीहै; पूर्ण दृष्टि के लिए देखिये यह समाचार, इसमें आई आई टी के इंजीनियर, भाभा रिसर्च सेंटर के वैज्ञानिक, गी-विद्युत ऊर्जा पर शोधकर्ता श्री सुद्धानंद गिरी जी अब आत्मीय ऊर्जा की खोज में हैं | यह ठीक उसी तरह है जिसेपूर्ण जीवन की खोज व प्राप्ति के विषय में --यजुर्वेद के अंतिम अध्याय --ईशोपनिषद के ११ वें श्लोक --सूत्र में कहागया है---
""विध्यांन्चाविध्या च यस्तद वेदोभय सह |अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्यया s मृतंश्नुते || ""
अर्थात --अविद्या ( सांसारिक ज्ञान, विज्ञान, ) प्राप्त करके , विद्या ( आत्म ज्ञान, आत्मीय ऊर्जा, परमात तत्व ) दोनोंको ही प्राप्त करना चाहिए | अविद्या से मृत्यु , अर्थात संसार सागर को पार करके , विद्या से अमृत अर्थात आत्मतत्व, ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति करनी चाहिए यही सम्पूर्ण जीवन है |
रविवार, 31 जनवरी 2010
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ ...वैदिक विज्ञान ..वैदिक गणित

सब कुछ भारतीय किताबों से सीखा ---कहना है आई आई एम् के क्षात्रों का , फ़टाफ़ट गणना करने वाले तरीकों के बारे में , पढ़िए ये समाचार ---ऊपर । बड़ा करने के लिए चित्र पर कहीं भी क्लिक करें ।
----सब कुछ मौजूद है , वैदिक साहित्य में , आवश्यकता है स्वयं को पहचानने की , जानने की , मानने की , श्रृद्धा की -उस पर खोज-विचार करने की ,विज्ञान -दर्शन- धर्म के समन्वित रूप को बिना पूर्वाग्रह के ग्रहण करने की ।
बुधवार, 20 जनवरी 2010
सृष्टि व ब्रह्माण्ड -भाग - ४..-विश्व -संगठन,नियमन व लय
( भाग ३ में हमने सृष्टि संरचना(वैदिक विज्ञान सम्मत ) की भाव संरचना व असंख्य ब्रह्मांडों की रचना तक तथा सृष्टि रचना में व्यवधान व ब्रह्मा को भूली सृष्टि -कर्म के सरस्वती की कृपा से पुनर्ज्ञान तक वर्णन किया था | इस अंतिम भाग में हम ब्रह्मा द्वारा सृष्टि की रचना , उसकी नियमन शक्तियों की रचना , प्रलय व लय-सृष्टि चक्र का वर्णन करेंगे | पाठकों की रुचिपूर्ण जिज्ञासा के अनुरूप वैदिक उद्धरण व सन्दर्भ भी दिए गए हैं )
(१.) विश्व संगठन प्रक्रिया ---प्रत्येक हेमांड ( या ब्रह्माण्ड ,-- प्राचीन पाश्चात्य दर्शन का प्रईमोर्डियल एग ), समस्त प्रादुर्भूत मूल तत्वों सहित स्वतंत्र सत्ता की भांति महाकाश ( ईथर ) में उपस्थित था | सृष्टि निर्माण प्रक्रिया ज्ञान होने पर ब्रह्मा ने समस्त तत्वों को एकत्रित कर सृष्टि रूप देना प्रारम्भ किया |ऋग्वेद (४/५८) में कहा है--""उप ब्रह्मा श्रिणव त्ध्स्यमानं चतु: श्रिन्गोअबसादिगौर एतत ||"" अर्थात हमारे द्वारा गाये गए स्तवन ब्रह्मा जी श्रवण करें, जिन चार वेद रूपी श्रृंग वाले देव ने इस जगत को बनाया| ब्रह्मा ने हेमांड को दो भागों में विभाजित किया - ऊपरी भाग में हलके तत्त्व एकत्र हुए जो आकाश भाव कहलाया ; जिससे -समय ,गति,शब्द, गुण , वायु , महतत्व, मन, तन्मात्राएँ , अहं , वेद ( ज्ञान ) आदि रचित हुए| मध्य भाग दोनों का मिश्रण -जल भाव हुआ जिससे जलीय, रसीय,तरल तत्त्व , रस भाव ,इन्द्रियाँ , वाणी ,कर्म-अकर्म, सुख-दुःख इच्छा, संकल्प ,द्वंद्व भाव व प्राण आदि का संगठन हुआ | तथा नीचे का भारी तत्त्व भाव , पृथ्वी भाव हुआ जिससे , समस्त भूत पदार्थ,जड़ जीव, , गृह, पृथ्वी,प्रकृति,दिशाएं ,लोक निश्चित रूप भाव बाले रचित हुए | प्रकाश, ऊर्जा,अग्नि ,वाणी,त्रिआयामी पदार्थ कण से नभ, भू , जल के प्राणी हुए | ( यह विस्तृत वर्णन अथर्व वेद के ८,९,व १० काण्ड में व्याख्यायित है )
(२.) नियमन व्यवस्था ---ये सारे संगठित तत्त्व बिखरें नहीं इस हेतु नियामक शक्तियों का निर्माण किया गया |( विज्ञान के भौतिक व रासायनिक नियम के अनुरूप जो पदार्थ प्रक्रियाओं का नियमन करते हैं ) यजुर्वेद (७/१९) का मन्त्र है--" ये देवासो दिव्य्कादश स्थ प्रथिव्या मध्येकादश स्थ । अप्सु:क्षितौ महितोकादश स्थ ते देवासो यग्यमिहं जुसध्वम ॥""--प्रिथ्वी, अन्तरिक्ष ,द्यूलोक में व्याप्त ११-११ दिव्य शक्तियां जो सृष्टि का संचालन कर रहीं हैं, वे ३३ देव इस यग्य को सम्पन्न कराएं । ये नियामक शक्तियां थीं--संगठक शक्ति का भार इन्द्र को,पालक का इन्द्र, सरस्वती,भारती, अग्नि,सूर्य आदि देवों को, पोषण के लिये वातोष्पति,रूप गठन को त्वष्टा, कार्य नियमन को अश्विनी द्वय( वैद्य व पंचम वेद आयुर्वेद , महा ग्यान, ब्रह्मा के पन्चम मुख से), कर्म नियमन को चार वेद( ब्रह्मा के चार मुखों से),स्मृति , पुराण, ज्ञान ,यम, नियम विधि विधान, कार्य आगे बढे अत: अनुभव व छंद विधान ।
(३.) सृष्टि रचना का मूल सन्क्षिप्त क्रम-----भू: एवं भुव: से समस्त पृथ्वी कीरचना हुई। ऋग्वेद १०/७४/४ कहता है---"भूर्जग्यो उत्तन्पदो भुवजाशा अजायन्त :अदितेर्दक्षा अजायातं व दक्षादिती परि: ||"" भू ( आदि प्रवाह ) से ऊर्ध्व गतिशील ( मूल आदि कणों) की रचना हुई| भुव: (होने की आशा -संकल्प शक्ति -चेतन) का विकास हुआ|अदिति ( अखंड आदि शक्ति ) से दक्ष (सृजन की कुशलता युक्त प्रवाह ) उत्पन्न हुए ,दक्ष से पुन: अदिति (अखंड प्रकृति -पृथ्वी ) का जन्म हुआ | इस प्रकार दो चरणों में यह रचना हुई---
----अ .सावित्री परिकर --मूल जड़ सृष्टि की रचना -- जो निर्धारित निश्चित अनुशासन ( कठोर भौतिक व रासायनिक नियमों )पर चलें , सतत: गतिशील व परिवर्तनशील रहें |
---ब . गायत्री परिकर --जीव सत्ता जो---१,देव --सदा देते रहने वाले , परमार्थ युक्त --पृथ्वी, अग्नि, वरुण ,पवन,आदि देव एवं वृक्ष ( वनस्पति जगत ), २.--मानव --आत्म बोध से युक्त ज्ञान कर्म मय, पुरुषार्थ युक्त -सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ तत्त्व | , ३.--प्राणि जगत- पशु पक्षी आदि जो प्रकृति के अनुसार सुविधा भाव से जीने वाले व मानव एवं वनस्पति व भौतिक जगत के मध्य संतुलन रखें |
(४) प्रलय -- आधुनिक विज्ञान के अनुसार जब ब्रह्माण्ड के पिंड व कण अत्यधिक दूर होजाते हैं ( बिग-बेंग से छिटक कर प्रत्येक कण एक दूसरे से दूर जारहा है--विज्ञान मत -बिग बेंग सिद्धांत )तो उनके मध्य अत्यधिक शीतलता से ऊर्जा की कमी से विकर्षण शक्ति की कमी होने से वे घनीभूत होने लगते हैं और समस्त सृष्टि कण व ऊर्जा एक दूसरे में लय होकर पुनः एकात्मकता को प्राप्त करके ऊर्जा व ताप का सघन पिंड बनजाते हैं ; पुनः नवीन सृष्टि हेतु तत्पर | वैदिक विज्ञान के अनुसार --मानव की अति सुखाभिलाषा से नए-नए तत्वों का निर्माण ( अप तत्त्व -यथा प्लास्टिक आदि जो प्राकृतिक चक्र रूप से नष्ट नहीं होपाते ), अति भौतिकता ( सिर्फ पंचभूत रत व्यक्ति समाज देश )पूर्ण जीवन पद्धति , विलासिता,प्रदूषण , असत-अकर्म, अनाचार से ( तत्त्व ,भावना, अहं व ऊर्जा सभी के ) व सदाचार को भूलने से ----देव, प्रकृति,धरती, अंतरिक्ष , आकाश सब प्रदूषित व त्रस्त हो जाते हैं तब उस कालरात्रि के आने पर ब्रह्म स्वयं संकल्प करता है कि अब में पुनः" एक होजाऊँ" और इस इच्छा के निमिष मात्र में ही लय क्रम आरम्भ होजाता है सारे कण ,पदार्थ , ऊर्जा के हर रूप , काल व गति --> मूल द्रव्य में ---> महाविष्णु की नाभि केंद्र ---> सघन पिंड में---> अग्निदेव की दाढ़ों में --->( क्रियाशील ऊर्जा )---> अपः तत्त्व में ----> मूल ऊर्जा में( आदि माया-स्थिर ऊर्जा ) --->महाकाश में ---->हिरन्यगर्भ में ( व्यक्त ब्रह्म )----> अव्यक्त ब्रह्म में लीन होकर पुनः वही एक ब्रह्म रह जाता है पुनः " एकोहं बहुस्याम " द्वारा सृष्टि की पुनः रचना हेत तत्पर | ऋग्वेद (२/१३/) में प्रलय का वर्णन करते ऋषि कहता है--" प्रजां च पुष्टिं विभजंत आसते रयिमिव पृष्ठं
प्रभवंत मायते |असिन्वंदेष्ट्रै पितुरस्ति भोजनम यस्ता कृनो प्रथमं तस्युक्थ : ||""--जो प्रजा को प्रकट व पुष्ट करते हैं, पालन व पोषण देते हैं , वे ही इंद्र-अग्नि ( इनर्जी-ऊर्जा--विनाशक शक्ति रूप में ) प्रलय काल में समस्त जगत को भोजन की भांति दांतों से खाजाते हैं | वे सर्वप्रशंसनीय देव इन्द्र देव हैं|------
"""पूर्णात पूर्णं उद्च्यति, पूर्ण पूर्णेन सिच्यते | उतो तदथ विद्याम यतस्तव परिसिच्यति ||""( अथर्व वेद १०/८ ) पूर्ण ब्रह्म से पूर्ण जगत उत्पन्न होता है ,उसी पूर्ण से पूर्ण जगत को सींचा जाता है | बोध ( ज्ञान ) होने पर ही हम जान पाते हैं कि वह कहाँ से सींचा जाता है |
------अगले प्रलेख में " जीव व जीवन " के बारे मेंआधुनिक वैज्ञानिक आधार व वैदिक सम्मतियों की विवेचना |
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विग्यान ,दर्शन व धर्म के अन्तर्सम्बन्ध
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- लखनऊ, उत्तर प्रदेश, India
- --एक चिकित्सक, शल्य-विशेषज्ञ जिसे धर्म, दर्शन, आस्था व सान्सारिक व्यवहारिक जीवन मूल्यों व मानवता को आधुनिक विज्ञान से तादाम्य करने में रुचि व आस्था है।