बुधवार, 20 जनवरी 2010

सृष्टि व ब्रह्माण्ड -भाग - ४..-विश्व -संगठन,नियमन व लय

सृष्टि व ब्रह्माण्ड भाग ४

( भाग ३ में हमने सृष्टि संरचना(वैदिक विज्ञान सम्मत ) की भाव संरचना व असंख्य ब्रह्मांडों की रचना तक तथा सृष्टि रचना में व्यवधान व ब्रह्मा को भूली सृष्टि -कर्म के सरस्वती की कृपा से पुनर्ज्ञान तक वर्णन किया था | इस अंतिम भाग में हम ब्रह्मा द्वारा सृष्टि की रचना , उसकी नियमन शक्तियों की रचना , प्रलय व लय-सृष्टि चक्र का वर्णन करेंगे | पाठकों की रुचिपूर्ण जिज्ञासा के अनुरूप वैदिक उद्धरण व सन्दर्भ भी दिए गए हैं )
(१.) विश्व संगठन प्रक्रिया ---प्रत्येक हेमांड ( या ब्रह्माण्ड ,-- प्राचीन पाश्चात्य दर्शन का प्रईमोर्डियल एग ), समस्त प्रादुर्भूत मूल तत्वों सहित स्वतंत्र सत्ता की भांति महाकाश ( ईथर ) में उपस्थित था | सृष्टि निर्माण प्रक्रिया ज्ञान होने पर ब्रह्मा ने समस्त तत्वों को एकत्रित कर सृष्टि रूप देना प्रारम्भ किया |ऋग्वेद (४/५८) में कहा है--""उप ब्रह्मा श्रिणव त्ध्स्यमानं चतु: श्रिन्गोअबसादिगौर एतत ||"" अर्थात हमारे द्वारा गाये गए स्तवन ब्रह्मा जी श्रवण करें, जिन चार वेद रूपी श्रृंग वाले देव ने इस जगत को बनाया| ब्रह्मा ने हेमांड को दो भागों में विभाजित किया - ऊपरी भाग में हलके तत्त्व एकत्र हुए जो आकाश भाव कहलाया ; जिससे -समय ,गति,शब्द, गुण , वायु , महतत्व, मन, तन्मात्राएँ , अहं , वेद ( ज्ञान ) आदि रचित हुए| मध्य भाग दोनों का मिश्रण -जल भाव हुआ जिससे जलीय, रसीय,तरल तत्त्व , रस भाव ,इन्द्रियाँ , वाणी ,कर्म-अकर्म, सुख-दुःख इच्छा, संकल्प ,द्वंद्व भाव व प्राण आदि का संगठन हुआ | तथा नीचे का भारी तत्त्व भाव , पृथ्वी भाव हुआ जिससे , समस्त भूत पदार्थ,जड़ जीव, , गृह, पृथ्वी,प्रकृति,दिशाएं ,लोक निश्चित रूप भाव बाले रचित हुए | प्रकाश, ऊर्जा,अग्नि ,वाणी,त्रिआयामी पदार्थ कण से नभ, भू , जल के प्राणी हुए | ( यह विस्तृत वर्णन अथर्व वेद के ८,९,व १० काण्ड में व्याख्यायित है )
(२.) नियमन व्यवस्था ---ये सारे संगठित तत्त्व बिखरें नहीं इस हेतु नियामक शक्तियों का निर्माण किया गया |( विज्ञान के भौतिक व रासायनिक नियम के अनुरूप जो पदार्थ प्रक्रियाओं का नियमन करते हैं ) यजुर्वेद (७/१९) का मन्त्र है--" ये देवासो दिव्य्कादश स्थ प्रथिव्या मध्येकादश स्थ । अप्सु:क्षितौ महितोकादश स्थ ते देवासो यग्यमिहं जुसध्वम ॥""--प्रिथ्वी, अन्तरिक्ष ,द्यूलोक में व्याप्त ११-११ दिव्य शक्तियां जो सृष्टि का संचालन कर रहीं हैं, वे ३३ देव इस यग्य को सम्पन्न कराएं । ये नियामक शक्तियां थीं--संगठक शक्ति का भार इन्द्र को,पालक का इन्द्र, सरस्वती,भारती, अग्नि,सूर्य आदि देवों को, पोषण के लिये वातोष्पति,रूप गठन को त्वष्टा, कार्य नियमन को अश्विनी द्वय( वैद्य व पंचम वेद आयुर्वेद , महा ग्यान, ब्रह्मा के पन्चम मुख से), कर्म नियमन को चार वेद( ब्रह्मा के चार मुखों से),स्मृति , पुराण, ज्ञान ,यम, नियम विधि विधान, कार्य आगे बढे अत: अनुभव व छंद विधान ।
(३.) सृष्टि रचना का मूल सन्क्षिप्त क्रम-----भू: एवं भुव: से समस्त पृथ्वी कीरचना हुई। ऋग्वेद १०/७४/४ कहता है---"भूर्जग्यो उत्तन्पदो भुवजाशा अजायन्त :अदितेर्दक्षा अजायातं व दक्षादिती परि: ||"" भू ( आदि प्रवाह ) से ऊर्ध्व गतिशील ( मूल आदि कणों) की रचना हुई| भुव: (होने की आशा -संकल्प शक्ति -चेतन) का विकास हुआ|अदिति ( अखंड आदि शक्ति ) से दक्ष (सृजन की कुशलता युक्त प्रवाह ) उत्पन्न हुए ,दक्ष से पुन: अदिति (अखंड प्रकृति -पृथ्वी ) का जन्म हुआ | इस प्रकार दो चरणों में यह रचना हुई---
----अ .सावित्री परिकर --मूल जड़ सृष्टि की रचना -- जो निर्धारित निश्चित अनुशासन ( कठोर भौतिक व रासायनिक नियमों )पर चलें , सतत: गतिशील व परिवर्तनशील रहें |
---ब . गायत्री परिकर --जीव सत्ता जो---१,देव --सदा देते रहने वाले , परमार्थ युक्त --पृथ्वी, अग्नि, वरुण ,पवन,आदि देव एवं वृक्ष ( वनस्पति जगत ), २.--मानव --आत्म बोध से युक्त ज्ञान कर्म मय, पुरुषार्थ युक्त -सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ तत्त्व | , ३.--प्राणि जगत- पशु पक्षी आदि जो प्रकृति के अनुसार सुविधा भाव से जीने वाले व मानव एवं वनस्पति व भौतिक जगत के मध्य संतुलन रखें |
(४) प्रलय -- आधुनिक विज्ञान के अनुसार जब ब्रह्माण्ड के पिंड व कण अत्यधिक दूर होजाते हैं ( बिग-बेंग से छिटक कर प्रत्येक कण एक दूसरे से दूर जारहा है--विज्ञान मत -बिग बेंग सिद्धांत )तो उनके मध्य अत्यधिक शीतलता से ऊर्जा की कमी से विकर्षण शक्ति की कमी होने से वे घनीभूत होने लगते हैं और समस्त सृष्टि कण व ऊर्जा एक दूसरे में लय होकर पुनः एकात्मकता को प्राप्त करके ऊर्जा व ताप का सघन पिंड बनजाते हैं ; पुनः नवीन सृष्टि हेतु तत्पर | वैदिक विज्ञान के अनुसार --मानव की अति सुखाभिलाषा से नए-नए तत्वों का निर्माण ( अप तत्त्व -यथा प्लास्टिक आदि जो प्राकृतिक चक्र रूप से नष्ट नहीं होपाते ), अति भौतिकता ( सिर्फ पंचभूत रत व्यक्ति समाज देश )पूर्ण जीवन पद्धति , विलासिता,प्रदूषण , असत-अकर्म, अनाचार से ( तत्त्व ,भावना, अहं व ऊर्जा सभी के ) व सदाचार को भूलने से ----देव, प्रकृति,धरती, अंतरिक्ष , आकाश सब प्रदूषित व त्रस्त हो जाते हैं तब उस कालरात्रि के आने पर ब्रह्म स्वयं संकल्प करता है कि अब में पुनः" एक होजाऊँ" और इस इच्छा के निमिष मात्र में ही लय क्रम आरम्भ होजाता है सारे कण ,पदार्थ , ऊर्जा के हर रूप , काल व गति --> मूल द्रव्य में ---> महाविष्णु की नाभि केंद्र ---> सघन पिंड में---> अग्निदेव की दाढ़ों में --->( क्रियाशील ऊर्जा )---> अपः तत्त्व में ----> मूल ऊर्जा में( आदि माया-स्थिर ऊर्जा ) --->महाकाश में ---->हिरन्यगर्भ में ( व्यक्त ब्रह्म )----> अव्यक्त ब्रह्म में लीन होकर पुनः वही एक ब्रह्म रह जाता है पुनः " एकोहं बहुस्याम " द्वारा सृष्टि की पुनः रचना हेत तत्पर | ऋग्वेद (२/१३/) में प्रलय का वर्णन करते ऋषि कहता है--" प्रजां च पुष्टिं विभजंत आसते रयिमिव पृष्ठं
प्रभवंत मायते |असिन्वंदेष्ट्रै पितुरस्ति भोजनम यस्ता कृनो प्रथमं तस्युक्थ : ||""--जो प्रजा को प्रकट व पुष्ट करते हैं, पालन व पोषण देते हैं , वे ही इंद्र-अग्नि ( इनर्जी-ऊर्जा--विनाशक शक्ति रूप में ) प्रलय काल में समस्त जगत को भोजन की भांति दांतों से खाजाते हैं | वे सर्वप्रशंसनीय देव इन्द्र देव हैं|------
"""पूर्णात पूर्णं उद्च्यति, पूर्ण पूर्णेन सिच्यते | उतो तदथ विद्याम यतस्तव परिसिच्यति ||""( अथर्व वेद १०/८ ) पूर्ण ब्रह्म से पूर्ण जगत उत्पन्न होता है ,उसी पूर्ण से पूर्ण जगत को सींचा जाता है | बोध ( ज्ञान ) होने पर ही हम जान पाते हैं कि वह कहाँ से सींचा जाता है |
----- इति ---
------अगले प्रलेख में " जीव व जीवन " के बारे मेंआधुनिक वैज्ञानिक आधार व वैदिक सम्मतियों की विवेचना |
------डा श्याम गुप्ता |


1 टिप्पणी:

  1. डा.साहब आपने जो कुछ भी लिखा है वह चाहकर भी पढ़ नहीं पा रही हूं क्योंकि गहरे बैकग्राउंड पर काले अक्षर देखने में बड़ी दिक्कत है। आप विद्वान हैं मुझ जैसी नासमझ की इल्तजा पर ध्यान देंगे तो मेहरबानी होगी।
    प्रणाम

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लखनऊ, उत्तर प्रदेश, India
--एक चिकित्सक, शल्य-विशेषज्ञ जिसे धर्म, दर्शन, आस्था व सान्सारिक व्यवहारिक जीवन मूल्यों व मानवता को आधुनिक विज्ञान से तादाम्य करने में रुचि व आस्था है।