सृष्टि महाकाव्य--षष्टम सर्ग, ब्रह्मान्ड खन्ड......डा श्याम गुप्त......
सृष्टि महाकाव्य-(ईषत- इच्छा या बिगबेंग--एक अनुत्तरित उत्तर )-- -------वस्तुत सृष्टि हर पल, हर कण कण में होती रहती है, एक सतत प्रक्रिया है , जो ब्रह्म संकल्प-(ज्ञान--ब्रह्मा को ब्रह्म द्वारा ज्ञान) ,ब्रह्म इच्छा-एकोहं बहुस्याम ...( इच्छा) व सृष्टि (क्रिया- ब्रह्मा रचयिता ) की क्रमिक प्रक्रिया है --किसी भी पल प्रत्येक कण कण में चलती रहती है, जिससे स्रिष्टि व प्रत्येक पदार्थ की उत्पत्ति होती है । प्रत्येक पदार्थ नाश(लय-प्रलय- शिव ) की और प्रतिपल उन्मुख है।
(यह महाकाव्य अगीत विधामें आधुनिक विज्ञान ,दर्शन व वैदिक-विज्ञान के समन्वयात्मक विषय पर सर्वप्रथमरचित महाकाव्य है , इसमें -सृष्टि की उत्पत्ति, ब्रह्माण्ड व जीवन और मानव की उत्पत्ति के गूढ़तम विषयकोसरल भाषा में व्याख्यायित कियागया है | इस .महाकाव्य को हिन्दी साहित्य की अतुकांत कविता कीअगीत-विधा' के छंद - 'लयबद्ध षटपदी अगीत छंद' -में ' निवद्ध किया गया है जो एकादश सर्गों में वर्णित है).... ...... रचयिता --डा श्याम गुप्त ...
---पन्चम सर्ग में जटिल भौतिक व रासायनिक क्रियाओं द्वारा मूल पदार्थ बनने की वैदिक विज्ञान व आधुनिक विज्ञान के मत वर्णित किये गए थे. -- , .प्रस्तुत षष्टम सर्ग -ब्रह्माण्ड खंड में बने हुए पंचौदन अजः ( मूल पदार्थ ) से आगे जड़ व जीव जगत की उत्पत्ति कैसे हुई इसका प्रारम्भिक रूप वर्णित किया जाएगा.
१-
ईक्षण तप१ से हिरण्यगर्भ के ,
भू, सावित्री२ भाव प्रकृति से-
सब जग रूप पदार्थ बन गए |
भुवः , गायत्री३ भाव उसीका,
अपरा-परा४ अव्यक्त रूप में,
चेतन सृष्टि का मूल रूप था||
२-
पराशक्ति से परात्पर की,
प्रकट स्वयंभू, आदि शम्भू थे|
अपरा-शंभु संयोग हुआ जब,
व्यक्त भाव,महतत्व५ बन गया|
हुआ विभाजित व्यक्त पुरुष में,
एवं व्यक्त आदि-माया में ||
३-
पालक, धारक और संयोगक,
संहारक लय सृजक रूप में;
महाविष्णु,महाशिव और ब्रह्मा,
बन असीम संकल्प शक्ति सब,
प्रकट हुए उस असीम से वे,
व्यक्त पुरुष से,आदि-विष्णु६ से||
४ -
पालक, धारक, यौगिक ऊर्जा,
मूल, संहारक, सृज़क, स्फुरणा,
रमा उमा सावित्री७ रूपा;
सभी शक्तियां प्रकट होगईं |
स्वयं भाव में आदि-शक्ति से ,
व्यक्त आदि-माया, अपरा की ||
५-
महाविष्णु-रमा संयोग से,
प्रकट हुए चिद-बीज८ अनंत;
फैले थे जो परम-व्योम में,
कण कण में बन कर हेमांड |
उस असीम के, महाविष्णु के,
रोम रोम में बन ब्रह्माण्ड ||
६-
महाविष्णु के स्वांश९ तत्व से,
बाम भाग से विष्णु-चतुर्भुज,
विभिन्नांश१० भ्रू-मध्य भाग से,
शिव-ज्योतिर्लिंग, लिंग-महेश्वर |
दक्षिण विभिन्नांश से ब्रह्मा,
प्रकट हुए प्रत्येक अंड में ||
७-
यही ब्रह्म, अंगुष्ठ-ब्रह्म११, बन-
रूप, आत्मा जीवात्मा का |
स्थित है, प्रत्येक देह में,
कहलाता है , सर्व-महेश्वर :
आत्म-तत्व प्रत्येक जीव का,
ह्रदयाकाश में , घटाकाश में ||
८-
महाविष्णु शिव ब्रह्मा माया,
दृव्य , प्रकृति,जल, वायु, ऊर्जा,
मन आकाश सब देव निहित थे;
सूक्ष्म रूप प्रत्येक अंड में |
अपरा, परा, अहं सत्तामय ,
थी स्वतंत्र सत्ता१२ प्रत्येक की ||
९-
महाकाश ही आदि-विष्णु है,
रोम रोम कण रूप भुवन का |
प्रकृति,त्रिगुणमय-सत तम रज की,
माया जीव विष्णु ब्रह्मा शिव;
सूक्ष्म भाव हैं परम-तत्व के,
स्थित कण कण रोम रोम में ||
१०-
अब विज्ञान भी यही मानता,
ऋणकण, धनकण, उदासीनकण;
शक्ति गति निर्वात परिधि के;
सहित बने , परमाणु कण सभी |
सूक्ष्म रूप हैं सभी तत्व के,
अखिल विश्व में,चिदाकाश१३के ||
११-
और असीम उस महाकाश में ,
हैं असंख्य ब्रह्माण्ड उपस्थित |
धारण करते हैं, ये सब ही,
अपने अपने सूर्य-चन्द्र सब,
अपने अपने गृह-नक्षत्र सब;
है स्वतंत्र सत्ता प्रत्येक की ||
१२-
"एको सद विप्राः वहुधा वदन्ति "
भिन्न -भिन्न सब रूप उसीके |
इसीलिये कहते हैं हम सब,
अखिल विश्व कण कण में समाया |
कण कण में भगवान बसा है,
कण कण में भगवान की माया ||
१३-
सभी जीव में वही ब्रह्म है,
मुझमें- तुझमें वही ब्रह्म है |
उसी एक को मान के सब में,
जान उसी को हर कण कण में;
तिनके का भी दिल न दुखाये ,
सो प्रभु को परब्रह्म को पाए || ---क्रमश : ..सप्तम सर्ग..अगले अंक में .
{ कुंजिका -- १= व्यक्त ब्रह्म, हिरण्यगर्भ, का सृष्टि संकल्प रूपी तप ; २= व्यक्त ईश्वर का सावित्री(भू) अर्थात प्रकृति भाव जिससे समस्त जड़ ( जीव व जंगम सभी में ) तत्वों का निर्माण होता है.. ; ३= गायत्री(भुव:) , अर्थात ईश्वर का चेतन प्राणमय जिससे सभी चेतन तत्वों का निर्माण होता है; ४= गायत्री , चेतन रूप के व्यक्त शक्ति (अपरा) और पुरुष (परा ) रूप ;
५= मूल व्यक्त तत्व ; ६= वही व्यक्त ईश्वर , व्यक्त आदि पुरुष ; ७= त्रिदेवों की प्रेरक त्रिविध शक्तियां ; ८= मूल ब्रह्माण्ड ,अंड हेमांड, आदि -बीज रूप में , जो सारे अंतरिक्ष में असंख्य ब्रह्माण्ड के रूप में फैले रहते हैं ; ९= मूल शरीर के तत्व से; १०= पर्वर्तिति या अन्य छाया शरीर से ; ११= अन्गुष्ठाकार ब्रह्म , जो लय व सृष्टि के बीच अश्वत्थ-पत्र पर महाअर्णव मेंतैरता हुआ स्थित रहता है | वही पुरुष में, ह्रदयाकाश में,अंतरात्मा के रूप में स्थित होता है|--श्वेताश्वरोपनिषद ३/१३..; १२=प्रत्येक बीजांड,अंड, या ब्रह्माण्ड -अपने अपने सम्पूर्ण सौर मंडल सहित स्वतंत्र सत्ता रूप, स्वतंत्र सृष्टि रूप , जो असंख्य संख्या में सारे अंतरिक्ष में फैले रहते हैं ; अब आधुनिक विज्ञान भे स्वीकार करता है कि असंख्य ब्रह्माण्ड हैं जिनके समस्त सौर मंडल भी अपने अपने होते हैं | ; १३= अर्णव , महाकाश, अनंत अंतरिक्ष, शून्याकाश , सुन्न भवन, ईथर,क्षीर सागर .}
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