गुरुवार, 30 दिसंबर 2010


अगीत महाकाव्य ---सृष्टि --बिगबेंग या ईषत - इच्छा -एक अनुत्तरित उत्तर.....



(यह महाकाव्य अगीत विधा में आधुनिक विज्ञान ,दर्शन व वैदिक विज्ञान के समन्वयात्मक विषय पर सर्वप्रथम रचित महाकाव्य है , इसमें सृष्टि की उत्पत्ति, ब्रह्माण्ड व जीवन व मानव की उत्पत्ति के गूढ़तम विषय को सरल भाषा में व्याख्यायित किया गया है ....एवं अगीत विधा के लयबद्ध षटपदी छंद में निवद्ध किया गया है जो एकादश सर्गों में वर्णित है).... रचयिता --डा श्याम गुप्त ....



प्रथम-सर्ग --वन्दना

१-गणेश -
गण-नायक गज बदन विनायक ,
मोदक प्रिय,प्रिय ऋद्धि-सिद्धि के ;
भरें लेखनी में गति,गणपति ,
गुण गाऊँ इस 'सृष्टि',सृष्टि के।
कृपा 'श्याम, पर करें उमासुत ,
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर।।

२-सरस्वती --
वीणा के जिन ज्ञान स्वरों से,
माँ! ब्रह्मा को हुआ स्मरण'१' |
वही ज्ञान स्वर, हे माँ वाणी !
ह्रदय तंत्र में झंकृत करदो |
सृष्टि ज्ञान स्वर मिले श्याम को,
करू वन्दना पुष्पार्पण कर॥

३-शास्त्र -
हम कौन, कहाँ से आए हैं ?
यह जगत पसारा किसका,क्यों ?
है शाश्वत यक्ष-प्रश्न,मानव का।
देते हैं, जो वेद-उपनिषद् ,
समुचित उत्तर ,श्याम उन्ही की,
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥

४-ईश्वर-सत्ता --
स्थिति,सृष्टि व लय का जग के,
कारण-मूल जो वह परात्पर;
सद-नासद में अटल-अवस्थित ,
चिदाकास में बैठा -बैठा ,
संकेतों से करे व्यवस्था,
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर ॥

५-ईषत-इच्छा --'२'
उस अनादि की ईषत-इच्छा
महाकाश के भाव अनाहत,
में, जब द्वंद्व-भाव भरती है ;
सृष्टि-भाव तब विकसित होता-
आदिकणों में, उस इच्छा की,
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥

६- अपरा-माया
कार्यकारी भाव-शक्ति है,
उस परात्पर ब्रह्म की जो;
कार्य-मूल कारण है जग की,
माया है उस निर्विकार की;
अपरा'३' दें वर,श्याम,सृष्टि को,
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥

७.चिदाकाश --
सुन्न-भवन'४' में अनहद बाजे ,
सकल जगत का साहिब बसता;
स्थिति,लय और सृष्टि साक्षी,
अंतर्मन में सदा उपस्थित,
चिदाकाश की, जो अनंत है;
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥

८-विष्णु --
हे! उस अनादि के व्यक्त भाव,
हे! बीज रूप हेमांड'५' अवस्थित ;
जग पालक,धारक,महाविष्णु,
कमल-नाल ब्रह्मा को धारे ;
'श्याम-सृष्टि' को, श्रृष्टि धरा दें,
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥

९-शंभु-महेश्वर --
आदि-शंभु-अपरा संयोग से,
महत-तत्व'६'जब हुआ उपस्थित,
व्यक्त रूप जो उस निसंग का।
लिंग रूप बन तुम्ही महेश्वर !
करते मैथुनि-सृष्टि अनूप;
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥

१०-ब्रह्मा --
कमल नाल पर प्रकट हुए जब,
रचने को सारा ब्रह्माण्ड;
वाणी की स्फुरणा'७' पाकर,
बने रचयिता सब जग रचकर ।
दिशा-बोध मिल जाय'श्याम,को;
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥

११-दुष्ट जन-वंदना ...
लोभ-मोह वश बन खलनायक,
समय-समय पर निज करनी से;
जो कर देते व्यथित धरा को ।
श्याम, धरा को मिलता प्रभु का,
कृपाभाव, धरते अवतार;
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥

( १=सृष्टि ज्ञान का स्मरण ,२=सृष्टि-सृजन की ईश्वरीय इच्छा, ३= आदि-मूल शक्ति , ४=शून्य,अनंत-अन्तरिक्ष ,क्षीर सागर, मन ; ५=स्वर्ण अंड के रूप में ब्रह्माण्ड; ६=मूल क्रियाशील व्यक्त तत्व ; ७=ज्ञान का पुनः स्मरण )

----------------क्रमशः

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लखनऊ, उत्तर प्रदेश, India
--एक चिकित्सक, शल्य-विशेषज्ञ जिसे धर्म, दर्शन, आस्था व सान्सारिक व्यवहारिक जीवन मूल्यों व मानवता को आधुनिक विज्ञान से तादाम्य करने में रुचि व आस्था है।