बुधवार, 10 नवंबर 2010

डा श्याम गुप्त की लघु कथा--विकृति की जड़----


विकृति की जड़
(लघु- कथा--डा श्याम गुप्त )

दूरदर्शन पर प्रायोजित कार्यक्रम चल रहा था । विषय था-- "माता-पिता बच्चों के बीच बढ़ती दूरियां एवं उनके कारण .." । एक शिक्षाविद का कथन था कि बच्चों पर माँ बाप को अपनी मर्जी नहीं थोपनी चाहिए। यह देखें कि बच्चा क्या पढ़ना व सीखना चाहता है। उसकी रूचि किसमें है। प्राइमरी स्कूल की एक अध्यापिका ने कहा कि बच्चे आजकल माता-पिता से अधिक जानते व समझते हैं, उन्हें बच्चों को गुरु मानना चाहिए । उनकी इच्छा का सम्मान करना चाहिए।
एक छात्र का कथन था कि हमारे ऊपर अत्यधिक दबाव होता है। अभिभावकों का, अध्यापकों का, पढाई का आदि आदि। अतः हमें भी सदा पढाई करो, फिर ट्यूशन जाओ, अब होमवर्क करो, अब सोजाओ ...की अपेक्षा अपनी मर्जी से बिताने का समय चाहिए।
एक नागरिक ने बताया कि बच्चों को अपने माता-पिता पर भरोसा करके उनका सम्मान करना चाहिए। आजकल बच्चे कोई कहना ही नहीं मानते। अपने मित्रों ,शिक्षकों ,टीवी , अंग्रेज़ी उपन्यासों , अखवार, इन्टरनेट आदि की बातों को ही मानते, पसंद करते व अपनाते हैं।
मनोवैज्ञानिक डाक्टर साहब ने बताया कि बच्चों पर अधिक रोक-टोक अच्छी नहीं । बच्चों को समझाना व सिखाना प्रारम्भ से ही होना चाहिये , जब वे कच्ची मिट्टी के होते हैं। १२-१३ वर्ष की उम्र पर आकर समझाने का कोई लाभ नहीं । माता-पिता बच्चों को और अधिक समय दें । आज माँ बाप बच्चों को फीस व पैसे तो देदेते हैं, परन्तु उनके साथ बिताने को समय नहीं देते।
एक गृहणी महिला ने प्रश्न उठाया कि आजकल तो सभी माँ बाप बच्चों के साथ, पिकनिक, पिक्चर, टीवी देखते हैं। बच्चों के साथ खूब मनोरंजन व मित्रों जैसा व्यवहार करते हैं , समय देते है। तो दूरियां घटनी चाहिए , परन्तु बढ़ क्यों रहीं हैं, जिसके चलते यह आयोजन करना पड़ रहा है? बच्चे ही घर की अपेक्षा बाहर की व दोस्तों की नक़ल करके माँ बाप पर सुख -सुविधाओं का दबाव बनाते हैं।
संचालिका महोदया अपना अंतिम निर्णय देने वाली ही थीं कि तभी दर्शकों में से से एक सज्जन उठकर बोले कि क्या में कुछ कह सकता हूँ। संचालिका के अवश्य कहने पर वे बोले ," मैं एक साहित्यकार हूँ , नामचीन्ह तो नहीं पर लिखता रहता हूँ। मुझे बस इतना कहना है कि वास्तव में अभी तक सभी वार्ता केवल पत्तों को तोड़ने , धोने, पोंछने तक ही सीमित रही है। ठीक है , पत्तों को भी धोने- पोंछने की आवश्यकता है परन्तु समस्या की मूल कहाँ है, किसी ने बताया ही नहीं । हमारे देश में जो कहावत है कि--""जैसा खाएं अन्न, वैसा होगा मन । "" यही समस्या की मूल है । "
अर्थात, हमारे देश में जो अन्य विकसित देशों के जुआघरों, चकलों,वैश्यालयों, नग्न-नृत्यों से से कमाया हुआ जो धन , विकास के नाम पर सहायता, एन जी ओ, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कर्मियों की मोटी-मोटी तनख्वाह, खेळ-कूद के विकास आदि के नाम पर आरहा है और ऋण , सरकारी सहायता, कर्मचारियों की बड़ी हुई पगार, के नाम पर देश में बांटा जारहा है , ताकि वे आयातिति कारों, व अन्य सुख-सुविधा, लक्ज़री के विदेशी सामानों की खरीद पर खर्च कर सकें ; वही अशोभनीय धन देश के कर्णधारों, बुद्धिजीवियों, शासकों सामान्य जन की बुद्धि-विवेक को नष्ट करके संस्कृति को भ्रष्ट कररहा है

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

लोकप्रिय पोस्ट

फ़ॉलोअर

ब्लॉग आर्काइव

विग्यान ,दर्शन व धर्म के अन्तर्सम्बन्ध

मेरी फ़ोटो
लखनऊ, उत्तर प्रदेश, India
--एक चिकित्सक, शल्य-विशेषज्ञ जिसे धर्म, दर्शन, आस्था व सान्सारिक व्यवहारिक जीवन मूल्यों व मानवता को आधुनिक विज्ञान से तादाम्य करने में रुचि व आस्था है।