भारत---पृथ्वी – मानव की
उत्पत्ति व प्रसार--- भारतवर्ष व आर्यावर्त ----
इस सनातन देश जिसे आज इंडिया, हिन्दुस्तान
व भारत कहा जाता है, के नामकरण - भारत, आर्यावर्त, जम्बू द्वीप आदि नामों एवं
स्थितियों एवं वैदिक सभ्यता के मध्य प्रायः भ्रान्ति की स्थिति रहती आयी है जो मूलतः
विदेशियों के रचित साहित्य व भ्रांतिपूर्ण आलेखों द्वारा उत्पन्न हुई है | इस लेख
में हम भारत व आर्यावर्त के नामकरण एवं स्थितियों पर प्रकाश डालना चाहेंगे |
भारत में मानव जीवन का प्राचीनतम प्रमाण १००,००० से ८०,००० वर्ष पूर्व का है।। पाषाण युग भीमबेटका, मध्य प्रदेश) के चट्टानों पर चित्रों का कालक्रम ४०,००० ई पू से ९००० ई पू माना जाता है। प्रथम स्थायी बस्तियां ने ९००० वर्ष पूर्व स्वरुप लिया। उत्तर पश्चिम में सिन्धु घाटी सभ्यता ७००० ई पू विकसित हुई, जो २६वीं शताब्दी ईसा पूर्व और २०वीं शताब्दी ईसा पूर्व के मध्य अपने चरम पर थी | वैदिक सभ्यता का कालक्रम भी ज्योतिष के विश्लेषण से ४००० ई पू तक जाता है। इस विषय को हम ६
भागों में वर्णित करेंगे-----
क. धरती व आदि
सभ्यता ----
ख, सप्त द्वीप धरती ----
ग, भारत का राष्ट्र के रुप में उदय
घ. वैदिक संस्कृति व
वैदिक काल ----
च. आर्यावर्त का उदय
---
छ. भारत पुनः भारत----- ( आर्यावर्त नाम समाप्ति
)
क. धरती व आदि सभ्यता ----
वैदिक सभ्यता
आदि-सभ्यता है --- जब सुर-असुर
युग था तब भी वेदों के चुराने की बातें मिलती हैं| शिव ने ही सर्वप्रथम वेदों को
समन्वित व संग्रहीत किये फिर चार में वर्गीकृत किया | सुर असुर सभी वेदों को मानते
थे, रावण वेदों का ज्ञाता था | सरस्वती, सिन्धु, हरप्पा सभ्यता में शिवलिंग प्राप्त
होते हैं अर्थात शिवपूजा के चिन्ह | सरस्वती शिव का सम्बन्ध स्पष्ट है | अतः
ब्रह्मा शिव विष्णु के युग में वेदिक सभ्यता थी |
सृष्टिकाल – (
ब्रह्म काल ) -परात्पर परमात्म ब्रह्म
–श्री कृष्ण -àमहाविष्णु--àगर्भोदकशायी विष्णु –->ब्रह्मा-----
ब्रह्मकाल में सृष्टि
अपने विकास की प्रक्रिया में थी, सृष्टि उत्पत्ति से प्रजापतियों की उत्पत्ति तक| इस कल्प
में मनुष्य जाति सिर्फ ब्रह्म (ईश्वर) की उपासक थी। प्राणियों में विचित्रताएं और
सुंदरताएं थी। इस काल में ब्रह्मर्षि देश, ब्रह्मावर्त, ब्रह्मलोक, ब्रह्मपुर आदि बसे |
प्रथम महाकाल या
ब्रह्मा काल --- वराह कल्प प्रारंभ : ब्रह्मा, विष्णु और शिव का काल लगभग १४००० ईसा पूर्व ? ---ब्रह्मा उदय—पुत्र ---शिव, नारद, चार कुमार, अत्रि, मरीचि, वशिष्ठ, अंगिरा,पुलह, पुलस्त्य,भ्रगु आदि सप्तर्षि व
स्वयन्भाव मनु आदि – वैदिक संस्कृति की स्थापना –जो सुर-असुर-मानव संस्कृति
थी |
ब्रह्मापुत्र -----मरीचि ---कश्यप
à
१.---दिति (मनु पुत्री प्रसूति पुत्री)---दैत्य = हिरण्यकश्यप---प्रहलाद---वाली—वाणासुर
..असुर वंश
२.अदिति (मनु पुत्री प्रसूति पुत्री )---विवस्वान सूर्य व अन्य देवता (सुर)
३. अन्य २३ पत्नियां---(समस्त देव, दैत्य व मानवेतर सृष्टि)---पशु, पक्षी, वनस्पति, नाग आदि
ब्रह्मा काल में प्रारंभिक मानवों ने धरती पर
प्रजातियों की उत्पत्ति और विकास का कार्य किया। इस काल को पुराणों में वराह काल का प्रारंभ कहा गया
है। वराह काल में--नील वराह काल, आदि वराह
काल और श्वेत वराह काल देवी, देवता, दैत्य आदि का काल था जिन्होंने अंतिम काल में शिव द्वारा वेदों की रचना के पश्चात धरती पर वैदिक
हिन्दू धर्म-इतिहास की नींव रखी |
ब्रह्माकाल में --ब्रह्मा, विष्णु और महेश के काल में --प्रमुख रूप से देवता, दैत्य, दानव, राक्षस, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, नाग, भल्ल, वराह आदि प्रमुख जाति के लोग रहते थे। ये सभी मायावी और चमत्कारिक शक्ति से संपन्न लोग थे।
द्वितीय महाकाल
-- स्वयंभाव मनु का काल---9057 ईसा पूर्व से...
स्वयंभाव मनु à स्वायम्भुव मनु काल 9057
ईसा पूर्व से... ५००० ईपू ..
१.---उत्तानपाद àध्रुव -–प्रथु—प्रचेतस---दक्ष –६० पुत्रियाँ –दिति, अदिति आदि –पृथ्वी का
नाम महाराजा प्रथु से..पृथ्वी को साफ़ करके निवास योग्य बनाया, सप्त द्वीप व
सप्त सागरों को निर्मित—व्यवस्थित, समन्वित किया|
-----------सुमेरु, कैलाश, इन्द्रलोक, स्वर्गलोक
आदि सुमेरु पर्वत क्षेत्र की चहुँ ओर विक्सित देवलोक
थे | शेष समस्त विश्व क्षेत्र पृथ्वी नाम से ही
जाना जाता था जिसे महाराज प्रथु ने बसाया |
२.----प्रियव्रत à सप्तद्वीप के शासक –१३ पुत्र मनु व सन्यासी –पुत्री
के सात पुत्र सप्तद्वीप के शासक बने--- आग्नीधृ --जम्बू द्वीप का सम्राट
---९ पुत्र –महाराज नाभि ---ऋषभ देव ---भरत –जिनके नाम पर भारतवर्ष…. |
वैवस्वत
मनु à ( सूर्यपुत्र - सूर्यवंश---आर्यों के प्रथम शासक ) à इला (+बुध ) पुत्री, नाभाग---अम्बरीश: इक्ष्वाकु---निमि---जनक---सीता; हरिश्चन्द्र ---दिलीप---भागीरथ ---राम
–लव कुश |
-----महाजलप्रलय----वैवस्वत मनु के समय ---
तृतीय महाकाल ---
पुनर्निर्माण काल—
----- वैवस्वत मनु द्वारा पृथ्वी व मानव जाति का
पुनर्निर्माण ---मनु स्मृति ---- आचरण संहिता का निर्माण ---
-----आर्य = श्रेष्ठ आचरण युत मानव ..आर्यावर्त की स्थापना
--
अत्रि àसोम ( चन्द्रवंश )—-बुध (+इला ) -–पुरुरवा---आयु -–ययाति-àयदु, पुरु, तुर्वसु, अनु, द्रुह्य-----कृष्ण ..पौरव ...म्लेक्ष.. भोज
आदि....यवन...|
ख, सप्त द्वीप
धरती ----
पुराणों और वेदों के अनुसार धरती के सात
द्वीप थे- जम्बू, प्लक्ष, शाल्मली,
कुश, क्रौंच, शाक एवं
पुष्कर। इसमें से जम्बू द्वीप सभी के बीचोबीच स्थित
है। पहले संपूर्ण हिन्दवैदिक जाति जम्बू द्वीप पर शासन करती थी। चन्द्रवंशीय
सम्राटों द्वारा इसे बसाए व स्थित किये जाने के कारण इसे इंदु-स्थान ...हिंदुस्तान
कहा गया | फिर उसका शासन घटकर
भारतवर्ष तक सीमित हो गया।
जम्बू द्वीप के 9 खंड थे :- इलावृत, भद्राश्व, किंपुरुष, भरत, (
हिमवर्ष ) हरि, केतुमाल, रम्यक, कुरु और हिरण्यमय। में भारतवर्ष ही मृत्युलोक है, शेष देवलोक हैं।
इसके चतुर्दिक लवण सागर है। इस संपूर्ण नौ खंड में ---आज के इसराइल से चीन और रूस
से भारतवर्ष का क्षेत्र आता है ।
इसमें से भरत खंड या हिमवर्ष को ही --भारत कहा गया, ज्ञान के
प्रकाश (भा) से समृद्ध (रत) एवं मानव के भरण पोषण हेतु समृद्ध धरती होने पर |
पहले इसका नाम अजनाभ खंड था।
इस
भरत खंड के भी नौ खंड थे- इन्द्रद्वीप, कसेरु, ताम्रपर्ण, गभस्तिमान, नागद्वीप, सौम्य,
गंधर्व और वारुण तथा यह समुद्र से घिरा हुआ द्वीप हिमवर्ष (भारतवर्ष ) -- उनमें
नौवां है।
इस
संपूर्ण क्षेत्र को भगवान राम के काल के हजारों वर्ष पूर्व प्रथम मनु
स्वयांभाव मनु के पुत्र प्रियव्रत वंशी महान सम्राट भरत के पिता, पितामह और भरत के वंशों ने बसाया था।
यह
भारत वर्ष अफगानिस्तान के हिन्दुकुश पर्वतमाला से अरुणाचल की
पर्वत माला और कश्मीर की हिमालय की चोटियों से कन्याकुमारी तक फैला था। दूसरी
और यह हिन्दूकुश से अरब सागर तक और अरुणाचल से
बर्मा तक फैला था। इसके अंतर्गत वर्तमान के अफगानिस्तान बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, बर्मा,
श्रीलंका, थाईलैंड, इंडोनेशिया
और मलेशिया आदि देश आते थे। इसके प्रमाण आज भी मौजूद हैं।
इस भरत खंड में कुरु,
पांचाल, पुण्ड्र, कलिंग,
मगध, दक्षिणात्य, अपरान्तदेशवासी,
सौराष्ट्रगण, तहा शूर, आभीर,
अर्बुदगण, कारूष, मालव,
पारियात्र, सौवीर, सन्धव,
हूण, शाल्व, कोशल,
मद्र, आराम, अम्बष्ठ और
पारसी गण आदि रहते हैं। इसके पूर्वी भाग में किरात और
पश्चिमी भाग में यवन बसे हुए थे।
वायु पुराण के अनुसार महाराज प्रियव्रत
का अपना कोई पुत्र नहीं था तो उन्होंने अपनी पुत्री के पुत्र अग्नीन्ध्र को गोद
ले लिया था जिसका लड़का नाभि था। नाभि के पुत्र ऋषभ , ऋषभ के
पुत्र भरत थे| इन्हीं भरत के नाम पर इस
देश का नाम ‘भारतवर्ष’ पड़ा।
इस
भूमि का चयन करने का कारण था कि प्राचीनकाल में जम्बू द्वीप ही एकमात्र ऐसा द्वीप था, जहां रहने के लिए उचित वातारवण था और उसमें भी भारतवर्ष की जलवायु सबसे
उत्तम थी। यहीं वितस्ता नदी के पास स्वायंभुव
मनु और उनकी पत्नी शतरूपा निवास करते थे राजा प्रियव्रत ने अपनी
पुत्री के 10 पुत्रों में से 7 को संपूर्ण धरती के 7 महाद्वीपों का राजा बनाया दिया था और अग्नीन्ध्र को जम्बू द्वीप का राजा बना दिया था।
ग, भारत का राष्ट्र के रुप में उदय ---- आज जिसका नाम हिन्दुस्तान है वह भारतवर्ष का एक टुकड़ा
मात्र है। जिसे आर्यावर्त कहते हैं वह भी
भारतवर्ष का एक हिस्साभर है और जिसे भारतवर्ष कहते हैं वह तो जम्बू द्वीप का एक हिस्सा
है मात्र है। जम्बू द्वीप में पहले देव-असुर और फिर बहुत बाद में कुरुवंश और
पुरुवंश की लड़ाई और विचारधाराओं के टकराव के चलते यह जम्बू द्वीप कई भागों में
बंटता चला गया।
भारत एक सनातन राष्ट्र माना जाता है क्योंकि यह मानव सभ्यता का पहला राष्ट्र था। श्रीमद्भागवत के पञ्चम स्कन्ध में भारत राष्ट्र की स्थापना का वर्णन आता है।
भारतीय दर्शन के अनुसार सृष्टि उत्पत्ति के पश्चात ब्रह्मा के मानस पुत्र स्वायंभुव मनु ने व्यवस्था सम्भाली। इनके दो पुत्र, प्रियव्रत और उत्तानपाद थे।
उत्तानपाद भक्त ध्रुव के पिता थे। जिनके वंश में वेंन पुत्र प्रथु जिन्होंने धरती बसाई , उसे पृथ्वी नाम दिया |
प्रियव्रत ने पृथ्वी को सात भागों में विभक्त कर एक-एक भाग प्रत्येक पुत्र को सौंप दिया। इन्हीं में से एक थे आग्नीध्र जिन्हें जम्बूद्वीप का शासन कार्य सौंपा गया। आग्नीध्र ने अपने नौ पुत्रों को जम्बूद्वीप के विभिन्न नौ स्थानों का शासन दायित्व सौंपा।
इन नौ पुत्रों में सबसे बड़े थे नाभि जिन्हें हिमवर्ष का भू-भाग मिला। इन्होंने हिमवर्ष को स्वयं के नाम अजनाभ से जोड़कर अजनाभवर्ष प्रचारित किया। यह हिमवर्ष या अजनाभवर्ष ही प्राचीन भारत देश था । राजा नाभि के पुत्र थे ऋषभ। ऋषभदेव के सौ पुत्रों में भरत ज्येष्ठ एवं सबसे गुणवान थे। भरत के नाम से ही लोग अजनाभखण्ड को भारतवर्ष कहने लगे।
विश्व की कई प्राचीन संस्कृतियों में ऋषभदेव
बुलगॉड, राकशव, आग्रिव, रेशेफ और आदम आदि नामों से स्मृत एवं पूज्य हैं |ऋषभदेव ने लिपि विद्या का
आविष्कार किया है और सर्वप्रथम बड़ी पुत्री को लिपि
विद्या का अभ्यास कराया जिससे उस लिपि का नाम ब्राह्मी लिपि प्रसिद्ध हो
गया।
निरुक्तिकार लिखते हैं
कि ‘भारत आदित्यस्तस्य या भारती’ अर्थात भरत सूर्य है और
उसकी शोभा भारती है। इसका तात्पर्य सूर्यवंशी भरत के नाम पर इस देश नाम
पड़ा न कि चन्द्रवंशी भरत के नाम पर। ऋग्वेद तथा यजुर्वेद की ऋचाओं और मंत्रों
में भारती का स्पष्ट संबंध आदित्य सूर्यवंशी भरत से बतलाया गया है।
गीता में भी श्री कृष्ण ने ऋषभ और भरत का स्मरण
किया है-
‘‘चतुर्विद्या भजन्ते माजना: सुकृतिनोर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरथार्थी ज्ञानी व भरतैषभ।’’
‘मत्स्यपुराण’ के अनुसार------ भरणात्
प्रजानाच्चैव मनुर्भरत उच्यते।
निरूक्त यवचनैश्चैव वर्ष तद् भारतं स्मृतम् ।।
निरूक्त यवचनैश्चैव वर्ष तद् भारतं स्मृतम् ।।
भरत
का भारत इसी दृष्टि से उनका सर्वप्रथम उपकृत और कृतज्ञ
है। वे अनाचार पर सदाचार का प्रतिष्ठापन करते हैं। स्व और पर के भरण-पोषण करने के
लिए अनेक विधि उपयोगी सिद्धान्त-पद्धतियों के प्रवर्तन करने के उपलक्ष्य में राज्यवर्ती
प्रजाजनों ने एक स्वर से अपने देश का नाम सम्राट भरत के नाम पर भारतवर्ष रख दिया
जो आज तक प्रचलित है।
उस काल में भारत के शासक को ‘मनु’
कहा जाता था | नाभिराय को अंतिम मनु माना गया है, किन्तु
ऋषभदेव और उनके बाद भरत ने भी वही कार्य प्रतिभा, मनस्विता
और सुदृढ़ता से सम्पन्न किया, अत: उन्हें भी ‘मनु’ कहा गया। राजा भरत ने जो क्षेत्र
अपने पुत्र सुमति को दिया वह भारतवर्ष कहलाया।
भारतवर्ष अर्थात भरत राजा का क्षेत्र।
भरत
एक प्रतापी राजा एवं महान भक्त थे। श्रीमद्भागवत के पञ्चम स्कंध एवं जैन ग्रंथों
में उनके जीवन एवं अन्य जन्मों का वर्णन आता है। महाभारत के अनुसार भरत का साम्राज्य संपूर्ण भारतीय
उपमहाद्वीप में व्याप्त था जिसमें वर्तमान भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान, किर्गिज्तान,
तुर्कमेनिस्तान तथा फारस आदि क्षेत्र शामिल थे।
घ. वैदिक संस्कृति व वैदिक काल ----
विद्वानों की मान्यता है कि आर्य भारतवर्ष के स्थायी निवासी रहे है तथा वैदिक इतिहास करीब ७५००० वर्ष प्राचीन है। इसी समय दक्षिण भारत में द्रविड़ सभ्यता का
विकास होता रहा। दोनों जातियों ने एक दूसरे की
खूबियों को अपनाते हुए भारत में एक मिश्रित संस्कृति का निर्माण किया। यह संस्कृति ही वैदिक संस्कृति कहलाई जो प्रियव्रतवंशी जम्बूद्वीप व सप्तद्वीपों के
सम्राटों के साथ समस्त पृथ्वी पर फ़ैली |
वैदिक काल में भारतीय सभ्यता का विस्तार
दुनिया के सभी देशों में था जिसे जम्बूद्वीप कहा जाता है । लोग विभिन्न जातियों, जनजातियों व कबीलों में बंटे
थे। उनके प्रमुख राजा कहलाते थे, बीतते समय के साथ-साथ उनमें
अपनी सभ्यता व राज्य विस्तार की भावना बढ़ी और उन्होंने युद्ध और मित्रता के
माध्यम से खुद का चतुर्दिक विस्तार का प्रयास किया। और इस क्रम में कई जातियां,
जनजातियां और कबीलों का लोप सा हो गया। एक नई सभ्यता और संस्कृति का
उदय हुआ।
पहले
हिमालय का
ऊंचाई स्तर बहुत
कम था
और समस्त
द्वीप जल
में डूबे
हुए थे
। धीरे
धीरे समय
बीतने पर
जल स्तर
कम होता
गया और
हिमालय ऊपर
होता गया और
मनुष्यों ने
तिब्बत से
नेपाल होते
होते समय
के साथ
धीरे धीरे
आर्यवर्त के
दूसरे भागों
में प्रवेश
करना शुरू
किया ।
पहले उत्तर
प्रदेश फिर
पंजाब नेपाल
से होते
हुए असम
ब्रह्मपुत्र नदी
के तट
तक और
मध्य भारत
के भाग
तक । सिन्धु नदी
के तट
तक भारत बसता
चला गया ।
मनुष्यों
की आबादी
भी बढ़ने लगी
थी और
वह भूमि
पर विस्तार
करता गया
। मानव
भूमि में
खेती करने
लगा । नगर और
ग्राम
बसाने लगा
। नदियों
के किनारे
ग्राम बसाए
जाने लगे
। पर्वतों और
नदीयों के
पास ही
शिक्षा के
लिए गुरूकुल खोले
जाने लगे
। उस
समय भूमि बहुत
उपजाऊ हुआ
करती थी
। वृक्षों
पर फल
भरे रहते
थे ।
वृक्ष कई
कई मील
की ऊँचे
थे ।
इस प्रकार धीरे
धीरे समय
के साथ
मानव पूरी
भूमि पर फैलता
चला गया
। भारत देश व वैदिकसभ्यता का
विस्तार होता गया |
वैदिक
काल
में भारत की वैदिक व्यवस्था
में गुरू शिष्य
परम्परा के
होने से
शिष्य गुरू
के पास
जाकर सभ्यता सीखता
था,मानव बुद्धि
असाधारण हुआ
करती थी
। समाज
में वैदिक
चतुर वर्ण व्यवस्था
कर्म के आधार पर थी
। समाज
समृद्धिशाली था
। रोग
अति न्यून
था । समय
समय पर
यदि रोग
बढ़ता भी
था तो
ऋषियों नें
अनेकों आयुर्वेद
शास्त्रों की रचना करके समाज का महान उपकार
भी किया
था और
रोगों की
चिकित्साएँ की
थीं । समाजिक अर्थव्यवस्था में धन का प्रयोग
न होकर सामान का आदान प्रदान
होता था, परिश्रम का आदान प्रदान होता था ।
पुत्र और
पुत्रीयाँ आज्ञाकारी
होते थे
। जब
कोई वृद्ध
आता था
तो सभी
छोटे खड़े
होकर प्रेम
पूर्वक नमस्ते
करते थे
। पत्नी
और पती
में सदाचार
और शिष्टाचार
का स्तर
उच्च हुआ
करता था
। निंदा
चुगली नहीं
हुआ करती
थी ।
सभी अपना
ज्ञान वृद्धि के लिए प्रयत्न
किया करते
थे ।
बिना कारण
के वाद
विवाद नहीं
हुआ करते
थे ।
पुरुष बलशाली और पराक्रमी होते थे, स्त्रियाँ
सुन्दर और सुशील होती
थीं ।
स्वच्छता का
विषेश ध्यान
रखा जाता
था । व्याभिचार
न के
बराबर था
। कोई
चोर, ठग, और लम्पटी नहीं
होता था
। ऐसी
ही थी
। शुद्र समाज भी बहुत
विनयशील और
सदाचारी होता
था ।
आम जन भी संस्कृत में बातें करते
थे । धर्म
का पालन
करना सबके
लिए आवश्यक
था ।
स्त्री-पुरुष ब्रह्मचर्य
का पालन करते
थे
नंदी की पूजा--मिश्र -फ़राओ
नंदी की पूजा--मिश्र -फ़राओ
समय के साथ संस्कृतियों में शिथिलता आने
लगती है । जो ओजस्विता का सामर्थ्य पूरे भारत में उमड़
रहा था वह समय आने के साथ शिथिल होने लगा । कुछ जनसंख्या का बढ़ना
भी अपना प्रभाव दिखा रहा था । व्यभिचार का फैलना आरम्भ हो चला था । बलशाली लोग निर्बलों पर अत्याचार करने लगे । समाज में वैदिक
मर्यादाएँ भंग होने लगीं थीं ।
इसी
काल में शास्त्रों के
ज्ञाता धर्म
के धुरंधर महर्षि वैवस्वत मनु के शासन काल में विश्व की प्रत्येक सभ्यता में वर्णित महाजलप्लावन हुआ जिसमें समस्त धरती जल में समा गयी, धरती के अधिकांश प्राणी मर गए व सभ्यताएं नष्ट होगयीं। केवल वैवस्वत मनु,
सप्तर्षि व सृष्टि-मूल के बीजों का संरक्षण हुआ जिसे भगवान् विष्णु के मत्स्यावतार
रूपी नौका द्वारा हिमालय के सर्वोच्च पर्वत श्रृंग पर पहुंचाया गया | जल उतरने
पर वैवस्वत मनु और उनके कुल के लोगों ने ही फिर से
धरती पर सृजन और विकास की गाथा लिखी |
च. आर्यावर्त
का उदय --- आर्यावर्त : बहुत से लोग
भारतवर्ष को ही आर्यावर्त मानते हैं जबकि यह भारत का एक हिस्सा मात्र था। वेदों में उत्तरी भारत को आर्यावर्त कहा गया है।
आर्यावर्त का अर्थ आर्यों का निवास स्थान। आर्यभूमि
का विस्तार काबुल
की कुंभा नदी से भारत की गंगा नदी तक था।
-आर्यावर्त
-आर्यावर्त
महाजलप्रलयोपरांत वैवस्वत मनु ने हिमालय से उतर कर पृथ्वी व
भारत में मानव जाति का पुनर्निर्माण किया प्रलय में नष्ट पुरा देवसंस्कृति
की त्रुटियों का निराकरण करते हुए महाराज मनु ने वैदिक
वर्ण व्यवस्था
के आधार
मनुस्मृति का निर्माण किया जो मानव
के लिए एक आचरण संहिता थी|
इनके अनुसार श्रेष्ठ आचरण युत मानव को आर्य की संज्ञा दी गयी इस प्रकार आर्यावर्त की स्थापना
हुई एवं वैवस्वत
मनु प्रथम आर्य शासक हुए |
मनुस्मृति में उन्होंने
वैदिक व्यवस्था
को भंग
करने वालों के
लिए कठोर
नियमों का उपादान किया
। जिससे
कि आर्यवर्त
में फिर
से सुख
और स्मृद्धि
आने लगी
। प्रायश्चित
करने के
लिए भी
कड़े नियम
थे जिससे
कि मनुष्य
सभ्य समाज
में पुनः
प्रवेश कर
सकता था
और वही
सम्मान प्राप्त
कर सकता
था ।
परन्तु सबसे
कठोर दण्ड
था समाज
से बहिष्कृत
किया जाना, ये
दण्ड मृत्यु
से भी
बढ़कर था
और बहुत
बुरा समझा
जाता था
। जब
कोई वैदिक
मर्यादाओं को
भंग करता
था तो
उनको आर्य
समाज से निकाल कर चतुर्वर्ण से बाहर कर दूर दक्षिण के अरण्यों ( जंगलों ) में भेज दिया जाता था
। यदि
वो वापिस
दस्यु से
आर्य बनना चाहे तो उसको मनु के नियमों के अनुसार दण्ड भोग करके पुनः वह आर्य समाज में प्रवेश कर सकता था ।
समय
के साथ
साथ ये
बहिष्कार करने का कार्य बहुत उग्र हो चला था
। देश
निकाला लेकर
ये लोग
दूर दक्षिण
भारत के
अरण्यों में या
उससे भी
दूर दूर
के द्वीपों
पर जा
कर बसने
लगे ।
और वहाँ
उन स्थानों
को अपनी
अपनी जाति
के नाम
से बसाने
लगे ।
यही लोग अनार्य
कहलाये | कुछ लोग तो दण्ड व्यवस्था
का पालन कर पुनः वैदिक आर्य समाज में प्रवेश पा लेते थे परन्तु बहुधा लोग तो आर्यों से ईर्ष्या
द्वेष की भावना रखने लगे । और
कभी कभी
तो ये
दस्यु लोग अपनी सेनाएँ लेकर आर्यों से
युद्ध भी करते रहे हैं
। इन्हीं
को संस्कृत
के ग्रन्थों
में आर्य- अनार्य युद्ध कहा जाता है | ऐसे
ही बहिष्कृत
दस्यु लोग
आर्यवर्त से
हो होकर
दूर देशों
में समस्त पृथ्वी पर बसते
चले गए
हैं, और उन
देशों को अपनी
जाति के
नाम पर
बसाते चले
गए हैं
।
इस प्रकार मानव जाति के लोग अपने आर्यत्व से पतित हो होकर पूरी पृथिवी पर फैले जिन्हें अनार्य कहा गया। इन
बहिष्कृत दस्युओ
अनार्यों/ की
जातियों नाम इनके
गुण, कर्म, स्वभाव या
इनके नयन
नक्षों के
आधार पर रखे
गए हैं
।
-
रामवंशी लव, कुश, बृहद्वल, निमिवंशी शुनक और ययाति वंशी यदु, अनु, पुरु, दुह्यु, तुर्वसु का राज्य महाभारतकाल तक चला | इन्हीं पांचों से मलेच्छ, यादव, यवन, भरत और पौरवों का जन्म हुआ। इनके काल को ही आर्यों का काल कहा जाता है।
आर्यों के काल में जिन वंश का सबसे ज्यादा विकास हुआ वे हैं- ययाति वंशी---यदु, तुर्वसु, (देवयानी पुत्र) द्रुहु, पुरु और अनु (शर्मिष्ठा पुत्र )। उक्त पांचों से राजवंशों का निर्माण हुआ। यदु से यादव, ... तुर्वसु से यवन, ..द्रुहु से भोज, ... अनु से मलेच्छ और पुरु से पौरव |
महाराजा ययाति ने पुरु को राज्य भार दिया। परन्तु शेष पुत्रों को भी राज्य से वंचित न रखा। वह बंटवारा इस प्रकार था -
1. यदु को दक्षिण
का भाग (जिसमें हिमाचल प्रदेश,
पंजाब, हरयाणा, राजस्थान,
दिल्ली तथा इन प्रान्तों से लगा उत्तर प्रदेश, गुजरात एवं कच्छ हैं)।
2. तुर्वसु को पश्चिम
का भाग (जिसमें आज पाकिस्तान,
अफगानिस्तान, ईरान, इराक,
सऊदी अरब,यमन, इथियोपिया,
केन्या, सूडान, मिश्र,
लिबिया, अल्जीरिया, तुर्की,
यूनान हैं)।
4. अनु को उत्तर का
भाग (इसमें उत्तरदिग्वाची सभी देश
हैं) दिया। आज के हिमालय पर्वत से लेकर उत्तर में चीन, मंगोलिया, रूस, साइबेरिया, उत्तरी
ध्रुव आदि सभी इस में हैं। ---यूरेशिया
...
5. पुरु को सम्राट् पद पर अभिषेक कर, बड़े भाइयों को उसके अधीन रखकर
ययाति वन में चला गया। यदु से यादव क्षत्रिय उत्पन्न हुए। तुर्वसु
की सन्तान यवन ( असुरों के गुरु शुक्राचार्य पुत्री देवयानी के
पुत्र ) कहलाई। द्रुहयु के
पुत्र भोज नाम से प्रसिद्ध हुए। अनु से म्लेच्छ जातियां
उत्पन्न हुईं। पुरु से पौरव वंश चला।
वाह्लीक,तक्षक,
कुशान, शिव, मल्ल,
क्षुद्रक (शुद्रक), नव
आदि सभी खानदान जिनका महाभारत और बौद्धकाल में नाम आता
है वे इन्हीं यदु, द्रुहयु,
कुरु और पुरुओं के उत्तराधिकारी (शाखायें) हैं।
छ. भारत पुनः
भारत----- ( आर्यावर्त नाम समाप्ति )
वैवस्वत मनु से दाशराज्ञ युद्ध तक आर्यावर्त का काल
कहा जाता है, वैवस्वत मनु को आर्यों का प्रथम शासक माना
जाता है।
सम्राट भरत के समय में राजा हस्ति हुए जिन्होंने
अपनी राजधानी हस्तिनापुर बनाई। राजा हस्ति
के पुत्र अजमीढ़ को पंचाल का राजा कहा गया है। राजा अजमीढ़ (पुरुवंशीय
) के वंशज राजा संवरण जब हस्तिनापुर के राजा थे तो पंचाल में उनके
समकालीन राजा सुदास (भरत कबीला)
का शासन था।
राजा
सुदास का संवरण से युद्ध हुआ जिसे ऋग्वेद में वर्णित ‘दाशराज्य युद्ध’ से जानते हैं। राजा सुदास के
समय पंचाल राज्य का विस्तार हुआ। इस युद्ध के बाद भारत की किस्मत बदल गई। समाज में
दो फाड़ हो गई।
भारतीय उपमहाद्वीप का पहला दूरगामी असर डालने वाला युद्ध बना दशराज
युद्ध। उस काल में राजनीतिक व्यवस्था
गणतांत्रिक समुदाय से परिवर्तित होकर राजाओं पर केंद्रित होती जारही थी। इस युद्ध ने न सिर्फ आर्यावर्त को बड़ी शक्ति के रूप में स्थापित कर दिया
बल्कि राजतंत्र के पोषक महर्षि वशिष्ट की
लोकतंत्र के पोषक महर्षि विश्वामित्र पर श्रेष्ठता भी साबित कर दी।
भरत कबीला राजा प्रथा आधारित था जबकि उनके विरोध में खड़े कबीले लगभग सभी लोकतांत्रिक थे|
दाशराज्ञ युद्ध राम-रावण युद्ध से भी पूर्व संभवतः 7200 ईसा पूर्व त्रेतायुग के अंत में हुआ था | यह आर्यावर्त का
सर्वप्रथम भीषण युद्ध था जो आर्यावर्त क्षेत्र
में आर्यों के ही बीच हुआ था। प्रकारांतर
से इस युद्ध का वर्णन दुनिया के हर देश और वहां की संस्कृति में आज भी विद्यमान
हैं। इस युद्ध के परिणाम स्वरुप ही मानव
के विभिन्न कबीले भारत एवं भारतेतर दूरस्थ क्षेत्रों में फैले व फैलते गए | ऋग्वेद
के सातवें मंडल में इस युद्ध का वर्णन मिलता है। यह युद्ध आधुनिक पाकिस्तानी
पंजाब में परुष्णि नदी (रावी नदी) के पास हुआ था।
उन दिनों पूरा आर्यावर्त कई टुकड़ों में बंटा
था और उस पर विभिन्न जातियों व कबीलों का शासन था। भरत जाति के कबीले के
राजा सुदास थे। उनकी लड़ाई सबसे ज्यादा पुरु, यदु, तुर्वश, अनु,
द्रुह्मु, अलिन, पक्थ,
भलान, शिव एवं विषाणिन कबीले के लोगों से हुई थी। सबसे बड़ा और निर्णायक युद्ध पुरु और तृत्सु नामक आर्य समुदाय के
नेतृत्व में हुआ था। इस युद्ध में जहां एक ओर पुरु नामक आर्य समुदाय के
योद्धा थे, तो दूसरी ओर 'तृत्सु' नामक समुदाय के लोग थे। दोनों ही
हिंद-आर्यों के 'भरत' नामक समुदाय से संबंध रखते थे।
सुदास के विरुद्ध दस राजा (कबीले-जिनमें कुछ अनार्य कबीले भी शामिल थे ) युद्ध
लड़ रहे थे जिनका नेतृत्व पुरु कबीला के राजा
संवरण कर रहे थे, जिनके सैन्य सलाहकार ऋषि विश्वामित्र थे जो
लोकतांत्रिक शासन तंत्र के समर्थक थे। हस्तिनापुर के राजा संवरण भरत के कुल के
राजा अजमीढ़ के वंशज थे | पुरु समुदाय
ऋग्वेद काल का एक महान परिसंघ था जो सरस्वती नदी के किनारे बसा था | आर्यकाल में
यह जम्मू-कश्मीर और हिमालय के क्षेत्र में राज्य करते थे। एक ओर वेद
पर आधारित भेदभाव रहित वर्ण व्यवस्था का विरोध करने वाले विश्वामित्र के सैनिक थे तो दूसरी ओर एकतंत्र और
इंद्र की सत्ता को कायम करने वाले गुरु वशिष्ठ की सेना के
प्रमुख राजा सुदास थे।
विश्वामित्र
ने पुरु, यदु, तुर्वश,
अनु और द्रुह्मु तथा पांच अन्य छोटे कबीले अलिन, पक्थ, भलान, शिव एवं विषाणिन आदि दस राजाओं के एक कबीलाई संघ का गठन तैयार किया जो ईरान, से लेकर अफगानिस्तान, बोलन दर्रे, गांधार व रावी नदी तक के क्षेत्र में निवास करते थे |
दासराज युद्ध को एक दुर्भाग्यशाली घटना कहा गया है। इस युद्ध में इंद्र और वशिष्ट की संयुक्त सेना के हाथों विश्वामित्र की सेना को पराजय का मुंह देखना पड़ा। सुदास के भरतों की विजय हुई और उत्तर भारतीय उपमहाद्वीप के आर्यावर्त और आर्यों पर उनका अधिकार स्थापित हो गया।
इस देश का नाम भरतखंड एवं इस क्षेत्र
को आर्यावर्त कहा जाता था परन्तु इस युद्ध के
कारण आगे चलकर पूरे देश का नाम ही आर्यावर्त की जगह 'भारत' पड़ गया। जो आज तक कायम है |
आगे चलकर पुनः संवरण के कुल के कुरु
ने पांचाल पर अधिकार कर लिया पुरु और भरत कबीला मिलकर ‘कुरु’ तथा ‘तुर्वश’ और ‘क्रिवि’ कबीला मिलकर ‘पंचाल’
(पांचाल) कहलाए।
कुरु के नाम से कुरु वंश प्रसिद्ध हुआ, राजा कुरु के नाम
पर ही सरस्वती नदी के निकट का राज्य कुरुक्षेत्र कहा गया। उस के वंशज कौरव कहलाए और आगे चलकर दिल्ली के पास
इन्द्रप्रस्थ और हस्तिनापुर उनके दो प्रसिद्ध नगर हुए। पुनः एक बार भाई भाइयों, कौरवों और पांडवों का युद्ध एक बार
भारतीय इतिहास की विनाशकारी घटना महाभारत युद्ध हुआ।