शरण कहाँ मिलेगी--रचनाकार --राजेन्द्र स्वर्ण कार -- मूल्य संस्कार नैतिकता मर्यादा आत्म विवेचन और जीव ऐसे ही कुछ अन्य … विलुप्त जातियों के ! नहीं बन सके जो केंद्र आकर्षण का युग के बच्चों में , डायनासोर के समकक्ष…! न ही जगा सके अकुलाहट भरी उत्सुकता कमरों की चिटकनियाँ भीतर से बंद किये बैठी नवयौवनाओं में, आँखों से चिपके कंप्यूटर स्क्रीन पर तैरती पोर्न साइट्स की तरह…! नहीं हुए ये शोध का विषय पुरातत्ववेत्ताओं के लिए समुद्र में संभाव्य द्वारिका के समान…! सरक लेती है इन सफ़्हों को पढ़ने से गुरेज़ करती फुहड़ाती-नंगाती ऐंचक-भैंचक पीढ़ी भावी कर्णधारों की …! रोती है रोना, तो बस… बुढ़ाई बेबस हड्डियाँ लोथ लाशें कुछ, …आँखों के सामने देखते हुए अपहरण ज़बरज़िना और क़त्ल इन कलेजों के टुकड़ों का! परंतु, निग़ल ली गई है संभावना सावित्री के सत्यवान के पुनर्जीवित होने की… पाताललोक की आवारा मछली द्वारा शकुंतला की अंगूठी की तरह…, और, बिसर चुका है काल-दुष्यंत मूल्य संस्कार नैतिकता मर्यादा आत्म विवेचन आदि-आदि! होगा भी क्या, कभी मिल भी गए जीवाश्म इनके यदि…, संस्कृति के समुद्र में बंसी लटकाने आए किसी शौक़िया सैलानी को? … … … चल रहा है घुटरुन अभी तलक विज्ञान - शिशु ... ... ... पता नहीं कब कैसे बचकर पंजों से बटुकभोगियों के, रखेगा क़दम वह परिपक्व यौवन की दहलीज़ पर ? और, पाएगा अपनी पूर्णता को ! रह भी पाएगा भला नामलेवा कोई इनका तब तक? फूँक भी दिए गए प्राण यदि, एकत्र किए हुए अवशेषों में किसी तरह … शरण कहां मिलेगी!? खचाखच भर चुकी होगी पृथ्वी और भी विषैले-भयावह जीवों से तब तक … … … … ! - |
आधुनिक-विज्ञान व पुरा वैदिक-विज्ञान, धर्म, दर्शन, ईश्वर, ज्ञान के बारे में फ़ैली भ्रान्तियां, उद्भ्रान्त धारणायें व विचार एवम अनर्थमूलक प्रचार को उचित व सम्यग आलेखों, विचारों व उदाहरणों, कथा, काव्य से जन-जन के सम्मुख लाना---ध्येय है, इस चिठ्ठे का ...
सोमवार, 24 मई 2010
एक सार्थक सुन्दर कविता ...
शुक्रवार, 21 मई 2010
जीवन की रचना---कृत्रिम जीवन -कोशिका की प्रयोगशाला में उत्पत्ति...
इसके साथ ही विश्व भर में इस खोज की नैतिकता पर भी प्रश्न उठ खड़े हुए हैं, स्वयं वैज्ञानिक समुदाय द्वारा ही। इसके दुरुपयोग के भयंकर परिणामों, भयंकर अनुशासन हीन दुर्मानवों, अतिकाय मानव व जीवों की उत्पत्ति , मानवता के संकट के रूप में । यद्यपि टी वी समाचारों , समाचार पत्रों आदि में दिखाए गए अतिकाय मानवों के दृश्य , कथन आदि सिर्फ पाश्चात्य कथाएँ , सीरिअल्स , पिक्चर आदि से प्रभावित है जो स्वाभाविक है क्योंकि आज भारतीय प्राच्य ज्ञान की कोई पूछ ही नहीं है। जबकि भारतीय पुरा ज्ञान, वैदिक साहित्य में यह सब पहले से ही वर्णित है |
सृष्टा -ब्रह्मा का ही एक सहयोगी था 'त्वष्टा' जिसने यज्ञ द्वारा यह विद्या प्राप्त कर ली थी परन्तु वाह उसकादुरुपयोग करने लगा था । वह यज्ञ द्वारा हाथी कासी-मानव का धड ; मानव का सर -जानवरों-पक्षियों का धड , विशालकाय मानव व पशु पक्षी उत्पन्न करने लगा था | त्रिशिरा नामक दैत्य(तीनसर वालामानव=देव=दैत्य)
उसी का पुत्र था जिसका अत्याचार लिप्त होने पर इन्द्र ने वध किया था। तत्पश्चात ब्रह्मा द्वारा त्वष्टा ऋषि का ब्रह्मत्व ( ज्ञान ) छीन कर उसे निष्प्रभ कर दिया गया ।
हमें सदुपयोग व दुरुपयोग के मध्य की क्षीण रेखा का ध्यान रखना होगा , इतिहास से सबक लेकर।
अखिल भारतीय साहित्य परिषद् , उत्तर प्रदेश द्वारा संत साहित्य पर गोष्ठी ......

--अखिल भारतीय साहित्य परिषद् , उ प्र द्वारा संत कंवर राम के १२५ वें पुन्य तिथि पर दि- २३-५-१० रविवार को लखनऊ स्थित शिव शक्ति आश्रम, वी आई पी रोड , आलमबाग पर एक गोष्ठी का आयोजन किया गया है जिसका विषय है ॥" समाज सुधार में संत साहित्य का योगदान एवं संत कंवर राम "--आप सब आमंत्रित हैं । देखिये उपरोक्त आमंत्रण पत्र.
मंगलवार, 11 मई 2010
प्राचीन भारत में शल्य चिकित्सा....




प्राचीन भारत में शल्य चिकित्सा
( डा श्याम गुप्त )
प्राचीन भारतीय चिकित्सा प्रणाली अपने समय में अपने समयानुसार अति उन्नत अवस्था में थी। भारतीय चिकित्सा के मूलतः तीन अनुशासन थे—
१. काय चिकित्सा( मेडीसिन)—जिसके मुख्य प्रतिपादक रिषि- चरक ,अत्रि, हारीति व अग्निवेश आदि थे ।
२.शल्य चिकित्सा-- मुख्य शल्यकथे- धन्वन्तरि, सुश्रुत, औपधेनव, पुषकलावति
३.स्त्री एवम बाल रोग- जिसके मुख्य रिषि कश्यप थे ।
डा ह्रिश्च बर्ग ( जर्मनी) का कथन है—“ The whole plastic surgery in Europe had taken its new flight when these cunning devices of Indian workers became known to us. The transplaats of sensible skin flaps is also Indian method.” डा ह्वीलोट का कथन है-“ vaccination was known to a physician’ Dhanvantari”, who flourished before Hippocrates.” इन से ग्यात होती है, भारतीय चिकित्सा शास्त्र के स्वर्णिम काल की गाथा ।
रोगी को शल्य-परामर्श के लिये उचित प्रकार से भेजा जाता था। एसे रोगियों से काय –चिकित्सक कहा करते थे—“ अत्र धन्वंतरिनाम अधिकारस्य क्रियाविधि । “---अब शल्य चिकित्सक इस रोगी को अपने क्रियाविधि में ले ।
सुश्रुत के समय प्रयोग होने वाली शल्य –क्रिया विधियां------
१. आहार्य-- ठोस वस्तुओंको शरीर से निकालना( Extraction-foreign bodies).
२. भेद्य – काटकर निकालना ( Excising).
३. छेद्य – चीरना ( incising)
४. एश्य—शलाका डालना आदि ( Probing )
५. लेख्य—स्कार, टेटू आदि बनाना ( Scarifying )
६. सिव्य—सिलाई आदि करना (suturing)
७. वेध्य—छेदना आदि (puncturing etc)
८. विस्रवनिया---जलीय अप-पदार्थों को निकालना( Tapping body fluids)
शल्य क्रिया पूर्व कर्म ( प्री-आपरेटिव क्रिया )--- रात्रि को हलका खाना, पेट, मुख, मलद्वार की सफ़ाई, ईश-प्रार्थना, सुगन्धित पौधे, बत्तियां –नीम, कपूर. लोबान आदि जलाना ताकि कीटाणु की रोकथाम हो।
२
शल्योपरान्त कर्म (पोस्ट आप्रेटिव क्रिया )—रोगी को छोडने से पूर्व ईश-प्रार्थना, पुल्टिस लगाकर घाव को पट्टी करना,, प्रतिदिन नियमित रूप से पट्टी बदलना जब तक घाव भर न जाय, अधिक दर्द होने पर गुनुगुने घी में भीगा कपडा घाव पर रखा जाता था।
सुश्रुत के समय प्रयुक्त शल्य-क्रिया के यन्त्र व शस्त्र—(Instuments & Equppements)-
कुल १२५ औज़ारों का सुश्रुत ने वर्णन किया है---( देखिये चित्र-१,२,३, )
(अ)—यन्त्र—( अप्लायन्स)—१०५—स्वास्तिक(फ़ोर्सेप्स)-२४ प्रकार; सन्डसीज़( टोन्ग्स)-दो प्रकार; ताल यन्त्र( एकस्ट्रेक्सन फ़ोर्सेप्स)-दो प्रकार; नाडी यन्त्र-( केथेटर आदि)-२० प्रकार; शलाक्य(बूझी आदि)-३० प्रकार; उपयन्त्र –मरहम पट्टी आदि का सामान;--कुल १०४ यन्त्र; १०५ वां यन्त्र शल्यक का हाथ ।
(ब)—शस्त्र-( इन्सट्रूमेन्ट्स)—२०—चित्रानुसार.
इन्स्ट्रूमेन्ट्स सभी परिष्क्रत लोह ( स्टील ) के बने होते थे।, किनारे तेज, धार-युक्त होते थे , वे लकडी के बक्से में ,अलग-अलग भाग बनाकर सुरक्षित रखे जाते थे ।
अनुशस्त्र—( सब्स्टीच्यूड शस्त्र)—बम्बू, क्रस्टल ग्लास, कोटरी, नेल, हेयर, उन्गली आदि भी घाव खोलने में प्रयुक्त करते थे ।
निश्चेतना ( एनास्थीसिया)—बेहोशी के लिये सम्मोहिनी नामक औषधियां व बेहोशी दूर करने के लिये संजीवनी नामक औषधियां प्रयोग की जाती थीं ।
शुक्रवार, 7 मई 2010
चेतना, चिंतन और अंतःकरण चतुष्टय .....डा श्याम गुप्त का .आलेख
या अनुरागी चित्त की गति समुझे नहीं कोय
ज्यों ज्यों बूढ़े श्याम रंग, त्यों त्यों उज्ज्वल होय |
अनुराग मानवीय मन की मूल प्रवृत्ति है , सर्वप्रथम भाव है | अन्य सभी भाव चित्त की वृत्तियों के साथ फैलाव हैं--यह अनुरागी चित्त की गति अत्यंत गहन है, जैसे जैसे यह चित्त में, मन के, अंतर्मन के श्याम रंग, अंतस की अटल गहराइयों में चलता जाता है त्यों त्यों ही उसे ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता जाता है | वस्तुतः राधा-श्याम के अंतर्संबंध के तात्विक ज्ञान का भी यही अर्थ है ---
सार्वभौम सत्ता परब्रह्म परा व अपरा सत्ताओं में स्वयं को व्यक्त करती है। अपरा अर्थात प्रकृति या माया से समस्त तत्वों का निर्माण होता है जिससे जड़ व जीव जगत की उत्पत्ति होती है। परा, पुरुष या चेतन -स्वयं को प्रत्येक तत्त्व में चेतन रूप में स्थापित है तभी तत्व क्रिया योग्य होता है एवम निर्जीव सृष्टि से मानव तक का विकास क्रम बनता है।सृष्टि महाकाव्य में कवि वर्णन करता है---
"शक्ति और इन भूत कणों के ,
संयोजन से बने जगत के,
सब पदार्थ और उनमें चेतन,
देव रूप में निहित होगया;
भाव तत्व बन,बनी भूमिका-
त्रिआयामी सृष्टि कणों की।।" ......अशांति खंड से ( सृष्टि महाकाव्य--डा श्याम गुप्त )
अतः निर्जीव व जीव प्रत्येक पदार्थ में चेतन सत्ता( जिसे वस्तु का अभिमानी देव,स्वत्व या आत्म कहते हैं ) विद्यमान होती है। बस उसका स्तर भिन्न भिन्न होता है । ब्रह्माण्ड, ब्रह्म की चेतना का अपार भण्डार है।
चेतना के चार स्तर होते हैं -- आत्म चेतना,अचेतन, अवचेतन ,चेतन। निर्जीव पदार्थों में चेतना सिर्फ आत्म स्तर तक होती है अतः वे शीत, गर्मी आदि के अनुभव पर प्रतिक्रया व्यक्त नहीं करते। वनस्पतियों में अचेतन तक दो अवस्थाएं होने वे प्राणियों के भावों को नहीं समझ पाते एवं सिर्फ जीवन क्रियाएं व गति तक सीमित रहते हैं ।
पशु पक्षियों में अवचेतन सहित तीन स्तरों तक चेतना होती है परन्तु चेतन स्तर न होने से चिंतन की चेतना नहीं होती। मानव में चेतना के चारों स्तर होने से वह चिंतन प्रधान प्राणी व सृष्टि में ईश्वर या विकास की सर्वश्रेष्ठ कृति है।
मानव में चिंतन --जाग्रति व सुषुप्ति , दोनों अवस्थाओं में चलता रहता है। सुचिन्तन से नए-नए विचार व परमार्थ चिंतन से उत्तरोत्तर प्रगति व विकास की प्रक्रिया बनती है। परन्तु वही चिंतन यदि ,तनाव पूर्ण स्थिति में हो व स्वार्थ चिंतन हो वह चिंता में परिवर्तित होजाता है, जो शारीरिक, मानसिक अस्वस्थता का व जीव के नाश का कारण बनता है। इसीलिये चिंता को चिता सामान कहागया है।
मानवी अन्तः करण को चेतन प्रधान होने के कारण चित या चित्त, सूक्ष्म शरीर व स्व ( सेल्फ) भी कहा जाता है। इसी को व्यक्ति की मानसिक क्षमता भी कहते हैं। मन, बुद्धि, अहं -इसकी वृत्तियाँ हैं । इन चारों को सम्मिलित रूप में अन्तः करण चतुष्टय कहा जाता है, जो मानव शरीर में चेतना की क्रिया पद्धति है। किसी कार्य को किया जाय या नहीं ,यह निर्धारण प्रक्रिया चेतना की क्रमशः मन, बुद्धि, चित, अहं की क्रिया विधियों से गुजरकर ही परिपाक होती है।
मन--की प्रवृत्ति सुख की उपलब्धि व दुःख की निवृत्तिमय होती है। मन , आकर्षण व भय के मध्य ,अन्तःवर्ती इच्छाओं , सरस अनुभूतियों व ज्ञान की परिधि के भीतर रहकर किसी कार्य के पक्ष या विपक्ष में विभिन्न कल्पनाओं द्वारा , संकल्पों व विकल्पों की एक तस्वीर प्रस्तुत करता है, ताकि चेतना का अगला चरण बुद्धि उचित निर्णय ले सके।
मन के तीन स्तर होते हैं--चेतन, अवचेतन, अचेतन | चेतन स्तर की क्रियाएं अहं भाव से युक्त व मानसिक क्षमता का १०% होती हैं। अवचेतन व अचेतन स्तर में अहं भाव लुप्त रहता है एवं इसकी क्षमता असीमित होती है। जब मन शुद्ध व निर्मल होकर चेतना के उच्चतम शिखर पर पहुंचता है तो वह आत्म-साक्षात्कार,ईश्वर प्राप्ति व समस्त सिद्धियों को प्राप्त कर पाता है। कुछ लोग ( यथा-महर्षि अरविंद ) इसे अति चेतना का स्तर भी कहते हैं।
मन अपने तीन गुणों -सत्व, तम, रज एवं पांच अवस्थाओं --सुषुप्ति, जागृत, एकाग्र,तमोगुनात्मक एवं विक्षिप्ति -के अनुसार चेतना के स्तर के समन्वय से किसी कार्य का संकल्प या विकल्प बुद्धि के सम्मुख प्रस्तुत करता है।
बुद्धि---मन के द्वारा सुझाए गए संकल्पों व विकल्पों का उचित मूल्यांकन करके उचित, उपयोगी व ग्राह्य का निर्णय करती है, जो बुद्धि के पांच स्तरों के अनुरूप होते हैं --१. साधारण--सामान्य ज्ञान जो पशु-पक्षियों में होता है। २.सुधी-पशु-पक्षी से ऊपर विचार शीलता जो सभी मानवों में होती है। ३. मेधा --विद्वता, संकल्पशीलता,उच्चा वचार, सद-विचार , धर्म-कर्म व परमार्थ भाव सम्पन्न करने वालों की बुद्धि | ४. प्रज्ञा -हानि-लाभ में सामान रहने वाले भाव -युत ,समत्व भाव से युक्त बुद्धि | ५.- ऋतंभरा ( धी )--जिसमे मात्र औचित्य व आदर्श ही प्रधान रहता है; समाधि अवस्था, विदेह,कैवल्य या ब्रह्मानंद अवस्था ।
चित या चित्त---आत्मा का वह स्वरुप है जिसका मुख्य स्वरुप स्मृति व धारणा है। बुद्धि द्वारा उचित ठहराए जाने पर भी वह कार्य क्रिया रूप में परिणत नहीं होता | विचार को प्रयास में परिणत चित्त करता है। विभिन्न विचारों व कार्यों को चिरकाल तक करते रहने के फलस्वरूप उनके समन्वय से जो स्वभाव , भले-बुरे संस्कार ,आदतें , धारणाएं बनती हैं उन्हीं की स्मृति के अनुरूप बुद्धि द्वारा दिए गए निर्णय को चित्त प्रयास में परिणत करता है | यही चित्त स्वायत्तशासी संस्थानों ( ओटोनौमस बोडी सिस्टम्स ) काया संचालन व आतंरिक क्रियाएं --ह्रदय, आंत्र,रक्त-संचार, श्वशन आदि का संचालन करता है जो अचेतन स्तर पर होता है। योग व हठयोग में इन्ही वृत्तियों का निरोध किया जाता है।
अहं ---चेतना की इस पर्त में स्वयं के सम्बन्ध में मान्यताएं व धारणाये स्थित होती हैं। आत्म-अस्तित्व , ईगो ,अपना दृष्टिकोण , स्व-सत्ता की अनुभूति व व्यक्तित्व इसी को कहते हैं। आस्था व निष्ठा का यही क्षेत्र है। विभिन्न इच्छाएं ,ज्ञान , अभ्यास व वातावरण आदि के कारण जीवात्मा के ऊपर जो आवरण चढ़ा होता है वह यही अहं है। यह चित्त की धारणाओं व निर्णयों को भी प्रभावित करता है। यह अहं अथवा आत्म बोध , अन्तः करण का प्रतिरक्षा तंत्र है जो आतंरिक द्वंद्वों को अवचेतन स्तर पर भांपकर उस कार्य से ( चाहे चित्त ने मान्यता दे दी हो) पलायन, दमन, शमन ,युक्तिकरण,रूपांतरण , उन्नयन, अवतरण या तादाम्यीकरण द्वारा प्रतिरक्षा के उपाय करता है, तथा अंतर्द्वंद्वों का निरोध कर लेता है। कुंठा, असफलता के कारण -बहाने बनाना , झूठ बोलना, शेखी बघारना, विभिन्न मनोरोग अदि इसी अहं के निर्बल होने से होती हैं। स्वभावगत शौर्यता, खतरा उठाने की क्षमता, सरलता, सज्जनता आदीं इसी अहं के सुद्रड होने के चिन्ह हैं।सन्क्षेप में चेतना की प्रतिक्रियाओं का बाह्य प्रतिफलन रूप जो व्यक्तित्व को विखंडित होने से बचाती है अहं है। जिसका कार्य रूप में प्रतिफलन , सुद्रडता या दुर्बलता के कारण , अकर्म, दुष्कर्म या सत्कर्म कुछ भी होसकता हो।
योग आदि द्वारा सुद्रड़ व निर्मल अहं में कुसंस्कारों का उन्मूलन व सुसंस्कारों का प्रतिष्ठापन व श्रृद्धा, भक्ति आदि भावों के संचार किये जा सकते हैं। भक्ति द्वारा ईश्वर को आत्म समर्पण में इसी अहं को नष्ट किया जाता है। ईश्वर चिंतन व अध्यात्म, आत्म-ज्ञान द्वारा इसी अहं को सुद्रड़, सन्तुष्ट व सुकृत किया जाता है।
अंतःकरण के इन चारों स्तरों से छन कर ही मानव के विचार कार्य रूप में परिणत होते हैं| ईश्वर,ज्ञान, योग, भक्ति, परहित चिंतन आदि का उद्देश्य चेतना के प्रत्येक स्तर को सुद्रिड, सबल , निर्मल व अमल बनाकर अहं को नियमित करना है ,ताकि कर्म का प्रतिफलन सुकर्म के रूप में ही प्रवाहित व प्रस्फुटित हो, और मानव का उत्तरोत्तर विकास हो | यही अध्यात्म वृत्तियों की महत्ता है।
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फ़ॉलोअर
विग्यान ,दर्शन व धर्म के अन्तर्सम्बन्ध
- drshyam
- लखनऊ, उत्तर प्रदेश, India
- --एक चिकित्सक, शल्य-विशेषज्ञ जिसे धर्म, दर्शन, आस्था व सान्सारिक व्यवहारिक जीवन मूल्यों व मानवता को आधुनिक विज्ञान से तादाम्य करने में रुचि व आस्था है।