शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

श्रुतियों व पुराण-कथाओं वैज्ञानिक तथ्य--अंक-६.....राजा त्रिशंकु एवं राजा ककुघ्न.... ....डा श्याम गुप्त




    श्रुतियों व पुराण-कथाओं में भक्ति-पक्ष के साथ व्यवहारिक-वैज्ञानिक तथ्य-अंक-६

       (  श्रुतियों व पुराणों एवं अन्य भारतीय शास्त्रों में जो कथाएं भक्ति भाव से परिपूर्ण व अतिरंजित लगती हैं उनके मूल में वस्तुतः वैज्ञानिक एवं व्यवहारिक पक्ष निहित है परन्तु वे भारतीय जीवन-दर्शन के मूल वैदिक सूत्र ...’ईशावास्यम इदं सर्वं.....’ के आधार पर सब कुछ ईश्वर को याद करते हुए, उसी को समर्पित करते हुए, उसी के आप न्यासी हैं यह समझते हुए ही करना चाहिए .....की भाव-भूमि पर सांकेतिक व उदाहरण रूप में काव्यात्मकता के साथ वर्णित हैं, ताकि विज्ञजन,सर्वजन व सामान्य जन सभी उन्हें जीवन–व्यवस्था का अंग मानकर उन्हें व्यवहार में लायें |...... स्पष्ट करने हेतु..... कुछ उदाहरण एवं उनका वैज्ञानिक पक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है ------ )


   राजा त्रिशंकु – और पिंडों की सापेक्ष–गति व गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत
          पौराणिक कथा के अनुसार --- राजा त्रिशंकु सशरीर स्वर्ग जाना चाहटे थे, अपने गुरु वशिष्ठ द्वारा स्पष्ट मना कर देने पर वह उनके प्रतिद्वन्द्वी महर्षि विश्वामित्र के पास उपस्थित हुए। गायत्री सिद्ध विश्वामित्र ने उन्हें अपने तपोबल से स्वर्ग भेज दिया परन्तु इंद्र ने उन्हें स्वर्ग में प्रवेश नहीं होने दिया अतः वे नीचे की और मुख किये हुए स्वर्ग व पृथ्वी के मध्य ही आज तक लटके हैं|
            वस्तुतः यह गुरुत्वाकर्षण व पिंडों की सापेक्ष-गति के सिद्धांत का मानवीकरण है ..जिसका प्रतिपादन  प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ आर्यभट्ट ने अपने गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त में किया है .....एक प्रसिद्ध फ्रांसीसी गणितज्ञ ने भी गति संबन्धी अपनी खोज में दिखाया है कि सूर्य, पृथ्वी और चन्द्रमा के मध्य बनने वाले त्रिकोण में एक ऐसा बिन्दु है जिस पर इन तीनों के गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव नगण्य हो जाता है।
    ---चन्द्रमा तथा पृथ्वी के मध्य दो ऐसे बिन्दु हैं वहां पर यदि पिंडों के सापेक्ष –गति सिद्धांत के अनुसार यदि किसी पिण्ड का वेग किसी भांति शून्य कर दिया जाए तो वह पिण्ड सुदीर्घ काल तक उस बिन्दु-क्षेत्र में बना रहेगा। आज की उपग्रह प्रणलियों इसी क्षेत्र में विचरण करती हैं। राक्षसों द्वारा अंतरिक्ष में बसाए गए त्रिपुर भी इसी सिद्धांत पर रहे होंगे |
      
राजा ककुघ्न और काल-सापेक्षता

    पौराणिक कथानुसार ....ककुघ्न राजा शर्याति के पुत्र अनार्त के पुत्र थे | अपनी कन्या रेवती के लिए योग्य वर की खोज हेतु उन्होंने कुछ विशिष्ट नामों को ध्यान में रखकर ब्रह्मा जी के पास गए। वहां नृत्य-गान हो रहा था अतः बात करने के लिए अवसर न पाकर वे कुछ क्षण वहां ठहर गए। उत्सव के अन्त में उन्होंने ब्रह्मा जी को नमस्कार कर अपना उद्देश्य बताया।

      उनकी बात सुनकर ब्रह्मा जी ने हंसकर कहा, "महाराज! तुमने मन में जिन-जिन लोगों का नाम सोच रखा है, वे सब काल के गाल में चले गए है। उनके तो गोत्रों तक का नाम भी अब सुनाई नहीं पड़ता। तुम्हारे यहाँ आने तक पृथ्वी  पर सत्ताईस चतुर्युग बीत चुके हैं  पृथ्वी पर इस समय द्वापर युग चल रहा है। तुम महाबली श्रीकृष्ण के अग्रज बलराम जी  से अपनी कन्या का विवाह कर दो।" राजा ककुघ्न ब्रह्मा को प्रणाम कर पृथ्वी पर चले गए तथा बलराम जी से रेवती का विवाह कर दिया।

      यह काल-सापेक्षता' के वैज्ञानिक सिद्धान्त का वर्णन है --- प्रत्येक ग्रह जितने समय में सूर्य की परिक्रमा करता है वह उसका एक वर्ष होता है | इस प्रकार शनि का एक वर्ष पृथ्वी के वर्ष का लगभग ३० गुना होता है।  यदि पृथ्वी के मानव की आयु सौ वर्ष होती है तो शनि के 'मानव' की आयु तीन हजार वर्ष  होगी।

        चार युगों के एक चक्कर को चतुर्युगी कहते हैं जो... सतयुग  १७,२८,००० वर्ष; त्रेता १२,९६,००० वर्ष; द्वापर ,६४,००० वर्ष और कलियुग ,३२,००० वर्ष = ४३२०००० मानव वर्ष (=१२००० दिव्य वर्ष ) की होती है । १००० चतुर्युगी का एक कल्प होता है । ब्रह्मा का एक दिन एक कल्प के बराबर होता है। अतएव एक कल्प १००० चतुर्युगों के बराबर यानी चार अरब बत्तीस करोड़ (4,32,00,00,000) मानव वर्ष का हुआ ।

         इस प्रकार ब्रह्मा का १ सैकिंड = एक लाख मानव वर्ष |...राजा ककुघ्न २७ चतुर्युगी =४३२०००० x२७ =१६६४०००० मानव वर्ष ......अर्थात सिर्फ ......१६६४०००० /१००००० =११६६ दिव्य सेकिंड्स = २० दिव्य मिनिट्स... रहा ब्रह्मलोक में |

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लखनऊ, उत्तर प्रदेश, India
--एक चिकित्सक, शल्य-विशेषज्ञ जिसे धर्म, दर्शन, आस्था व सान्सारिक व्यवहारिक जीवन मूल्यों व मानवता को आधुनिक विज्ञान से तादाम्य करने में रुचि व आस्था है।