श्रुतियों व पुराण-कथाओं में भक्ति-पक्ष के साथ व्यवहारिक-वैज्ञानिक तथ्य-अंक ५
( श्रुतियों व पुराणों एवं अन्य भारतीय शास्त्रों में जो कथाएं भक्ति भाव से परिपूर्ण व अतिरंजित लगती हैं उनके मूल में वस्तुतः वैज्ञानिक एवं व्यवहारिक पक्ष निहित है परन्तु वे भारतीय जीवन-दर्शन के मूल वैदिक सूत्र ...’ईशावास्यम इदं सर्वं.....’ के आधार पर सब कुछ ईश्वर को याद करते हुए, उसी को समर्पित करते हुए, उसी के आप न्यासी हैं यह समझते हुए ही करना चाहिए .....की भाव-भूमि पर सांकेतिक व उदाहरण रूप में काव्यात्मकता के साथ वर्णित हैं, ताकि विज्ञजन,सर्वजन व सामान्य जन सभी उन्हें जीवन–व्यवस्था का अंग मानकर उन्हें व्यवहार में लायें |...... स्पष्ट करने हेतु..... कुछ उदाहरण एवं उनका वैज्ञानिक पक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है ------ )
त्रिपुर :
अन्तरिक्ष में तीन नगर... व त्रिपुरारी –शिव ....
दक्षिण-अमेरिका
स्थित मैक्सिको नामक राज्य में आदिवासी मय-जाति (माया सभ्यता)
के चिन्ह आज भी हैं जो एक उन्नत सभ्यता थी | कुशलतम शिल्पकार मय दानव जिसकी चर्चा
पुराणों में बारंबार आती है उसी सभ्यता के प्रतिनिधि थे| माया-सभ्यता की भारतीय सभ्यता से आपस में
सहयोगी व्यवस्था थी | आधुनिक उत्खनन में प्राप्त विविध मूतियां गणेश, कनफटे योगियों, शिव की प्रतिमाएं इसी
तथ्य की ओर संकेत करती हैं |
मय दानव के शिल्प लाघव को
प्रतिबिंबित करती अधोवर्णित एक कथा भविष्य में विकसित होने वाली अन्तरिक्ष
बस्तियों, आवासों, होटलों आदि का
पूर्वानुमान भी देती है |
एक बार
देवासुर संग्राम में, दानवराज मय के माया-युद्ध का
प्रयोग के बावजूद दानव हार गए। मय व उसके सहयोगी विद्युन्माली व तारक हिमालय
पर कठोर तपस्या करने लगे। ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त किया कि हम पृथ्वी पर नहीं रहना चाहते। आप
हमें आज्ञा दें कि हम पृथ्वी से दूर अन्तरिक्ष में नगर बसा लें।"
ब्रह्मा जी ने यह सोचकर कि
यदि दानवगण दूर रहें तो सब तरफ सुख-संपन्न्ता रहेगी। लड़ाई भी नहीं होगी उन्हें वरदान दिया कि अंतरिक्ष में अपने नगर बसा लो, उनका नाश एक ही बाण
से एक वार में तीनों नगरों को वेधने वाला ही कर सकेगा कोई और नहीं "
मय दानव
अतिकुशल शिल्पी एवं वैज्ञानिक था। उसने सोचा तीनों
पुरों को एक बाण से बींधना पूर्णत: असम्भव होगा। अतः उसने अंतरिक्ष में तीन नगरों का निर्माण
किया। लौहपुर, रजतपुर व सुवर्णपुर | उनमें वे सभी
सुविधाएं थीं जो पृथ्वी के नगर में सुनी और सोची जा सकती थीं। उन नगरों में
छोटे-छोटे विमान भी थे और वे नगर पूर्णरूपेण अभेद्य थे।
लौह-पुर मित्र तारक को, रजतपुर, जो चांदी की भांति
चमकता था सहयोगी विद्युन्माली को देकर उन्हें अन्तरिक्ष में स्थापित कर दिया।
सुवर्ण की भांति पीत आभा बिखेरता तथा अन्तरिक्ष में गतिमान-नगर में मय दानव स्वयं अपने
सगे-सम्बंधियों के साथ बस गया|
पृथ्वी से तारे की भांति दिखते ये तीनों नगर अन्तरिक्ष में
सौ योजन की दूरी पर घूमते थे| दैत्यगण उन नगरों में समस्त सुख-सुविधाओं के साथ रहते थे।
अपने स्वभाववश वे कभी आपस में युद्ध करने लगते, तो कभी पृथ्वी के
मनुष्यों तथा स्वर्ग के देवताओं को कष्ट देते, प्रताड़ित करते।
शान्ति से साधना करते ऋषियों आदि को भी बार-बार पीड़ित करने लगे । दैत्यों के
कुकृत्यों से सभी त्रस्त थे। देवों के अनुरोध पर शंकर जी बोले, " मैं इस समस्या का
समाधान निकालूँगा" कुछ समय बाद स्वर्ग में देवताओं और धरती पर मनुष्यों ने देखा
कि मय दानव द्वारा निर्मित तीनों नगर अन्तरिक्ष से गिरकर धरती पर भस्मीभूत
हो चुके थे।
यह
ग्रह-नक्षत्रों की सापेक्ष गति के ज्ञान का उदाहरण है अंतरिक्ष में ग्रहों नक्षत्रों की घूमने की
गति के अनुसार प्रत्येक वर्ष सिर्फ एक क्षण के लिए वे तीनों नगर एक सीध में आते थे,
भगवान शिव ने ठीक उसी समय त्रिशूल से उन पर आघात करके उन्हें नष्ट कर दिया | इसी
कारण उनका नाम त्रिपुरारी हुआ|
शून्य, दशमलव गणना-पद्धति व ज्यामिति का विकसित स्वरूप ---
शून्य
का आविष्कार किसने और कब किया यह आज तक अंधकार के गर्त में छुपा हुआ है परंतु यह
तथ्य स्थापित हो चुका है कि शून्य का आविष्कार भारत में ही हुआ यद्यपि ऐसी भी
कथाएँ प्रचलित हैं कि पहली बार शून्य का आविष्कार माया सभ्यता के
लोगों ने किया |
हिंदुओं
ने शून्य के विषय में कैसे जाना यह आज भी
अनुत्तरित प्रश्न है। परन्तु मान्यता के अनुसार ऋग्वेद के द्वितीय मंडल के ऋषि,
महर्षि गृहत्समद शून्य के आविष्कारक थे जिसके उपरांत ही गणित का ज्ञान आगे बढ़ पाया
और आज के आधुनिक रूप में आया| वैदिक गणित आज भी अति-कठिन गणितीय व ज्यामिती
प्रश्नों के हल हेतु प्रयोग किया जाता है |
दिगम्बर जैन मुनियों
द्वारा प्राकृत में रचित ग्रंथ में शून्य
का उल्लेख सबसे पहले मिलता है। इस ग्रंथ में दशमलव संख्या पद्धति का भी
उल्लेख है।
भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलशास्त्री आर्यभट्ट ने कहा 'स्थानं स्थानं दसा
गुणम्' अर्थात् दस गुना करने के लिये (उसके) आगे (शून्य) रखो। शायद
यही संख्या के दशमलव सिद्धांत का उद्गम रहा होगा। उनके गणितीय खगोलशास्त्र के ग्रंथ आर्यभट्टीय में शून्य
तथा उसके लिये विशिष्ट संकेत सम्मिलित था|
बक्षाली पाण्डुलिपि या बख्शाली
पाण्डुलिपि प्राचीन भारत की गणित से
सम्बन्धित पांडुलिपि है। यह सन् १८८१ में तक्षशिला से ७० कि मी दूर
बख्शाली गाँव (अब पाकिस्तान में) में मिली थी। यह शारदा लिपि में
है ( संस्कृत व प्राकृत का
मिलाजुला रूप) में भोजपत्र पर लिखी पाण्डुलिपि थी। यह ईशा से २०० वर्ष पूर्व भारतीय भूभाग में
प्रचलित थी| पाण्डुलिपि में शून्य
का प्रयोग किया गया है और उसके लिये उसमें संकेत भी निश्चित है। इसमें उच्चस्तरीय गणित
के सूत्र है जिसमें क्वाड्रटिक समीकरण, किसी नम्बर जो पूर्ण वर्ग न हो का वर्गमूल
ज्ञात करना, गणितीय व ज्यामितीय श्रेणियाँ शामिल है अतः यह प्राचीन भारत में उच्च अंकगणितीय
तथा बीजगणितीय ज्ञान का
प्रमाण प्रस्तुत करती है। यद्यपि इस पांडुलिपि
का सही काल अब तक निश्चित नहीं हो पाया है परंतु निश्चित रूप से यह आर्यभट्ट के
काल से प्राचीन है|
राजस्थान के आचार्य ब्रह्मगुप्त ने
प्राचीन ब्रह्म-पितामह सिद्धांत के आधार पर ब्रह्मस्फुटसिद्धांत ग्रंथ लिखा| इसके के कुछ गणितीय परिणामों का विश्वगणित में अपूर्व स्थान है। जिसमें शून्य का एक अलग अंक के रूप में
उल्लेख किया गया है । इस ग्रन्थ में वृत्त आदि से सम्बंधित ज्योमितीय प्रमेयों व ऋणात्मक
(negative) अंकों और शून्य पर गणित करने के सभी नियमों का वर्णन भी किया गया है । ये नियम आज की गणितीय प्रणाली के बहुत करीब हैं। ब्रह्मगुप्त ने ही इस विज्ञान का नाम
सन् ६२८ ई. में ‘कुट्टक गणित’ रखा। बीजगणित के जिस प्रकरण में अनिर्धार्य समीकरणों का अध्ययन किया जाता
है, उसका पुराना नाम कुट्टक है। उसने द्विघातीय अनिर्णयास्पद
समीकरणों ( Nx2
+ 1 = y2 ) के हल की विधि भी खोज निकाली। इनकी विधि का नाम चक्रवाल विधि है।
शून्य
से सम्बंधित भारतीय विचार कम्बोडिया .. कम्बोडिया से चीन और बाद में भारत से ही समस्त मध्य-पूर्व ,अरब
व मुस्लिम संसार में फैले, अंततः
का यह शून्य, दशमलव ज्ञान आदि लैटिन, इटैलियन, फ्रेंच आदि से होते हुए पश्चिम में योरोप तक पहुँचा। अरब जगत में यह सिफर एवं
योरोप में जीरो के नाम से प्रचलित हुआ|
शुल्व सूत्र
एवं बोधायन प्रमेय ( तथाकथित पायथागोरस प्रमेय ) - विख्यात वैदिक गणितज्ञ महर्षि
बोधायन के शुल्व सूत्र में वर्णित बोधायन-प्रमेय वही है जिसे आज हम पायथागोरस-प्रमेय का नाम से जानते हैं|
---शुल्ब सूत्र संस्कृत के ज्यामितीय सूत्रग्रन्थ हैं जो स्रौत कर्मों से सम्बन्धित हैं। इनमें यज्ञ-वेदी की रचना से सम्बन्धित ज्यामितीय ज्ञान दिया हुआ है। संस्कृत में शुल्ब शब्द का अर्थ नापने की रस्सी या डोरी होता है। अपने नाम के अनुसार शुल्ब सूत्रों में यज्ञ-वेदियों को नापना, उनके लिए स्थान का चुनना तथा उनके निर्माण आदि विषयों का विस्तृत वर्णन है। ये भारतीय ज्यामिति के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं।
---शुल्ब सूत्र संस्कृत के ज्यामितीय सूत्रग्रन्थ हैं जो स्रौत कर्मों से सम्बन्धित हैं। इनमें यज्ञ-वेदी की रचना से सम्बन्धित ज्यामितीय ज्ञान दिया हुआ है। संस्कृत में शुल्ब शब्द का अर्थ नापने की रस्सी या डोरी होता है। अपने नाम के अनुसार शुल्ब सूत्रों में यज्ञ-वेदियों को नापना, उनके लिए स्थान का चुनना तथा उनके निर्माण आदि विषयों का विस्तृत वर्णन है। ये भारतीय ज्यामिति के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं।
इनमें बौधायन का
शुल्बसूत्र ( बोधायन
प्रमेय )सबसे प्राचीन माना जाता है। इन शुल्बसूत्रों का रचना समय
१२०० से ८०० ईसा पूर्व माना गया है। बोधायन प्रमेय वही है जिसे आज हम पायथागोरस-प्रमेय का नाम से जानते हैं|
अपने एक सूत्र में बोधायन ने विकर्ण के वर्ग का नियम दिया है-
अपने एक सूत्र में बोधायन ने विकर्ण के वर्ग का नियम दिया है-
दीर्घचातुरास्रास्याक्ष्नाया रज्जुः
पार्च्च्वमानी तिर्यङ्मानीच
यत्पद्ययग्भूते कुरुतस्तदुभयं करोति ।
अर्थात ..एक आयत
का विकर्ण उतना ही क्षेत्र इकट्ठा बनाता है जितने कि उसकी लम्बाई और चौड़ाई
अलग-अलग बनाती हैं।----- यहीं तो यही पायथागोरस प्रमेय है।
स्पष्ट है कि इस प्रमेय की जानकारी भारतीय गणितज्ञों को पाइथागोरस के पहले
से थी।
ध्रुव
– पृथ्वी की गति एवं ज्योतिष व गणितीय ज्ञान ----
पौराणिक कथानुसार ध्रुव, मनुपुत्र उत्तानपाद के पुत्र थे जिसकी माता से उत्तानपाद को अधिक लगाव नहीं था अतः एक घटनाक्रम में वे रूठ कर गहन वनमें कठोर तपस्या में लीन हुए कि मैं, पिता के राजसिंहासन से भी महान सिंहासन एवं पद प्राप्त करना चाहता हूं। मैं अमर होना चाहता हूं।
बालक ध्रुव ने यमुना जी के तट पर मधुवन में जाकर 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' मन्त्र के जाप के साथ भगवान नारायण की कठोर तपस्या की। विष्णु भगवान् ने प्रसन्न होकर उसे त्रिलोक में सबसे उत्कृष्ट स्थान ग्रह और तारामण्डल का आश्रय होने का ध्रुव-अटल-निश्चल स्थान प्रदान किया जो सूर्य सहित सभी ग्रहों-ऩक्षत्रों, सप्तऋषियों और समस्त विमानचारी देवगणों से ऊपर है। जो एक कल्प तक बना रहेगा | जिसके चारों ओर ज्योतिश्चक्र घूमता रहता है तथा जिसके आधार पर यह सारे ग्रह नक्षत्र घूमते हैं। प्रलयकाल में भी जिसका नाश नहीं होता। सप्तर्षि भी नक्षत्रों के साथ जिसकी प्रदक्षिणा करते रहते हैं। जो लोक ध्रुवलोक कहलायेगा तथा इस लोक में ध्रुव छत्तीस सहस्त्र वर्ष तक पृथ्वी का शासन करेगा। तत्पश्चात ध्रुव राजा बने उनकी पत्नी का नाम भूमि जिससे राजा ध्रुव के दो पुत्र उत्पन्न हुए -वत्सर और कल्प। ३६००० वर्षों तक राज्य भोग के उपरांत वे नक्षत्र मंडल में ध्रुव-तारा बनकर स्थित हुए|
गणित व ज्योतिष के अनुसार ..वस्तुतः पृथ्वी का अक्ष (axis)एक धीमी लेकिन निर्धारित गति से डगमगाता है, जिस वजह से कोई भी तारा स्थिर रूप से उसके ध्रुव के ऊपर स्थित नहीं रहता। पृथ्वी के इस अक्ष के रुझान में बदलाव ऐसा है कि हर ३६,००० साल में उसका एक पूरा चक्र पूरा हो जाता है।
ध्रुव तारा, सप्तर्षि मण्डल से सुदूर उत्तर में स्थित है और एक राशि पर तीन हजार वर्षॊ तक रहता है। इस प्रकार 12 राशियों के चक्र के अनुसार व एक कल्प
अर्थात ३६००० वर्षॊ का एक चक्र होता है |
यह गणितीय तथ्यों का मानवीकरण है -- राजा ध्रुव की पत्नी भूमि हैं | भूमि के दो पुत्र हैं-वत्सर और कल्प। पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा 365 दिनों में पूरी कर लेती है। भूमि की इस गति को वत्सर कहा जाता है। यही अवधि संवत् से होकर संवत्सर बन गई। सूर्य का अपने अक्ष पर धूमकर पुन: उसी स्थान पर आना एक कल्प कहा जाता है, यही दूसरा पुत्र है। गणितीय ज्ञान का संचार करते ये अप्रतिम वैज्ञानिक तथ्य कथा में निहित किये गए है।
यह गणितीय तथ्यों का मानवीकरण है -- राजा ध्रुव की पत्नी भूमि हैं | भूमि के दो पुत्र हैं-वत्सर और कल्प। पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा 365 दिनों में पूरी कर लेती है। भूमि की इस गति को वत्सर कहा जाता है। यही अवधि संवत् से होकर संवत्सर बन गई। सूर्य का अपने अक्ष पर धूमकर पुन: उसी स्थान पर आना एक कल्प कहा जाता है, यही दूसरा पुत्र है। गणितीय ज्ञान का संचार करते ये अप्रतिम वैज्ञानिक तथ्य कथा में निहित किये गए है।
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