------ पुरुष सत्तात्मक समाज में भी नारी की स्थिति कोई दासी की नहीं रही , अपितु सलाहकार की आदरणीय स्थिति थी | देखाजाय तो हम प्रारंभ से ही मूलतः समाज व्यवस्था की तीन धाराएं दिखाई पडती हैं----आदम को फल देने वाली व भटकाकर स्वर्ग से च्युत कराने वाली घटना पाश्चात्य देशों व अरब देशों में है जबकि भारत में यह घटना मनु , इडा व श्रृद्धा की आदरणीय भाव की कथा है | अतः मूलतः पाश्चात्य समाज में नारी को अपराधी, शैतान की कृति आदि माना जाता रहा वहीं भारत में वह सदा आदरणीय रही | इस प्रकार
----द्वितीय धारा----जिसमें मूलतः अरब भूमिखंड , उत्तरी अफ्रीकी देश आदि थे , जिनमें मूलतः पुरुष सत्तात्मक समाज होने पर भी आदम व हव्वा --कथा के कारण ..स्त्री को उपभोग, लूट व वलात्कार की सामग्री समझा जाता रहा और अत्याचारों का सिलसिला रहा |
---तृतीय धारा.....जो सिर्फ भारतीय उप महादीपीय भूखंड में रही....जहां आदि कथा आदम -हब्बा की न होकर मनु-इडा-श्रृद्धा की है ...जो अनुशासन, विद्वता व श्रृद्धा भावना की प्रतीक हैं.....अतः भारत में पुरुष प्रधान समाज होने पर भी सदैव से ही नारी विद्वता, कला की प्रतीक व आदर का पात्र रही | भारत में भी द.भारत में स्त्री- सत्तात्मक व्यवस्था -स्त्री व्यवस्थात्मक परिवार में परिवर्तित होकर आज भी चल रही है वहीं अधिक उन्नत होने पर उत्तर भारत में पुरुष परिवार नियामक व्यवस्था बनी ---परन्तु दोनों व्यवस्थाओं में ही स्त्री आदर का पात्र रही | उसे कभी भी पाश्चात्य देशों की भाँति शैतान की कृति नहीं समझा गया......यह इस बात का द्योतक है की मनुष्य अपनी प्राचीन व्यवस्थाओं के साथ उत्तर भारत से पहले समस्त उत्तर, पश्चिम व पूर्व की दुनिया में फैला एवं आगे प्रगति से दूर रहने के कारण पुरा-युग में रहा (इसी प्रकार दक्षिण भारत में ) परन्तु अपने मूल स्थान उत्तर भारतीय भूखंड में नए नए उन्नत व्यवस्थाओं की स्थापना करता रहा.... | इसीलिये आज भी भौतिकता व उससे सम्बंधित भोग पूर्ण उन्नति पाश्चात्य व्यवस्था का भाव रहा जबकि धर्म, अध्यात्म, मानवता के भाव के साथ साथ उन्नति भारतीय भूभाग का मूल चरित्र रहा |

वहीं दूसरी ओर स्त्री -पुरुष स्वच्छंदता के अनुचित परिणाम आने लगे...तो नैतिकता के प्रश्न उठे एवं स्त्री-पुरुष दोनों के लिए ही नैतिकता , शुचिता के नियम बने | धर्म, अध्यात्म , योग, ब्रह्मचर्य आदि भाव पुरुषों के लिए बने, ताकि स्त्रियों की अमर्यादा भाव व यौवन-काम की उद्दाम भावनाओं को पुरुष- निर्लिप्तता द्वारा भी मर्यादित किया जा सके..... गंगा अवतरण व शिव का उसे अपनी जटाओं में बाँध लेना सिर्फ नदी कथा नहीं अपितु नारी के उद्दाम वेग को योग द्वारा नियंत्रण की कथा भी है.... क्योंकि अनुभव में स्त्रियाँ अधिक हानि उठाने वाली स्थिति में होती थीं अतः मर्यादा, आचरण, शुचिता के बंधन अधिक कठोर होने लगे कुलीन, शिक्षित व सदाचारी स्त्रियों ने स्वयं ही त्याग, भक्ति, सतीत्व आदि के उदात्त भाव स्वीकार किये व राजनैतिक और परिस्थितियों वश वे पुरुष की परमुखापेक्षी व बंधन में होती गयीं, और समाज पूर्ण रूप से पुरुष अधिकारत्व समाज में परिवर्तित होता गया. |
---चित्र साभार....