बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

शास्त्रों की कथा का अर्थ- अनर्थ ------

<----देखिये अर्थ का अनर्थ , जो सारे किये कराये पर पानी फेर सकता है एवं बच्चों को गलत उदाहरण पेश कर सकता है आरुणी गुरु धौम्य की सुप्रसिद्ध गुरु- भक्ति कथा | इसके अंत में दिया गया निष्कर्ष , लेखक का स्वयं का निष्कर्ष है, जो अच्छी खासी गुरु भक्ति की सीख को ---गुरु को ही मिली सीख में बदल देता है।
घटना आरुणी की, शिष्य की, गुरु भक्ति के लिए है, परन्तु लेखक का कथन है -"पर इस शिष्यने गुरु को ही बहुत कुछ सिखा दिया " यह वाक्य इस कथा में नहीं है परन्तु अंग्रेज़ी ज्ञान , पाश्चात्य ज्ञान से तरंगितलोग ( या अनजाने में या अज्ञान वश ) हमारे बच्चों से अभिभावक शिष्यों से गुरु , बहुत कुछ सीख सकते हैं , की निरर्थक भावना पर - अर्थात गुरुओं को ही शिष्य से सीखना चाहिए , पर चलते ही दिखते हैं|---इसे कहते हैं गुड-गोबर करना | जो अँगरेज़ , अमेरिकन यूरोपीय विद्वान् बहुत पहले से योज़ना बद्ध तरीके से करते आरहे हैं|--पूरी कथा यह है---
महर्षि आयोदधौम्यके तीन शिष्य बहुत प्रसिद्ध हैं—आरुणि, उपमन्यु और वेद। इनमेंसे आरुणि अपने गुरुदेव के सबसे प्रिय शिष्य थे और सबसे पहले सब विद्या पाकर यही गुरुके आश्रमके समान दूसरा आश्रम बनाने में सफल हुए थे। आरुणि को गुरुकी कृपा से सब वेद, शास्त्र, पुराण आदि बिना पढ़े ही आ गये थे। सच्ची बात यही है कि जो विद्या गुरुदेव की सेवा और कृपा से आती है; वही विद्या सफल होती है। उसी विद्या से जीवन का सुधार और दूसरों का भी भला होता है। जो विद्या गुरुदेवकी सेवाकी बिना पुस्तकों को पढ़कर आ जाती है, वह अहंकार को बढ़ा देती है। उस विद्याका ठीक-ठीक उपयोग नहीं हो पाता।

महर्षि आयोदधौम्य के आश्रम में बहुत-से शिष्य थे। वे सब अपने गुरुदेव की बड़े प्रेम से सेवा किया करते थे। एक दिन शामके समय वर्षा होने लगी। वर्षाकी ऋतु बीत गयी थी। आगे भी वर्षा होगी या नहीं, इसका कुछ ठीक-ठिकाना नहीं था। वर्षा बहुत जोरसे हो रही थी। महर्षिने सोचा कि कहीं अपने धान के खेत की मेड़ अधिक पानी भरने से टूट जायगी तो खेतमें से सब पानी बह जायगा। पीछे फिर वर्षा न हो तो धान बिना पानी के सूख ही जायँगे। उन्होंने आरुणि से कहा—‘बेटा आरुणि ! तुम खेतपर जाओ और देखो, कही मेड़ टूटनेसे खेत का पानी निकल न जाय।’
अपने गुरुदेव की आज्ञासे आरुणि उस समय वर्षा में भीगते हुए खेतपर चले गये। वहाँ जाकर उन्हेंने देखा कि धानके खेतकी मेड़ पर एक स्थान पर टूट गयी है और वहाँ से बड़े जोरसे पानी बाहर जा रहा है। आरुणिने वहाँ मिट्टी रखकर मेड़ बाँधना चाहा। पानी वेगसे निकल रहा था और वर्षा से मिट्टी गीली हो गयी थी, इसलिये आरुणि जितनी मिट्टी मेड़ बाँधनेको रखते थे, उसे पानी बहा ले जाता था। बहुत देर परिश्रम करके भी जब आरुणि मेड़ न बाँध सका तो वे उस टूटी मेड़के पास स्वयं लेट गये। उनके शरीरसे पानीका बहाव रुक गया।

रातभर आरुणि पानीभरे खेतमें मेड़से सटे पड़े रहे। सर्दी से उनका सारा शरीर अकड़ गया, लेकिन गुरुदेव के खेतका पानी बहने न पावे, इस विचार से वे न तो तनिक भी हिले और न उन्होंने करवट बदली। शरीरमें भयंकर पीड़ा होते रहने पर भी वे चुपचाप पड़े रहे।

सबेरा होने पर संध्या और हवन करके सब विद्यार्थी गुरुदेव को प्रणाम करते थे। महर्षि आयोदधौम्यने देखा कि आज सबेरे आरुणि प्रणाम करने नहीं आया। महर्षिने दूसरे विद्यार्थियोंसे पूछा—‘आरुणि कहाँ है ?’
विद्यार्थियों ने कहा—‘कल शामको आपने आरुणि को खेतकी मेड़ बाँधनेको भेजा था, तबसे वह लौटकर नहीं आया।’
महर्षि उसी समय दूसरे विद्यर्थियों को साथ लेकर आरुणि को ढूँढ़ने निकल पड़े। उन्होंने खेत पर जाकर आरुणि को पुकारा। आरुणि से ठण्ड के मारे बोला तक नहीं जाता था। उन्होंने किसी प्रकार अपने गुरुदेवकी पुकार का उत्तर दिया। महर्षि ने वहाँ पहुँचकर उस आज्ञाकारी शिष्यको उठाकर हृदय से लगा लिया, आशीर्वाद दिया—‘पुत्र आरुणि ! तुम्हें सब विद्याएँ अपने-आप ही आ जायँ।’ गुरुदेव के आशीर्वाद से आरुणि बड़े भारी विद्वान हो गए।



मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

क्या विज्ञान ही ईश्वर है--लघुकथा--


क्या विज्ञान ही ईश्वर है?विज्ञान कथा डा श्याम गुप्तआज रविवार है, रेस्ट हाउस की खिड़की से के सामने फैले हुए इस पर्वतीय प्रदेश के छोटे से कस्बे में आस पास के सभी गाँवों के लिए एकमात्र यही बाज़ार है। यूं तो प्रतिदिन ही यहाँ भीड़-भाड़ रहती है परन्तु आज शायद कोई मेला लगा हुआ है,कोई पर्व हो सकता है।यहाँ दिन भर रोगियों के मध्य व सरकारी फ़ाइल रत रहते समय कब बीत जाता है पता ही नहीं चलता। तीज, त्यौहार पर्वों की बात ही क्या। आज न जाने क्यों मन उचाट सा होरहा है। मैं अचानक कमरे से निकलकर, पैदल ही रेस्ट हाउस से बाहर ऊपर बाज़ार की ओर चल देता हूँ, अकेला ही, बिना चपरासी, सहायक, ड्राइवर या वाहन के, मेले में।शायद भीड़ में खोजाना चाहता हूँ, अदृश्य रहकर, सब कुछ भूलकर, स्वतंत्र, निर्वाध, मुक्त गगन में उड़ते पंछी की भांति। क्या मैं भीड़ में एकांत खोज रहा हूँ?शायद हाँ। या स्वयं की व्यक्तिगतता (प्राइवेसी) या स्वयं से भी दूर... स्वयं को। एक पान की एक दूकान पर गाना आ रहा है ..'ए दिल मुझे इसी जगह ले चल ...' सर्कस में किसी ग्रामीण गीत की ध्वनि बज रही है। [Photo]ग्रामीण महिला -पुरुषों की भीड़ दूकानों पर लगी हुई है। महिलायें श्रृंगार की दुकानों से चूड़ियाँ खरीद-पहन रहीं हैं, पुरुष -साफा, पगड़ी, छाता, जूता आदि। नव यौवना घूंघट डाले पतियों के पीछे पीचे चली जारहीं हैं, तो कहीं कपडे, चूड़े, बिंदी, झुमके की फरमाइश पूरी की जा रही है। तरह तरह के खिलोने--गड़-गड़ करती मिट्टी की गाड़ी, कागज़ का चक्र, जो हवा में तानने से चक्र या पंखे की भांति घूमने लगता है। कितने खुश हैं बच्चे ...।मैं अचानक ही सोचने लगता हूँ....किसने बनाई होगी प्रथम बार गाड़ी, कैसे हुआ होगा पहिये का आविष्कार...! ये चक्र क्या है, तिर्यक पत्रों के मध्य वायु तेजी से गुजराती है और चक्र घूमने लगता है....वाह ! क्या ये विज्ञान का सिद्धांत नहीं है? क्या ये वैज्ञानिक आविष्कार का प्रयोग-उपयोग नहीं है...?आखिर विज्ञान कहाँ नहीं है...? मैं प्रागैतिहासिक युग में चला जाता हूँ, जब मानव ने पत्थर रगड़कर आग जलाना सीखा व यज्ञ रूप में उसे लगातार जलाए रखना, जाना।क्या ये वैज्ञानिक खोज नहीं थी। हड्डी व पत्थर के औज़ार व हथियार बनाना, उनसे शिकार व चमडा कमाने का कार्यं लेना, लकड़ी काटना-फाड़ना सीखना, बृक्ष के तने को 'तरणि' की भांति उपयोग में लाना, क्या ये सब वैज्ञानिक खोजें नहीं थीं?पुरा युग में जब मानव ने घोड़े, बैल, गाय आदि को पालतू बना कर दुहा, प्रयोग किया, क्या ये विज्ञान नहीं था। मध्य युग में लोहा, ताम्बा, चांदी, सोना की खोज व कीमिया गीरी क्या विज्ञान नहीं थी? कौन सा युग विज्ञान का नहीं था? चक्र का हथियार की भांति प्रयोग , बांसुरी का आविष्कार। विज्ञान आखिर कब नहीं था, कब नहीं है, कहाँ नहीं है..? सृष्टि का, मानव का प्रत्येक व्यवहार, क्रिया, कृतित्व , विज्ञान से ही संचालित, नियमित व नियंत्रित है। तो हम आज क्यों चिल्लाते हैं..विज्ञान-विज्ञान..वैज्ञानिकता, वैज्ञानिक सोच...; आज का युग विज्ञान का युग है, आदि ? विश्व के कण कण में विज्ञान है, सब कुछ विज्ञान से ही नियमित है..।विचार अचानक ही दर्शन की ओर मुड़ जाते हैं। वैदिक विज्ञान, वेदान्त दर्शन कहता है- 'कण कण में ईश्वर है, वही सब कुछ करता है, वही कर्ता है, सृष्टा है, नियंता है।' तो क्या विज्ञान ही ईश्वर है? विज्ञान क्या है? भारतीय षड दर्शन -सांख्य, मीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, वेदान्त का निचोड़ है कि -प्रत्येक कृतित्व तीन स्तरों में होता है- ज्ञान, इच्छा, क्रिया --पहले ब्रह्म रूपी ज्ञान का मन में प्रस्फुटन होता है; फिर विचार करने पर उसे उपयोग में लाने की इच्छा; पुनः ज्ञान को क्रिया रूप में परिवर्तित करके उसे दैनिक व्यवहार -उपयोग हेतु नई नई खोजें व उपकरण बनाये जाते हैं। ज्ञान को संकल्प शक्ति द्वारा क्रिया रूप में परिवर्तित करके उपयोग में लाना ही विज्ञान है, ज्ञान का उपयोगी रूप ही विज्ञान है , उसका सान्कल्पिक भाव --तप है, व तात्विक रूप--दर्शन है।ज्ञान, ब्रह्म रूप है; ब्रह्म जब इच्छा करता है तो सृष्टि होती है, अर्थात विज्ञान प्रकट होता है। विज्ञान की खोजों से पुनः नवीन ज्ञान की उत्पत्ति, फिर नवीन इच्छा, पुनः नवीन खोज--यह एक वर्तुल है, एक चक्रीय व्यवस्था है... यही संसार है... संसार चक्र ...विश्व पालक विष्णु का चक्र...जो कण कण को संचालित करता है। ....'अणो अणीयान, महतो महीयान'.... जो अखिल (विभु, पदार्थ, विश्व ) को भेदते भेदते अणु तक पहुंचे, भेद डाले, ...वह -- विज्ञान; जो अभेद (अणु, तत्व, दर्शन, ईश्वर) का अभ्यास करते करते अखिल (विभु, परमात्म स्थित, आत्म स्थित ) हो जाए वह दर्शन है...।अरे ! देखो डाक्टर जी ...। अरे डाक्टर जी.... आप ! अचानक सुरीली आश्चर्य मिश्रित आवाजों से मेरा ध्यान टूटा....मैंने अचकचाकर आवाज़ की ओर देखा, तो एक युवती को बच्चे की उंगली थामे हुए एकटक अपनी ओर देखते हुए पाया ...। "आपने हमें पहचाना नहीं डाक्टर जी, मैं कुसमा, कल ही तो इसकी दबाई लेकर आई हूँ, कुछ ठीक हुआ तो जिद करके मेले में ले आया।""ओह ! हाँ,...हाँ, अच्छा ..अच्छा ..."मैंने यंत्रवत पूछा। "अब ठीक है?""जी हाँ,"वह हंसकर बोली।"अरे सर , आप!" अचानक स्टेशन मास्टर वर्मा जी समीप आते हुए बोले। "अकेले.., आप ने बताया होता , मैं साथ चला आता।""कोई बात नहीं वर्मा जी," मैंने मुस्कुराते हुए कहा। "चलिए स्टेशन चलते हैं।"--डा श्याम गुप्त




शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

इसे कहते हैं -जीवन ,जीवन लक्ष्य,परमात्मा , आनंद व मुक्ति....


जीवन क्या है, इसे कैसे जीना चाहिए, -प्रायः विद्वान् अपने अपने ढंग से कहते रहते हैं जो-
प्रायः एकांगी दृष्टि होतीहै; पूर्ण दृष्टि के लिए देखिये यह समाचार, इसमें आई आई टी के इंजीनियर, भाभा रिसर्च सेंटर के वैज्ञानिक, गी-विद्युत ऊर्जा पर शोधकर्ता श्री सुद्धानंद गिरी जी अब आत्मीय ऊर्जा की खोज में हैं | यह ठीक उसी तरह है जिसेपूर्ण जीवन की खोज प्राप्ति के विषय में --यजुर्वेद के अंतिम अध्याय --ईशोपनिषद के ११ वें श्लोक --सूत्र में कहागया है---
""विध्यांन्चाविध्या यस्तद वेदोभय सह |अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्यया s मृतंश्नुते || ""
अर्थात --अविद्या ( सांसारिक ज्ञान, विज्ञान, ) प्राप्त करके , विद्या ( आत्म ज्ञान, आत्मीय ऊर्जा, परमात तत्व ) दोनोंको ही प्राप्त करना चाहिए | अविद्या से मृत्यु , अर्थात संसार सागर को पार करके , विद्या से अमृत अर्थात आत्मतत्व, ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति करनी चाहिए यही सम्पूर्ण जीवन है |

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लखनऊ, उत्तर प्रदेश, India
--एक चिकित्सक, शल्य-विशेषज्ञ जिसे धर्म, दर्शन, आस्था व सान्सारिक व्यवहारिक जीवन मूल्यों व मानवता को आधुनिक विज्ञान से तादाम्य करने में रुचि व आस्था है।