शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

वेदिक युग में चिकित्सक-रोगी संबंध--

वैग्यानिक,सामाजिक, साहित्यिक,मनोवैग्यानिक,प्रशासनिक व चिकित्सा आदि समाज के लगभग सभी मन्चों व सरोकारों से विचार मन्थित यह विषय उतना ही प्राचीन है जितनी मानव सभ्यता। आज के आपाधापी के युग में मानव -मूल्यों की महान क्षति हुई है; भौतिकता की अन्धी दौढ से चिकित्सा -जगत भी अछूता नहीं रहा है। अतः यह विषय समाज व चिकित्सा जगत के लिये और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। आज जहां चिकित्सक वर्ग में व्यबसायी करणव समाज़ के अति-आर्थिकीकरण के कारण तमाम भ्रष्टाचरण व कदाचरणों का दौर प्रारम्भ हुआ है वहीं समाज़ में भी मानव-मूल्यों के ह्रास के कारण, सर्वदा सम्मानित वर्गों के प्रति,ईर्ष्या,असम्मान,लापरवाही व पैसे के बल पर खरीद लेने की प्रव्रत्ति बढी है, जो समाज, मनुष्य,रोगी व चिकित्सक के मधुर सम्बंधों में विष की भांति पैठ कर गई है।विभिन्न क्षेत्रों में चिकित्सकों की लापर्वाही,धन व पद लिप्सा ,चिकित्सा का अधिक व्यवसायीकरण की घटनायें यत्र-तत्र समाचार बनतीं रहती हैं।वहीं चिकित्सकों के प्रति असम्मानजनक भाव,झूठे कदाचरण आरोप,मुकदमे आदि के समाचार भी कम नहीं हैं। यहां तक कि न्यायालयों को भी लापरवाही की व्याख्या करनी पढी। अतःजहां चिकित्सक-रोगी सम्बन्धों की व्याख्या समाज़ व चिकित्सक जगत के पारस्परिक तादाम्य, प्रत्येक युग की आवश्यकता है,साथ ही निरोगी जीवन व स्वस्थ्य समाज की भी। आज आवश्यकता इस बात की है कि चिकित्सक-जगत, समाज व रोगी सम्बन्धों की पुनर्व्याख्या की जाय ,इसमें तादाम्य बैठाकर इस पावन परम्परा को पुनर्जीवन दिया जाय ताकि समाज को गति के साथ-साथ द्रढता व मधुरता मिले।
संस्क्रति व समाज़ में काल के प्रभावानुसार उत्पन्न जडता , गतिहीनता व दिशाहीनता को मिताने के लिये समय-समय परइतिहास के व काल-प्रमाणित महान विचारों ,संरक्षित कलापों को वर्तमान से तादाम्य की आवश्यकता होतीहै। विश्व के प्राचीनतम व सार्व-कालीन श्रेष्ठ साहित्य,वैदिक-साहित्य में रोगी -चिकित्सक सम्बन्धों का विशद वर्णन है, जिसका पुनःरीक्षण करके हम समाज़ को नई गति प्र्दान कर सकते हैं।
चिकित्सक की परिभाषा--रिग्वेद(१०/५७/६) मे क्थन है--"यस्तैषधीः सममत राजानाःसमिता विव । विप्र स उच्यते भि्षगुक्षोहामीव चातनः ॥"--जिसके समीप व चारों ओर औषधिया ऐसे रहतीं हैं जैसे राजा के समीप जनता,विद्वान लोग उसे भैषजग्य या चिकित्सक कहते हैं। वही रोगी व रोग का उचित निदान कर सकता है। अर्थात एक चिकित्सक को चिकित्सा की प्रत्येक फ़ेकल्टी(विषय व क्षेत्र) ,क्रिया-कलापों,व्यवहार व मानवीय सरोकारों में निष्णात होना चाहिये।
रोगी व समाज का चिकित्सकों के प्रति कर्तव्य--देव वैद्य अश्विनी कुमारों को रिग्वेद में "धी जवना नासत्या" कहागया है, अर्थात जिसे अपनी स्वयम की बुद्धि व सत्य की भांति देखना चाहिये। अतःरोगी व समाज़ को चिकित्सक के परामर्श व कथन को अपनी स्वयम की बुद्धि व अन्तिम सत्य की तरह विश्वसनीय स्वीकार करना चाहिये। रिग्वेद के श्लोक १०/९७/४ के अनुसार---"औषधीरिति मातरस्तद्वो देवी रूप ब्रुवे । सनेयाश्वं गां वास आत्मानाम तव पूरुष ॥"--औषधियां माता की भंति अप्रतिम शक्ति से ओत-प्रोत होतीं हैं,हे चिकित्सक! हम आपको,गाय,घोडे,वस्त्र,ग्रह एवम स्वयम अपने आप को भी प्रदान करते हैं।अर्थात चिकित्सकीय सेवा का रिण किसी भी मूल्य से नहीं चुकाया जा सकता। समाज व व्यक्ति को उसका सदैव आभारी रहना चाहिये।
चिकित्सकों के कर्तव्य व दायित्व---
१. रोगी चिकित्सा व आपात चिकित्सा- रिचा ८/२२/६५१२-रिग्वेद के अनुसार--"साभिर्नो मक्षू तूयमश्विना गतं भिषज्यतं यदातुरं ।"-- अर्थात हे अश्विनी कुमारो! (चिकित्सको) आप समाज़ की सुरक्षा,देख-रेख,पूर्ति,वितरण में जितने निष्णात हैं,उसी कुशलता,व तीव्र गति से रोगी व पीढित व्यक्ति को आपातस्थिति में सहायता करें। अर्थात चिकित्सा व अन्य विभागीय कार्यों के साथ-साथ आपात स्थिति रोगी की सहायता सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
२. जन कल्याण- रिचा ८/२२/६५०६ के अनुसार--" युवो रथस्य परि चक्रमीयत इमान्य द्वामिष्ण्यति । अस्मा अच्छा सुभतिर्वा शुभस्पती आधेनुरिव धावति ॥"--हे अश्वनी कुमारो आपके दिव्य रथ( स्वास्थ्य-सेवा चक्र) का एक पहिया आपके पास है एक संसार में। आपकी बुद्धि गाय की तरह है।--चिकित्सक की बुद्धि व मन्तव्य गाय की भांति जन कल्याण्कारी होना चाहिये।उसे समाज व जन-जन की समस्याओं से भली-भांति अवगत रहना चाहिये एवम सदैव सेवा व समादान हेतु तत्पर।
३. रोगी के आवास पर परामर्श--रिग्वेद-८/५/६१००-कहता है- "महिष्ठां वाजसात्मेष्यंता शुभस्पती गन्तारा दाषुषो ग्रहम ॥"--गणमान्य,शुभ,सुविग्य,योग्य एवम आवश्यकतानुसार आप( अश्वनी कुमार-चिकित्सक) स्वयं ही उनके यहां पहुंचकर उनका कल्याण करते हैं।
४.-स्वयं सहायता( सेल्फ़ विजिट)--रिचा ८/१५/६११७-में कहा है--"कदां वां तोग्रयो विधित्समुद्रो जहितो नरा। यद्वा रथो विभिथ्तात ॥"--हे अश्विनी कुमारो! आपने समुद्र(रोग -शोक के ) में डूबते हुए भुज्यु( एक राजा) को स्वयं ही जाकर बचाया था, उसने आपको सहायता के लिये भी नहीं पुकारा था। अर्थत चिकित्सक को संकट ग्रस्त, रोग ग्रस्त स्थित ग्यात होने पर स्वयं ही ,विना बुलाये पीडित की सहायता करनी चाहिये।
यदि आज ी चिकित्सा जगत, रोगी ,तीमारदार,समाज सभी इन तथ्यों को आत्मसात करें,व्यवहार में लायें ,तो आज के दुष्कर युग में भी आपसी मधुरता व युक्त-युक्त सम्बन्धों को जिया जासकता है, यह कोई कठिन कार्य नहीं, आवश्यकता है सभी को आत्म-मंथन करके तादाम्य स्थापित करने की।

शनिवार, 22 अगस्त 2009

मीमांसा के सिद्दान्त,तर्क-संगत व सटीक --समाचार...हि.न्दुस्तान.........


क्या सटीक बात कही है आद.जज साहब काट्जू जी ने -कि लोग मेक्स्वेल आदि के सिद्दान्त आदि की बात तो करते हैं परंतु शब्दों की व्याख्या का ढाई हज़ार साल पुरानेमीमान्सा में दिये गये सिद्दान्तों की कोई बात नहीं करता, अदालतें भी इससे अनभिग्य हैं,उन्होने उदाहरण दिया " कलंजं भक्ष्येत" अर्थात बासी खाना नही खाना चाहिये।
वस्तुतः मीमान्सा है क्या? वास्तव में आज कुछ गिने-चुने लोग ही जानते होन्गे।" मीमान्सा" भारतीय षड-दर्शन का एक अंग है जो महर्षि जैमिनी द्वारा रचित है। जो वेदों की वैयाकरणीय व्याख्या प्रस्तुत करती है जिसमें शब्दों, अर्थों,भावों के तात्विक अर्थों पर विचार किया गया है।ग्यान मीमान्सा व तत्व मीमान्सा द्वारा विभिन्न शब्दों के तत्वार्थ दिये गये हैं, छोटे-छोटे सूत्र रूप में। उदाहरणार्थ--सर्व आत्म वशं सुखं, -सुख मनुष्य के अपने मन के वश में है।
"अवैद्य्त्वाद भावः कर्मणि स्वात"-(६/१/३७)-विद्या का सार्थक भाव न होने से व्यक्ति शूद्र होता है। तथा: गुणार्थमिति चेत"(६/१/४८)--जाति का आधार योग्यता है। "अज़ " का अर्थ पुराने चावल न कि मांस भक्षी लोगों द्वारा कहा हुआ ,बकरा ।" तपश्चफ़ल सिद्धिष्वाल्लोकवत"(३/८/८)--यग्य कर्म केवल धन व्यय करना नहीं तप की मनोव्रित्ति होनी चाहिये-- आदि ।
सिद्धान्त-- मीमान्सा जीवन के कर्मवादी सिद्दान्त की व्याख्या करती है।उसके अनुसार भौतिक जगत जैसा दिखाई देता है वैसा ही है। धर्म-एक भौतिक नियम है,प्रत्येक व्यक्ति की पसन्द की बस्तु नहीं, नैतिक कर्तव्य ही धर्म है। जगत परमाणु की प्रत्यक्ष सत्ता है,गुण,कर्म,द्रव्य,समभाव, अभाव आदि पंच तत्वों से से सन्सार बना है।वह शब्द-प्रमाण प्रमाणवाद की स्थापना करता है। फ़ल कर्म से मिलता है, वेद में जो ईश्वर का रूप है वही सत्य है।
मीमान्सा ईश्वर का वर्णन नहीं करता।
उद्देश्य--कर्म द्वारा ही ईश्वर व मोक्ष प्राप्ति। मानव जीवन का उद्देश्य-अभ्युदय,अर्थात सांसारिक उन्नति ,एवम निश्रेयस,अर्थात मोक्ष । कर्म द्वारा दुखः का नाश ही मोक्ष है।
मीमान्सा प्रत्येक शब्द व बस्तु, भाव,विचार ,तथ्य को विवेचनात्मक,विश्लेषणात्मक द्रष्टि से तौल कर कर्म करने का आदेश देती है। आधुनिक पाश्चात्य फ़िलासफ़ी में--मैटाफ़िज़िक्स(तत्व-मीमान्सा),एपिस्टोमोलोजी(प्रमाण मीमान्सा), एथिक्स(आचार मीमान्सा),ऐस्थेटिक्स(सौन्दर्य-मीमान्स)---मीमान्सा दर्शन के ही अन्ग हैं।

रविवार, 9 अगस्त 2009

वेदिक साहित्य में मानसिक स्वासथ्य व रोग...

मुन्डकोप निषद में शिष्य का प्रश्न है--"कस्मिन्नु विग्याते भगवो, सर्वमिदं विग्यातं भवति ।" और आचार्य उत्तर देते हैं--’प्राण वै’...। वह क्या है जिसे जानने से सब कुछ ग्यात हो जाता है? उत्तर है-प्राण । प्राण अर्थात,स्वयं,सेल्फ़,या आत्म; जोइच्छा-शक्ति(विल-पावर) एवम जीवनी-शक्ति (वाइटेलिटी) प्रदान करता है। यही आत्मा व शरीर का समन्वय कर्ता है। योग,दर्शन,ध्यान,मोक्ष,आत्मा-परमात्मा व प्रक्रति-पुरुष का मिलन, इसी प्रा्ण के ग्यान ,आत्म -ग्यान (सेल्फ़-रीअलाइज़ेसन ) पर आधारित है।समस्त प्रकार के देहिक व मानसिक रोग इसी प्राण के विचलित होने ,आत्म-अग्यानता से-कि हमें क्या करना ,सोचना,व खाना चाहिये और क्या नहीं;पर आधारित हैं ।
रोग उत्पत्ति और विस्तार प्रक्रिया ( पेथो-फ़िज़िओलोजी)--अथर्व वेद का मन्त्र,५/११३/१-कहता है--
"त्रिते देवा अम्रजतै तदेनस्त्रित एतन्मनुष्येषु मम्रजे।ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे तां ते देवा ब्राह्मणा नाशयतु ॥"
मनसा, वाचा, कर्मणा,किये गये पापों (अनुचित कार्यों) को देव(इन्द्रियां), त्रित (मन,बुद्धि,अहंकार-तीन अंतःकरण)
में रखतीं है। ये त्रित इन्हें मनुष्यों की काया में (बोडी-शरीर) आरोपित करते है( मन से शारीरिक रोग उत्पत्ति--साइकोसोमेटिक ) । विद्वान लोग ( विशेषग्य) मन्त्रों (उचित परामर्श व रोग नाशक उपायों) से तुम्हारी पीढा दूर करें। गर्भोपनिषद के अनुसार--"व्याकुल मनसो अन्धा,खंज़ा,कुब्जा वामना भवति च ।"---मानसिक रूप से व्याकुल,पीडित मां की संतान अन्धी,कुबडी,अर्ध-विकसित एवम गर्भपात भी हो सकता है।
अथर्व वेद ५/११३/३ के अनुसार---
"द्वादशधा निहितं त्रितस्य पाप भ्रष्टं मनुष्येन सहि । ततो यदि त्वा ग्राहिरानशें तां ते देवा ब्राह्मणा नाशय्न्तु ॥"
त्रि त के पाप (अनुचित कर्म) बारह स्थानों ( १० इन्द्रियों,चिन्तन व स्वभाव-संस्कार-जेनेटिक करेक्टर) में आरोपित होता है, वही मनुष्य की काया में आरोपित होजाते हैं; इसप्रकार शारीरिक-रोग से >मानसिक रोगसे >शारीरिक रोग व अस्वस्थता का एक वर्तुल(साइकोसोमेटिक विसिअस सर्किल) स्थापित होजाता है।
निदान---
१. रोक-थाम(प्रीवेन्शन)--प्राण व मन के संयम (सेल्फ़ कन्ट्रोल) ही इन रोगों की रोक थाम का मुख्य बिन्दु हैं।रिग्वेद में प्राण के उत्थान पर ही जोर दिया गया है। प्राणायाम,हठ योग, योग, ध्यान, धारणा, समाधि, कुन्डलिनी जागरण,पूजा,अर्चना, भक्ति,परमार्थ, षट चक्र-जागरण,आत्मा-परमात्मा,प्रक्रति-पुरुष,ग्यान,दर्शन,मोक्ष की अवधारणा एवम आजकल प्रचलित भज़न,अज़ान,चर्च में स्वीकारोक्ति, गीत-संगीत आदि इसी के रूप हैं। अब आधुनिक विग्यान भी इन उपचारों पर कार्य कर रहा है।रिग्वेद १०/५७/६ में कथन है---
--"वयं सोम व्रते तव मनस्तनूष विभ्रतः। प्रज़ावंत सचेमहि ॥" हे सोम देव! हम आपके व्रतों(प्राक्रतिक अनुशासनों) व कर्मों (प्राक्रतिक नियमों) में संलग्न रहकर,शरीर को इस भ्रमणशील मन से संलग्न रखते हैं। आज भी चन्द्रमा (मून, लेटिन -ल्यूना) के मन व शरीर पर प्रभाव के कारण मानसिक रोगियों को ’ल्यूनेटिक’ कहा जाता है।--रिग्वेद के मंत्र-१०/५७/४ में कहा है--" आतु एतु मनः पुनःक्रत्वे दक्षाय जीवसे। ज्योक च सूर्यद्द्शे ।।"
अर्थात-श्रेष्ठ , सकर्म व दक्षता पूर्ण जीवन जीने के लिये हम श्रेष्ठ मन का आवाहन करते हैं।
२, उपचार--रिग्वेद-१०/५७/११ कहता है-" यत्ते परावतो मनो । तत्त आ वर्तयामसीह क्षयाम जीवसे॥"-आपका जो मन अति दूर चला गया है( शरीर के वश में नहीं है) उसे हम वापस लौटाते है। एवम रिग्वेद-१०/५७/१२ क कथन है-
"यत्ते भूतं च भवयंच मनो पराविता तत्त आ......।" , भूत काल की भूलों,आत्म-ग्लानि,भविष्य की अति चिन्ता आदि से जो आपका मन अनुशासन से भटक गया है, हम वापस बुलाते हैं । हिप्नोसिस,फ़ेथ हीलिन्ग,सजेशन-चिकित्सा,योग,संगीत-चिकित्सा आदि जो आधुनिक चिकित्सा के भाग बनते जारहे हैं, उस काल में भी प्रयोग होती थे।
३. औषधीय-उपचार--मानसिक रोग मुख्यतया दो वर्गों में जाना जाता था---(अ) मष्तिष्क जन्य रोग(ब्रेन --डिसीज़) -यथा,अपस्मार(एपीलेप्सी),व अन्य सभी दौरे(फ़िट्स) आदि--इसका उपचार था,यज़ुर्वेद के श्लोकानुसार--"अपस्मार विनाशः स्यादपामार्गस्य तण्डुलैः ॥"--अपामार्ग (चिडचिडा) के बीजों का हवन से अपस्मार का नाश होता है। ---(ब) उन्माद रोग ( मेनिया)--सभी प्रकार के मानसिक रोग( साइको-सोमेटिक)--
-अवसाद(डिप्प्रेसन),तनाव(टेन्शन),एल्जीमर्श( बुढापा का उन्माद),विभ्रम(साइज़ोफ़्रीनिया) आदि।इसके लिये यज़ुर्वेद का श्लोक है--"क्षौर समिद्धोमादुन्मादोदि विनश्यति ॥"-क्षौर व्रक्ष की समिधा के हवन से उन्माद रोग नष्ट होते है।
क्योंकि मानसिक रोगी औषधियों का सेवन नहीं कर पाते ,अतः हवन रूप में सूक्ष्म-भाव औषधि( होम्यो पेथिक डोज़ की भांति) दी जाती थी। आज कल आधुनिक चिकित्सा में भी दवाओं के प्रयोग न हो पाने की स्थिति में (जो बहुधा होता है) विद्युत-झटके दिये जाते हैं।

शनिवार, 8 अगस्त 2009

अवतार की अवधारणा----

गीता में श्री क्रष्ण कहते हैं---’तदात्मानाम स्रजाम्य्हम’ वह कौन -अहं या मैं, है ,जो स्वयं को स्रजित करता है,जब-जब अधर्म बढ्ता है??
वस्तुतः यह मनुष्य का स्वयं या सेल्फ़ ही है,जिसकी मानव मन की ,आत्म की उच्चतम विचार स्थिति में ’स्वयम्भू’ उत्पत्ति होती है। मानव का स्वयं( आत्म,आत्मा,जीवात्मा,सेल्फ़, अहं) उच्चतम स्थिति में परमात्म स्वरूप (ईश्वर-लय ) ही होजाता है। जैसा महर्षि अरविन्द अति-मानष की बात कहते हैं। वह अति-मानष ही ईश्वर रूप होकर अवतार बन जाता है। तभी तो विष्णु ( विश्व अणु, विश्वाणु, विश्व -स्थित परम अणु ) सदैवे मानवों में ही अवतार लेते हैं। परमार्थ-रत उच्चतम विचार युत मानव-आत्म (मानव) ही परमात्म-भाव -लय होकर अवतार -भाव होजाता है।
तभी तो भग्वान क्रष्ण कहते हैं--मैं मानव लीला इसलिये करता हूं कि मानव अपने को पहचाने,अपनी क्षमता को जानकर स्वयं को आत्मोन्नति के मार्ग पर लेजाये, समष्टि को सन्मार्ग दिखाये।
अतः मनुष्य का आत्म, स्वयं उन्नत होकर ईश लय भाव होकर स्वयं को(ईश्वरीय रूप में) स्रजित करता है,
इस प्रकार ईश्वर का अवतार होता है।

रविवार, 2 अगस्त 2009

परमा र्थ----

मिट्टी का एक कण,पानी की एक बूंद, हवा की एक लहर, अग्नि की एक चिनगारी, आकाश का एक कतरा--पांचोपहाड की चोटी पर खडे होकर सूर्य की भगवान की प्रार्थना करने लगे--: हे! सविता देव! हम भी आपके समान बननाचाहते हैं। हमें भी अपने जैसा प्रकाश वान, ऐश्वर्य वान बना दो।" सूर्य की एक किरण अपने आराध्य का संदेशलेकर आई--
" भाइयो ! बहनो! भास्कर के समान तेजस्वी बनना चाहते हो तो उठो;
किसी से कुछ मत मांगो,अपना जो कुछ है वह प्राणी मात्र की सेवा मेंआज से ही उत्सर्ग करना प्रारंभ करदो यादरखो,
गलने में ही उपलब्धि का मूल मंत्र है,जितना तुम औरों के लिये दोगे, उतना ही तुम्हें मिलेगा। मांगने से नहींमिलेगा।
-------अखंड ज्योति से साभार।

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मेरी फ़ोटो
लखनऊ, उत्तर प्रदेश, India
--एक चिकित्सक, शल्य-विशेषज्ञ जिसे धर्म, दर्शन, आस्था व सान्सारिक व्यवहारिक जीवन मूल्यों व मानवता को आधुनिक विज्ञान से तादाम्य करने में रुचि व आस्था है।