बुधवार, 29 जुलाई 2009

आत्म- कथा--’आत्म’ की कथा

मैं आत्म हूं।समस्त भूतों(पदार्थों) -जड,जंगम, जीव में अवस्थित,उनका स्वयं,उनका अन्तर; "सर्व भूतेषु आत्माः" ।भौतिक विग्यानी मुझे ’एटम’ या ’परमाणु’ कहते हैं-अन्तिम कण, अर्थात प्रत्येक वस्तु का वह लघुतम अंश जिससे वह बनी है। अध्यात्म ,मुझे ’आत्म’ कहता है,प्रत्येक भूत में निहित। अतः मैं एटम का भी आत्म हूं। मेरे विना परमाणु भी क्रिया नहीं कर सकता। वह जड है,मैं चेतन; मैं आत्म हूं।
जब न ब्रह्मांड था,न परम व्योम,न वायु,नकाल,न ग्यान,न सत-न असत ; कुछ भी नहीं था। चारों ओर सिर्फ़ अंधकार व्याप्त था; केवल मैं चेतन ही अकेला,स्वयं की शक्ति से ,गतिशून्य होकर स्थित था। कहां?, क्यों? कैसे? कोई नहीं जानता; क्योंकि मैं ही सत हूं,मैं ही असत हूं,मैं ही सर्वत्र व्याप्त स्वयंभू व परिभू हूं; सब कुछ मुझ में ही व्याप्त है। मैं आत्म हूं।
मैं अपने परम अव्यक्त रूप -असद रूप या नासद रूप में जब आकार रहित होता हूं, ’पर-ब्रह्म’ कहलाता हूं। इस रूप में, मैं -कारणों का कारण, कारण ब्रह्म हूं,जो अगुण,अक्रिय,अकर्मा,अविनाशी, सबसे परे-परात्पर एवं केवल द्रिष्टा -सब द्रष्टियों की द्रष्टि- हूं। मेरे रूप को सिर्फ़ मनीषी ,आत्मानुभूति से ही जान पाते हैं और "वेद" रूप में गान करते हैं। मैं अक्रिय,असद चेतन सत्ता,स्वयंभू,परिभू हूं’; मैं आत्म हूं।
जब श्रष्टि हित मेरा भाव सन्कल्प ’ओ३म’रूप में आदि-नाद बनकर उभरता है तो मैं, अक्रिय-असद सत्ता से; सक्रिय-सत-चेतन सत्ताके रूप में व्यक्त होकर ’सद-ब्रह्म’, परमात्मा,ईश्वर, सगुण-ब्रह्म या हिरण्यगर्भ कहलाता हूं;जिसमें सब कुछ अन्तर्निहित है। मैं आत्म हूं।
हिरण्यगर्भ रूप में ,जब मैं श्रष्टि को प्रकट करने की इच्छा करता हूं तो-" एकोहं बहुस्याम" की ईषत इच्छा,पुनः ’ओ३म’ रूप में प्रतिध्वनित होकर, मुझमें अन्तर्निहित अव्यक्त मूल-प्रक्रिति,आदि-ऊर्ज़ा को व्यक्त रूप में अवतरित करदेती है और वह ’माया’ या ’आदि-शक्ति’ के रूप में प्रकट व क्रियाशील होकर,जगत व प्रक्रति की रचना के लिये,ऊर्ज़ा तरंगों, विभिन्न कणों एवं भूतों की रचना करती है; और मैं प्रत्येक कण में उनका ’आत्म’ बनकर प्रवश करजाता हूं,जड,जन्गम,जीव ,सभी में।मैं आत्म हूं।
जड रूप श्रष्टि में -भौतिक विग्यानी,मुझे केवल ’एटम’ या परमाणु तक ही पहचानते हैं, यद्यपि मैं परमाणु का भी चेतन-आत्म हूं। चेतन-रूप स्रष्टि में-मैं,जीव,जीवात्मा,आत्मा या चेतना के रूप में प्रवेश करता हूं,जिसे जीवन या जीवित-सत्ता कहा जाता है;प्राण्धारी व प्राण भी।इस रूप में, मैं-माया के प्रभाव में बिभिन्न अच्छे-बुरे सान्सारिक कर्मों में लिप्त होता हूं और जन्म-मरण के असन्ख्य चक्रों में घूमता हूं, सुख-दुख भोगता हूं, जब तक अलिप्त-अकाम्य कर्मोंके कारण’मोक्ष’ अर्थात माया बन्धन से छुटकारा न मिले। मैं आत्म हूं।
मैं जीव,जीवात्मा या प्राणी के रूप मेंजब अपने बहुत से सत्कर्मों का संचय कर लेता हूं तो प्रक्रति की सर्वश्रेष्ठ क्रति--जिसे ग्यान,मन,बुद्धि व सन्स्कार उपहार में मिलते हैं--मानव, मेन या आदम,के रूप में जन्म धारण करता हूं। इस रूप में, मैं स्वयं को माया बंधन से मुक्त करके,"मोक्ष" प्राप्त करने का प्रयत्न करताहूं और स्वयं को सत-व्यक्त ब्रह्म,हिरण्यगर्भ में लीन करदेता हूं एवम ’परम-आत्म ’ कहलाता हूं। लय या प्रलय के समय मैंपुनः "अनेक से एक" होने की इच्छा करता हुआ,प्रक्रति व माया लीन हिरण्यगर्भ को स्वयं मेंलीन करके पुनः अक्रिय,असद,परमसत्ता-"पर-ब्रह्म" बनकर अव्यक्त बनजाता हूं। मैं आत्म हूं।

रविवार, 19 जुलाई 2009

वेद ,विद्या,अविद्या,,विज्ञान, दर्शन,धर्म---

विद धातु( क्रिया) का अर्थ है ,जानना। वेद =जिससे सब कुछ जाना जासके, इसीसे-विद्या बना है। विश्व प्रसिद्ध कथन है--विश्व में कहीं भी जो कुछ भी है वह वेदो में है, जो वेदों में नहीं है वह कहीं नहीं है। वेद विश्व के प्राचीनतम साहित्य हैं। यजुर्वेद के ४०वे अध्याय,जो ईशोपनिषद के नाम से है में ----विद्या व अविद्या का वर्णन है, --
""अन्धतमः प्रविशन्ति ये अविद्यामुपासते
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्याया रताः॥"
"
यहां विद्या , अर्थात ग्यान -ईश्वर,आत्म,ब्रह्म के वारे में ग्यान;( दर्शन,धर्म,सदाचरण आदि)
तथा अविद्या ,अर्थात अग्यान-समस्त सान्सारिक ग्यान,अर्थात कर्म। उपनिषद्कार का कथन है-जो लोग अविद्या ,अर्थात सान्सारिक ग्यान, कर्म में ही फ़ंसे रहते हैं,वास्तविक ग्यान को नहीं समझते वे घोर कठिनाई मे घिरॆ रहते हैं। तथा जो लोग सिर्फ़ आत्म विद्या में ही रत रहते हैं,सान्सारिक विद्या व कर्म से विमुख रहते हैं वे औए भी अधिक कष्टों में पडते हैं। पुनः कहागया है---
"
""विद्यांचाविद्यां च यस्तद वेदोभय सह। अविद्यया म्रित्युं तीर्त्वा विद्ययाम्रतमश्नुते॥""
अर्थात विद्या(ग्यान) एवम अविद्या( कर्म,सान्सारिक ग्यान) को जो साथ साथ जानता है,वह अविद्या से म्रत्यु को जीत कर ,विद्या से अमरता को प्राप्त करता है।
भारतीय विचार धारा सटीक व पूर्ण वैग्यानिक है, यदि कोई काम -धाम नहीं करेगा बस भजन ध्यान ,ग्यान,दर्शन सत्सन्ग में ही लगा रहेगा तो खायेगा क्या? और यदि वह सिर्फ़ कमाने खाने में लगा रहेगा उचित ग्यान,विग्यान, दर्शन, मानवता,ईश्वर,धर्म पर नहीं सोचेगा तो आत्माभिमानीं ,अहन्कारी होकर घोर कष्टों का सामना करेगा।
विग्यान अर्थात विशिष्ट ग्यान, यह भी अविद्या के अन्तर्गत है,प्रत्येक वस्तु ,पदार्थ,प्रक्रति(विभु-द्रश्य जगत) के वारे में व्याख्या करते करते अणु(लघु) तक पहुंचना( तत्पश्चात ईश्वर,जीव अद्रश्य- के बारे में विचार करने पर यह विद्या में समाहित होजाता है) साइन्स-लेटिन-scio-से बना है इसका अर्थ हैजानना।knowledge on specific subject.( letin scientia=knowledge) |वस्तुतः लेटिन में साइन्स शब्द , भारतीय "सांख्य" से गया है,जो एक प्रसिद्ध भारतीय दर्शन है तथा बस्तु के विश्लेषण से सम्बन्धित है।
दर्शन अर्थात द्र्ष्टि, लघु( आत्म,ब्रह्म,जीव,माया -अद्रश्य ,द्र्ष्टि की द्र्ष्टि, पर ब्रह्म) के बारे में व्याख्या करते करते विभु( मानव,प्रक्रति,व्यवहार ,सदाचरण द्वारा ईश्वरीय महत्ता को जानना, प्रत्येक अणु व विभु के लिये व्यापक द्रष्टि ग्यान।
वस्तुतः ईश्वर की खोज दोनों का ही मन्तव्य है,क्योंकि ईश्वर स्वयम----अणो अणीयान महतो महीयान है। अणु व विभु दोनो में समाहित।
धर्म- दर्शन व विग्यान दोनों में समन्वय करता है, ऊपर श्लोक "विद्या च अविद्या..." के अनुसार अति दर्शन, अति भौतिकता से मानव को रोकता है।

बुधवार, 15 जुलाई 2009

उद्देश्य---इस चिट्ठे का--

इस चिट्ठे पर हम, ग्यान क्या है, उसके विभिन्न विभाग,उप विभाग, विग्यान क्या है,अग्यान क्या है, उनका धर्म, अध्यात्म ,दर्शन व जीवन से अन्तर्सम्बन्ध एवम आधुनिक विग्यान के बारे में विभिन्न द्रष्टिकोणों से दर्शाया जायेगा

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विग्यान ,दर्शन व धर्म के अन्तर्सम्बन्ध

मेरी फ़ोटो
लखनऊ, उत्तर प्रदेश, India
--एक चिकित्सक, शल्य-विशेषज्ञ जिसे धर्म, दर्शन, आस्था व सान्सारिक व्यवहारिक जीवन मूल्यों व मानवता को आधुनिक विज्ञान से तादाम्य करने में रुचि व आस्था है।